जीएम फसलों पर क्यों फिर से गहराया है विवाद

विशेषज्ञों का कहना है कि जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था, वे प्राप्त नहीं हुए हैं और इन फसलों की वजह से खेती में तमाम दिक्क्तें आ रही हैं।

Dr Mannoj MurarkaDr Mannoj Murarka   29 Sep 2023 1:22 PM GMT

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जीएम फसलों पर क्यों फिर से गहराया है विवाद

हाल ही में देश में आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलों (जीएम फसल) पर फिर से विवाद छिड़ गया।

इसी साल जून में जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति की एक बैठक से खुलासा हुआ कि गुजरात, महाराष्ट्र और तेलंगाना ने समिति के उस निर्देश को ख़ारिज कर दिया, जो उन्हें जीएम कपास के बीजों की एक नई किस्म का परीक्षण करने के लिए कह रहे थे। केवल हरियाणा ऐसा राज्य था, जो इस तरह के परीक्षण के लिए सहमत था।

केंद्र सरकार ने जीएम बीजों की 13 किस्मों के परीक्षण को मंज़ूरी दे दी है। हालाँकि जीएम फसलों पर वैज्ञानिकों की राय भी बँटी हुई है।

कॉरपोरेट घराने सक्रिय रूप से उनके लिए पैरवी कर रहे हैं, जबकि किसान संगठन और कार्यकर्ता जीएम बीजों की खेती, बिक्री और खपत, यहाँ तक कि इन बीजों के परीक्षण की इजाज़त देने का विरोध कर रहे हैं।


अब बात करते हैं खाने के तेलों की। भारत में 1995 तक खाने के लिए प्रयोग होने वाले तेल की बिल्कुल भी कमी नहीं थी। उसके बाद सरकार ने अपनी नीतियों में बदलाव किया। आयात पर लगने वाले टैक्स को कम किया। इससे सस्ता तेल बाहर से आने लगा और खाने वाले तेल का लोकल मार्केट खत्म होता चला गया। ऐसे में स्वाभाविक ही जब तेल की कमी होती है तो अन्य देशों से आयात करना पड़ता है।

विशेषज्ञों का कहना है कि मस्टर्ड ऑयल बहुत कम लोग खाते हैं, तो यह कहना कि आयात पर निर्भरता कम करने के मकसद से यह सब किया गया है, बिल्कुल तर्कसंगत नहीं लगता।

जीएम मस्टर्ड फसलें केमिकल के प्रयोग से तैयार हो रही हैं। केमिकल तो एक प्रकार का ज़हर ही है। एक अनुमान के अनुसार, अमेरिका में लाखों लोगों को फसलों में प्रयोग होने वाले कीटनाशकों के कारण कैंसर हो गया है।

किन-किन देशों में हो रहा है रसायनों का इस्तेमाल

भारत में भी फसलों के उत्पादन में रसायनों का प्रयोग लगातार बढ़ रहा है। इसके कारण लोग बड़ी संख्या में बीमार भी हो रहे हैं। यूरोप में मस्टर्ड का अभी इस्तेमाल नहीं हो रहा है।

कुछ देशों जैसे अमेरिका, कनाडा में मस्टर्ड के दुष्प्रभाव सामने आए हैं। भारत में भी मस्टर्ड की शुरुआत हो चुकी है। इसके दुष्प्रभावों से बचने के लिए हमें मस्टर्ड से दूरी बनानी होगी। रसायनों के प्रयोग से कृषि कार्य में लगे लोगों की सेहत खराब हो सकती है। अगर इसे नहीं रोका गया तो हमारी खेती जहरीली होती जाएगी।

चिंता की वजह क्या है

मस्टर्ड बहुत छोटा बीज होता है, इसलिए इसके खराब या बर्बाद होने की आशंका भी ज़्यादा रहती है। ज़्यादा जरूरी यह है कि हम अन्य देशों के अनुभव से सबक लें।

आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में कनाडा में 90 फीसदी किसानों की गेहूँ की खेती बर्बाद हो गई। अमेरिका में भी इसके परिणाम बहुत अच्छे नहीं रहे, इसलिए जीएम फसलों के प्रति सावधानी बरतना बहुत ही जरुरी है।

संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ब्राजील और अर्जेंटीना जीएम फसलों की खेती की अनुमति देते हैं। यूरोप में जीएम फसलों पर प्रतिरोध तीव्र है। वहीं यूरोपीय संघ अलग-अलग देशों को जीएम फसलों की खेती की अनुमति देने पर निर्णय की स्वतंत्रता देता है। उसने सामान्य रूप से जीएम फसलों के ख़िलाफ़ सख्त नियमों को अपनाया है।


फ़्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी और ग्रीस ने अपने राष्ट्रों के अंदर कई जीएम फसलों पर प्रतिबंध लगा दिया है। स्विट्जरलैंड ने 2005 से सभी जीएम फसलों पर रोक लगाई हुई है। चीन ने हाल तक जीएम फसलों की खेती की अनुमति नहीं दी थी, जब तक कि उसने नियमों में ढील नहीं दी और अपने मकई के खेतों के एक प्रतिशत से कम में जीएम मकई की अनुमति दी।

चीन ने पशु चारे के रूप में उपयोग के लिए जीएम सोयाबीन के आयात की अनुमति दी है। भारत की तरह चीन भी जीएम फसलों पर अपनी नीति बदल रहा है। रूस ने जीएम फसलों पर व्यावसायिक प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन उनसे संबंधित शोध की अनुमति दी है।

विरोध की ये है बड़ी वजह

जीएम फसलों का विरोधी पर्यावरण, स्वास्थ्य और व्यावसायिक आधार पर हो रहा है। आलोचकों का कहना है कि ये फसलें भारत की समृद्ध जैव विविध संपदा को नष्ट कर देंगी और लाखों किस्मों की फसलों की जगह ले लेगी मोनो क्रॉपिंग (एक ही भूमि पर साल-दर-साल एक ही फसल उगाने की प्रथा )।

उन्हें यह भी डर है कि इन फसलों से संशोधित जींस साधारण पौधों में आ सकते हैं और फिर बेकाबू खतरनाक खरपतवार पैदा हो सकते हैं, जो सामान्य खाद्य फसलों को नष्ट कर देंगे। सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण से किसान संगठन भी स्वाभाविक रूप से इन जीएम फसलों का विरोध करते हैं, क्योंकि उन्हें अपने बीजों पर नियंत्रण खो देने का डर है। फिर बीजों का कारोबार बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा ले लिया जाएगा तो वे उन्हें सामान्य बीजों की तुलना में अत्यधिक कीमतों पर बेचेंगे।


जीएम बीजों की लागत बहुत अधिक होगी, छोटे किसान उनका उपयोग नहीं कर सकेंगे और केवल धनी किसान ही उनसे लाभान्वित होंगे। अध्ययन बताते हैं कि कपास किसानों की कई आत्महत्या बीटी कपास की खेती की वजह से हुई थी, जिसने उन्हें कर्ज़दार बना दिया था।

जीएम फसलों के बारे में विश्व के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने बार-बार चेतावनियाँ दी हैं कि इनसे बड़े खतरे हो सकते हैं। जीएम फसलों के प्रसार से जुड़े अति शक्तिशाली तत्वों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ऐसे वैज्ञानिकों की आवाज़ दबाने की पूरी कोशिश की। इस स्थिति में वैज्ञानिकों ने मिलकर ऐसे बयान जारी किए, जिससे जीएम फसलों की सच्चाई सामने आई।

कुछ सालों पहले इंडिपेंडेंट साइंस पैनल में जुटे दुनियाभर के वैज्ञानिकों ने महत्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किया था। इसमें कहा गया था कि जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था, वे प्राप्त नहीं हुए हैं और जीएम फसलों की वजह से खेती में तमाम तरीके की दिक्क्तें आ रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रांसजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। इसलिए जीएम फसलों और गैर जीएम फसलों का सह अस्तित्व नहीं हो सकता है। खास बात ये है कि जीएम फसलों की सुरक्षा प्रमाणित नहीं हो सकी है। अगर इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य की क्षति होगी और मानव जीवन संकट में पड़ जाएगा।

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