हाथ के पंखे के बहाने चलिए अतीत की सैर करते हैं
याद है वो हाथ के रंग-बिरंगे पंखे, जिनके बिना गर्मी में हवा की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। लेकिन समय के साथ वो भी गुम होते जा रहे हैं।
Divendra Singh 16 Aug 2023 6:15 AM GMT
अभी कुछ दिनों पहले की बात है बाज़ार में टहलते हुए, नज़र प्लास्टिक के एक हाथ के पंखे पर अटक गई, अरे हाथ पंखा जिसे हम बेना के नाम से जानते हैं और कहीं कहीं पर इसे बिजना भी कहते हैं। एक समय था गर्मियों में किसी के घर पर मिलने वाला बेने से उसके रहन-सहन का आंकलन कर लिया जाता था।
पिछले एक दशक में गाँव की दूसरी ज़रूरी चीजों की तरह बेना भी गायब होता गया, अब तो गाहे बगाहे कुछ घरों में बेना मिल भी जाता है। लेकिन अगली पीढ़ी शायद बेना का नाम ही न सुनी हो। बाकी चीजों की तरह उनके लिए भी बेना शब्द नया ही हो।
एक समय था जब मार्च-अप्रैल के महीने में सर्दी को विदा करने के लिए रजाई को धूप दिखा कर संदूक में रखने की तैयारी होती तो उसी संदूक के किसी कोने में पड़ा बेना भी निकल आता।
फिर होती उसे सजाने संवारने की तैयारी, उधड़ चुके किनारों पर कपड़ों के नए गोटे सिले जाते, रंग-बिरंगी कपड़ों की कतरने, जिन्हें लाने की ज़िम्मेदारी घर के सबसे छोटे सदस्य की होती। उसे किसी दर्जी की दुकान पर भेजा जाता, कई बार कम कतरन लाने पर डाँट भी खानी पड़ती। लाल, पीली, हरी न जाने कितने रंगों के कतरनों के ढेर से अपने काम का कतरन ढूंढा जाता, और कोशिश ये रहती कि कतरन छोटी न हो।
अगर घर में शादी या कोई दूसरा कार्यक्रम है तो बाकी ज़रूरी काम की तरह नया बेना बनाने का काम भी शुरू हो जाता। बाज़ार से बाँस की पतली फट्टियों से बने लाल-हरे रंग के बेने मिलते। इनमें बाँस की फट्टियां ताने बाने की तरह आगे-पीछे लगी होती थीं। बाज़ार से बेना तो आ गया, अब शुरू होता इनके किनारों पर गोटे लगाने का काम। पुराने बेने घर में रहते और बाहर की बैठकों में नए रंग-बिरंगे बेने रख दिए जाते।
बाँस के बेने के साथ बाज़ार से ताड़ के पत्तों से बने गोल पंखियाँ भी आती, बड़ी-बड़ी पंखियाँ, जैसे राजा-महाराजाओं के बगल में खड़े लोग पंखे हाँकते, उसी तरह की पंखियाँ।
और जहाँ कार्यक्रम खत्म हुआ, कुछ को आगे के लिए रख दिया जाता, यहीं नहीं बाकी के दूसरे सामान की तरह बेना भी किसी कार्यक्रम में एक घर से दूसरे के घर जाता था।
समय के साथ बेने का कायाकल्प भी होता रहा, बांस की फट्टियों की जगह शादी के कार्ड से बेने बनाए जाने लगे, ऊपर से पॉलिथिन लगा दी जाती, जैसे कि इसे कई पीढ़ियों तक चलाना है। खाद की सफेद बोरियों पर रंग-बिरंगे ऊन से बनी डिजाइन तो याद ही होंगी, उन्हें भारी बनाने के लिए उनके अंदर क़ागज़ की मोटी दफ्तियाँ भरी जाती।
लेकिन ऐसा नहीं है कि बेना पूरी तरह से गुम हो गया है, आज भी हमारे घरों में गर्मियों में बिजली जाने पर पर यही बेना ही काम आते हैं, भले ही उनकी उनकी झालर का रंग उड़ गया हो। बस ये देखना है कि ये सिलसिला कब तक चलता है, नहीं तो बाकी पुरानी चीजों की तरह इन्हें भी हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को दिखाने के लिए किसी म्युजियम में ले जाएँगे और बड़े गर्व से कहेंगे ये देखो ऐसा ही एक बेना हमारी दादी और नानी के पास भी था।
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