चलिए एक बार फिर यादों के गलियारों में घूम आते हैं

इस भागम भाग वाली ज़िन्दगी में ये पुरानी यादें ही मुझे हौसला देती हैं। मुझे समझाने की कोशिश करती हैं कि आप दूर सही पर ज़िन्दगी भरपूर जी रहे हैं। ज़िन्दगी के असली मज़े ले रहे हैं पर क्या ये सच है के हम अपनी ज़िन्दगी जी रहे हैं?

shakti Tripathishakti Tripathi   2 Aug 2023 8:29 AM GMT

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चलिए एक बार फिर यादों के गलियारों में घूम आते हैं

आजकल जब भी फेसबुक खोलती हूँ, ज़्यादातर पोस्ट्स ऐसे होते हैं- "शेयर दिस! इफ यू आर 90 किड" "लिखे इफ यू मिस दिस अबाउट चाइल्ड्हुड'।

नाइन्टीज किड्स का ऐसा चलन चला है की स्पॉटीफ़ाई, गाना डॉट कॉम जैसे प्लेटफार्म पर डेडिकेटेड 90 सॉन्ग्स की प्लेलिस्ट है। ऐसी प्लेलिस्ट जो आपको आपके बचपन की धूमिल हो चुकी राह पर ले जाती है। ये सब पोस्ट्स पढ़कर आप ज़्यादा से ज़्यादा मुस्कुरा देते हैं या फिर कहीं अगर समय मिला तो आँखें मूंदकर कर वही पुरानी यादों को दोहराते हैं,

कभी कभी "नास्टैल्जिया" का डोज़ ज़्यादा हो गया तो सब कुछ छोड़ कर उसी पुरानी गली, उन्हीं पगडंडियों में वापस जाने का मन करने लगता है, जहाँ अभी भी ऐसा लगता है की समय ठहर सा गया है।


बड़े-बड़े शहरों की चकाचौंध, फैसिलिटीज जैसे ब्लिंकिट, बिगबास्केट, अमेज़न, ओला आपकी ज़िन्दगी को बेहद आसान कर रहे हैं, फ़ोन घुमाया और चीज़ें हाज़िर, अब तो कैश रखने की भी आदत छूट सी गयी है, सबके सब यूपीआई, पेटीएम का इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे हैं। पर ये सुख सुविधाएँ पड़ोस के परचून की दूकान में डेरा ज़माने का मज़ा थोड़ा किरकिरा कर यही हैं।

मुझे याद है मेरे पापा जब महीने का सामान लेने जाते थे तो मम्मी को पता होता था कि अब ये दो-तीन घंटे से पहले घर में नहीं आएँगे। उधर बैठ कर पड़ोस के चाचा लोगों के साथ गप्पे करेंगे, वही राजनीति और किसी सब्जी या फल के खाने के सौ फायदे वाले ज्ञान एक दूसरे को देते रहते। हमने तो बस ये दूर से देखा है सिर्फ, लेकिन उस वार्तालाप को जीने का मौका नहीं मिला, जब सोचा तो बहुत दूर निकल गए थे , एक ऐसी जगह, न ही कोई परचून की दुकान थी ना ही कोई चच्चा जैसे ज्ञान देने वाला।

याद है जब गाँव में एक या दो दिन बाज़ार लगा करती थी, जिसे जो भी चाहिए उसी दिन मिला करता था। हर किसी को उन दो दिनों का इंतज़ार रहता, लेकिन आजकल हर गली हर नुक्कड़ पर हर दिन हर सामान मिल जाता है। अब गाँवों में भी लोग ऑनलाइन शॉपिंग करने लगे हैं। छोटे शहरों और कस्बों में छोटे-छोट मॉल्स खुल गए हैं।


अब आप कहेंगे क्या आजकल के ज़माने में इतनी फुर्सत है? आप राजनीति की बातें यूट्यूब, फेसबुक, व्हाट्सएप के फॉरवर्ड से कर सकते हैं, "घर बैठे"; पर क्या आपको वो बातें खोखली नहीं लगती? ऐसा लगता है के आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस ने आज से ही नहीं पर बहुत साल पहले से ही हमारे जीवन के रस को सोख लिया है। अब बस उसे चैट जीपीटी और ओपन एआई जैसे फैंसी नाम देकर उसपे बेफिज़ूल चर्चा किये जा रहे हैं।

'मैं जहाँ रहूँ, मैं कहीं भी हूँ तेरी याद साथ है'

इस गाने के भरोसे मैंने कितनी सारी जटिल मीटिंग्स को सुलझाया है। हर नाज़ुक पल में मुझे मेरी यादों ने ही ताकत दी है। माल्स, पब्स की दुनिया में वो छोटी सी यादों की दुकान कहीं खो सी गयी है पर क्या उन यादों के लिए अपना आज छोड़ दें? अपने ऐशो आराम को छोड़ दें? बिल्कुल नहीं।

बस आप जहाँ भी अपनी जड़ों को देखें तो मुस्कुराएँ थोड़ा ज़्यादा , शर्मिंदा हुए बिना पहचाने उसे समाज में, उसे गर्व से धारण करें उसे कागज़ के कोने की तरह फाड़ के न फेंके, उसे सजाएँ, उसे संभालें।

आज भी नाइन्टीज किड्स का दिल कुमार सानू के लिए ज़्यादा धड़कता है पर वो जस्टिन बीबर के कॉन्सर्ट में जाना ज़्यादा पसँद करते हैं। आपको ज्ञान नहीं देना चाहती हूँ, पर इतना कहूँगी के जहाँ 100 बार स्टारबक्स की कॉफ़ी पी है वहीं कहीं नुक्कड़ की चाय शॉप पर चाय का भी आनंद लीजिए। माल्स जाते हैं तो एक बार लोकल मार्केट में जाकर जम कर शॉपिंग कीजिये, और मस्त बार्गेनिंग कीजिए। एक बार वो सब करिये और महसूस करिये जो आपने बचपन में देखा या फिर किया। जो आप महसूस करेंगे वो अद्भुत और अविस्मरणीय होगा। ये मेरी गारंटी है, नयी यादें बनाइए। एक नए नास्टैल्जिया की ओर!

(पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर शक्ति त्रिपाठी वैसे तो यूपी के गोरखपुर की रहने वाली हैं, पिछले कई साल बैंगलूरू जैसे शहरों में रह रहीं हैं)

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