अप्रशिक्षित, अयोग्य लेकिन जरूरी - ग्रामीण भारत के 'झोलाछाप' डॉक्टर

ग्रामीण भारत में स्वास्थ्यकर्मियों की भारी कमी है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में काफी अंतर है। शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण की अपेक्षा डॉक्टरों की संख्या चार गुना ज्यादा है। खराब ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचा और ग्रामीणों के जागरुकता कमी के कारण झोलाछाप डॉक्टरों द्वारा संचालित क्लीनिकों में वृद्धि हुई है जो दवा देने के लिए अधिकृत भी नहीं हैं।

Lakhan SalviLakhan Salvi   4 Nov 2022 9:27 AM GMT

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अप्रशिक्षित, अयोग्य लेकिन जरूरी - ग्रामीण भारत के झोलाछाप डॉक्टर

एक कमरे में एक टेबल-कुर्सी और दो-तीन चारपाईयों व जेनरिक दवाओं की व्यवस्था करके झोलाछाप डॉक्टर अपना क्लिनिक शुरू कर देते है। ये न मरीजों का कोई रिकॉर्ड रखते है और ना ही दवाओं का। कई प्रतिबंधित दवाएं भी ये रखते है। सभी फोटो: लखन सालवी

उदयपुर, राजस्थान। इस साल की शुरुआत में मार्च में उदयपुर जिले के कौचा गाँव निवासी 45 वर्षीय कसना गरासिया के शरीर के अंगों में दर्द होने लगा। परिवार के सदस्य उन्हें कोटड़ा शहर के एक स्थानीय डॉक्टर के पास ले गए जो एक झोलाछाप डॉक्टर था।

"उन्हें क्लिनिक में एक ड्रिप पर रखा गया था लेकिन जल्द ही उनकी हालत खराब हो गई। जब हम उन्हें उदयपुर शहर के एक अस्पताल ले जा रहे थे तो रास्ते में उन्होंने अंतिम सांस ली, "मृतक के रिश्तेदार ने गाँव कनेक्शन को बताया।

कुछ ऐसी ही कहानी गोगुंदा ब्लॉक के मन्ना जी का गुड़ा गाँव के भंवर लाल मेघवाल की है। उनकी पत्नी 27 वर्षीय भूरी बाई 25 सितंबर 2019 को बीमार पड़ गईं। उन्हें झोलाछाप डॉक्टर के पास ले जाया गया जहां इलाज के रूप में इंजेक्शन लगाया गया।

"इंजेक्शन लगने के बाद उसकी हालत बिगड़ गई। फिर हम उसे उदयपुर के महाराणा भूपाल सरकारी अस्पताल ले गए, लेकिन कुछ ही देर बाद डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरी पत्नी नहीं रही!" भंवर लाल मेघवाल ने गाँव कनेक्शन को बताया।

क्लीनिक को बंद करवाती पुलिस

ग्रामीण भारत कसना गरासिया और भूरी बाई जैसे ग्रामीणों की मौत के दुखद उदाहरणों से भरा हुआ है। इनकी मौत इसलिए हो गई क्योंकि इनका इलाज एक पेशेवर डॉक्टर के माध्यम से नहीं हो पाया। ग्रामीण भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी अयोग्य चिकित्सकों पर निर्भर है, जिन्हें झोला छाप या बंगाली डॉक्टर के नाम से जाना जाता है।

ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य के लिए मानव संसाधनों की भारी कमी है, जिसे आमतौर पर एचआरएच कहा जाता है। भारत महत्वपूर्ण एचआरएच की कमी वाले 57 देशों में से एक है जैसा कि जनवरी 2022 के एक रिपोर्ट में बताया गया जिसका शीर्षक है, 'Workforce problems at rural public health-centres in India: a WISN retrospective analysis and national-level modelling study'.

इस शोध अध्ययन के अनुसार विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की 44.5 की सिफारिश की तुलना में डॉक्टरों, नर्सों और दाइयों का राष्ट्रीय घनत्व प्रति 10,000 लोगों पर 20.6 पाया गया। इसके अलावा एचआरएच में महत्वपूर्ण शहरी-ग्रामीण अंतर हैं और शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में चार गुना अधिक डॉक्टर घनत्व है।

स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ाने और ग्रामीण भारत में एचआरएच पहुंच में सुधार करने के लिए, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (एमओएचएफडब्ल्यू) ने 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) शुरू किया। इसके कार्यान्वयन के कई वर्षों के बावजूद, ग्रामीण क्षेत्रों में एचआरएच की कमी अभी भी बनी हुई है और ग्रामीण या तो झोलाछाप या स्वास्थ्य कर्मियों पर निर्भर हैं ताकि वे बीमारियों के इलाज सहित अपनी चिकित्सा जरूरतों को पूरा कर सकें।

8 बाई 10 फीट के कमरे में दो मरीजों का उपचार करता बंगाली डॉक्टर

"भारत में लगभग 1,500,000 स्वास्थ्य कर्मचारियों के पास प्राथमिक चिकित्सा और स्वास्थ्य देखभाल का अनुभव है, लेकिन उनके पास कोई प्रमाण पत्र नहीं है। इसलिए सरकार ने ऐसे पेशेवरों को प्रमाणित करना शुरू किया। हालांकि ये लोग केवल प्राथमिक चिकित्सा प्रदान कर सकते हैं और रोगियों को उच्च अधिकारियों या संस्थानों में भेज सकते हैं। अगर ये लोग मरीजों को दवा मुहैया करा रहे हैं तो यह पूरी तरह गलत है।' मनसा इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एंड हेल्थ साइंसेज के निदेशक विजय भूषण ने गांव कनेक्शन को बताया।

जयपुर स्थित यह संस्थान स्वास्थ्यकर्मियों को प्रमाण पत्र देने के लिए अधिकृत संस्थानों में से एक है। भूषण ने कहा कि इनके पास मरीजों को दवाएं देने का अधिकार नहीं है।

लेकिन, जमीनी हकीकत बहुत अलग है।

राजस्थान के उदयपुर जिले के गोगुन्दा कस्बे में 'प्रियंतो क्लिनिक' एक अधेड़ उम्र के डॉक्टर द्वारा चलाया जाता है। डॉक्टर की मेज के बगल में एक हरे रंग का पर्दा होता है जिसके पीछे छोटे-छोटे बेड होते हैं जिनका उपयोग मरीजों को इंजेक्शन और ड्रिप लगाने के लिए किया जाता है।


अक्टूबर 2019 में चिकित्सा, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग में तत्कालीन ब्लॉक मुख्य चिकित्सा और स्वास्थ्य अधिकारी [BCMHO] उदयपुर स्थित ओपी रायपुरिया के नेतृत्व में हुई जांच में पाया गया कि इस क्लिनिक को चलाने वाला डॉक्टर 10वीं कक्षा तक स्कूल गया है।

हालांकि, पूछताछ करने पर कथित डॉक्टर ने गाँव कनेक्शन को बताया कि उन्होंने बी-एस-ए-एम नामक एक पाठ्यक्रम का अध्ययन किया था, लेकिन संक्षिप्त नाम का क्या मतलब था इसका जवाब नहीं दे सका।

इस बीच 'डॉक्टर' के खिलाफ जांच का नेतृत्व करने वाले अधिकारी रायपुरिया ने अफसोस जताया कि इन धोखाधड़ी वाले डॉक्टरों के खिलाफ ज्यादातर जांच 8 सितंबर 2015 के सरकारी आदेश के कारण अनिर्णायक थी।

"जब हम ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे क्लीनिकों पर छापा मारते हैं तो प्रभारी डॉक्टर हमें एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता होने का प्रमाण पत्र दिखाते हैं जो सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों द्वारा जारी किया जाता है। राज्य सरकार ने एक नोटिस में उल्लेख किया है कि ऐसे श्रमिकों को नीम हकीम [पारंपरिक चिकित्सा व्यवसायी] या झोलाछाप के रूप में नहीं जोड़ा जाना चाहिए, "रपुरिया ने कहा। उन्होंने कहा, "उन्हें इलाज प्रदान करने से रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए, जिसके लिए वे अधिकृत नहीं हैं, इसका उल्लेख सरकारी आदेश में नहीं किया गया है,"।

जब गाँव कनेक्शन ने उदयपुर के झोला छाप डॉक्टर से ऐसा ही एक प्रमाण पत्र प्राप्त किया तो पता चला कि ये स्वास्थ्य कार्यकर्ता शुरुआती स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने, बच्चे और मातृ स्वास्थ्य की देखरेख करने और उन क्षेत्रों में आपात स्थिति के दौरान प्राथमिक चिकित्सा प्रदान करने के लिए प्रमाणित हैं, जहां पर्याप्त औपचारिक चिकित्सा कर्मचारी उपलब्ध नहीं हैं।


2019 में राजस्थान के स्वास्थ्य विभाग द्वारा उनके खिलाफ जांच के बावजूद, 'प्रियंतो क्लिनिक' में 'डॉक्टर' अपना क्लिनिक चला रहा है।

चित्तौड़गढ़ स्थित चिकित्सा व्यवसायी और प्रयास एनजीओ के सदस्य नरेंद्र गुप्ता ने गाँव कनेक्शन को बताया कि इन अनधिकृत स्वास्थ्य सेवा देने के कामकाज में शामिल घातक जोखिमों के बावजूद उनकी भूमिका लगभग अनिवार्य हो गई है, खासकर ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में जहां सरकार की स्वास्थ्य सेवाएं न के बराबर हैं।

"राजस्थान राज्य में जितने गाँव हैं उतने ही झोलाछाप हैं। कई मरीजों की जान भी चली जाती है। रिश्तेदार शिकायत नहीं करते हैं क्योंकि यह उनके लिए चौबीस घंटे उपलब्ध स्वास्थ्य देखभाल का का एकमात्र साधन वही है। अधिकांश झोलाछापों को ग्रामीण लोग उनके काम के लिए सम्मानित करते हैं," उन्होंने कहा।

नोट: यह स्टोरी स्वतंत्र पत्रकारों के लिए NFI फैलोशिप के तहत रिपोर्ट की गई है।

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