'सरौते' पर एक ट्वीट ने खोल दीं यादों की अनगिनत खिड़कियां
Jamshed Qamar | Apr 28, 2020, 13:40 IST
ट्विटर यूज़र्स ने अपने बचपन में इस्तेमाल किये जाने वाली उन चीज़ों को याद किया जो इस दौर में नहीं दिखतीं। बदलती हुई ज़बान के उन शब्दों का भी ज़िक्र हुआ जो कभी बहुत आम बोल-चाल में थीं लेकिन आज सुनाई नहीं देती।
गुज़रे हुए वक्त को याद करना कितना ख़ूबसूरत एहसास है ना। और कितनी अजीब बात है कि गुज़रे हुए वक्त में हम जिन बातों पर कभी रोए थे, उन्हें याद करते हुए आज मुस्कुराते हैं और जिन बातों पर दोस्तों के साथ हसते थे आज उन्हें याद करते हुए आंखों में आंसू आ जाते हैं। बीते दिनों ट्वीटर पर सिर्फ एक ट्वीट ने यादों का ऐसा ही शानदार झरना खोल दिया। तमाम लोगों ने उस एक ट्वीट पर अपनी गुज़रे हुए वक्त, बीत चुके ज़माने, भुला दी गई ज़बान के शब्दों को फिर से याद किया। मशहूर क़िस्सागो और हिंदी फ़िल्मों के कामयाब गीतकार नीलेश मिसरा ने एक ट्वीट किया, जिसमें उन्होंने डली काटने वाले 'सरौता' की तस्वीर लगाते हुए लिखा -
इस एक ट्वीट ने यादों के अनगिनत झरोखे खोल दिए। बदलती दुनिया की तेज़ रफ्तार में चलते हुए भुला दिए गए शब्द और वो छोटी-बड़ी चीज़ें जो कभी हमारी ज़िंदगी का अहम हिस्सा होती थीं, ट्विटर यूज़र्स को याद आईं। चलिए आपको बताते हैं कि प्रतिक्रियाओं के तौर पर वो कौन कौन सी चीज़ें और शब्द ट्वीटर यूज़र्स को याद आईं और उनसे जुड़ी खूबसूरत क़िस्से भी जिनका ज़िक्र हुआ।
1. सरौता
पिक्चर सोर्स - ट्विटर
पान रखने का वो पेटी नुमा बक्सा याद है आपको? कमरे के किनारे रखे एक स्टूल पर सजा होता था। जिसे एक रंगीन कपड़े से ढक कर रख जाता था। दादी-नानी या घर के किसी बुज़ुर्ग का वो पानदान, जिसमें पीतल की छोटी-छोटी डिब्बियां होती थीं। जिनमें कत्था, चूना, सौंफ, डली रखी जाती थी और उसमें होता था - छोटा सा सरौता। डली काटने का ये छोटा सा औज़ार जो घर के बुज़ुर्गों के हाथ में दिखता था। बचपन में बुज़ुर्गों की दी गयी नसीहतें, प्यार, फिक्र या थोड़ी सी डांट याद करेंगे तो उनमें सरौता भी याद आएगा। डली काटते हुए की गयी वो तमाम बातें जो अब सिर्फ यादों में दफ्न हैं अक्सर याद तो आती होंगी। ट्वीट के जवाब में सरौते का ज़िक्र करते हुए सुधा नाम की एक ट्वीटर यूज़र ने लिखा –
"हमारे यहां इसे खिलबट्टी कहते थे। पान को रखने की छोटी सी पेटी नुमा बॉक्स। दादाजी को सुबह-सुबह दादी 20 पान बनाकर खिलबट्टी में दे देती थी और कहती थी इतना ही चबाइयेगा दिन भर। इससे ज्यादा लगाकर नहीं दूंगी और दादा जी 2 घंटे में खाली कर देते थे। सरौता देखकर खिलबट्टी ही याद आई और सुपारी का कतरा सरौता से बनता था।"
तमाम लोगों ने कहा कि सरौते के ज़िक्र के साथ ही वो गुज़रे हुए ज़माने में चले गए। एक दूसरे यूज़र ने लिखा, "बचपन में गर्मी की छुट्टी में दादी के गांव में मेरा काम था कि दोपहर के खाने के बाद दादी के पान का सामान लाकर देना। और मुझे बखशीश में एक रुपया मिलता था। जो मैं सीधे अपनी गुल्लक में जमा कर लेता था। बचपन की उस कमाई के आगे आज का बैंक बैंलस भी कुछ नहीं है"
सरौता की ज़िक्र करते हुए शादाब ने ट्वीट किया, "दादी के जाने के बाद सरौता भी जाने कहां गुम हो गया। कसैली के लिए अम्मा इस्तेमाल किया करती थीं और ईद के दौरान सिवैंया बनाने के लिए उसी सरौते से छुआरा, नारियल और बादाम काटा जाता था। अब तो कटा हुआ मेवा बाज़ार से मिल जाता है, लेकिन वो बात कहां आती है"
2. चक्की
पिक्चर सोर्स - ट्विटर
हिंदुस्तानी तहज़ीब में चक्की हर घर-आंगन की सबसे ज़रूरी चीज़ों में से एक होती थी। दो पत्थरों के एक-दूसरे पर घिसने की वो आवाज़ याद कीजिए। घर्र-घर्र की आवाज़ जिसके साथ-साथ आंगन में चक्की चलाती महिलाओं की बातचीत भी होती रहती थी। नए दौर में पैकट सील आटा रसोई में रखे बड़े बर्तनों में पलटते वक्त वो आवाज़ याद आती है आपको? कई ट्वीटर यूज़र्स ने बताया कि उनके बचपन के दिनों में चक्की उनके घर की सबसे अहम सदस्य होती थी। और कभी गलती से उस पर पैर लग जाए तो छू कर हाथ माथे से लगाने को कहा जाता था। बेशक, आज चक्की घरों में नहीं होती और होती भी है तो आंगन के किसी किनारे, या बेकार हो चुके सामान के साथ रखी हुई गुज़रे वक्त को याद करती है। चक्की का ज़िक्र करने वाले महाराष्ट्र के अमोल काले ने लिखा, "मराठी मे इसे 'जातं' कहते है। आज भी महाराष्ट्र के किसी भी गांव मे जाईये तो लगभग सभी घरों में मिलेगी लेकिन इसका इस्तेमाल बहुत कम हो गया है।"
परवेज़ आलम ने चक्की की यादें ताज़ा करते हुए लिखा "उन दिनों चक्की चलाना हम बच्चों के लिए किसी खेल जैसा होता था। लेकिन हमें चक्की चलाने से मना कर दिया जाता था। हालांकि दोपहर के वक्त जब अम्मा सो जाती थीं तो हम बच्चे बिना पाट में अनाज डाले उसे घुमाया करते थे।"
मिहिर ने लिखा, "गुजरात में चक्की को 'सूड़ी' कहते हैं। इस तस्वीर को देखकर नाना जी से जुड़ी तमाम यादें ज़हन में ताज़ा हो गयीं।" जबकि शिव नाम के यूज़र ने बताया कि उन्होंने भी चक्की खूम घुमाई है और इसे मगही में जांता, अवधी में दरेतिया कहते थे। लेकिन अब ये शब्द सुनने को भी नहीं मिलते।
3. ढेबरी
पिक्चर सोर्स - ट्विटर
"ओह्हो लाइट फिर चली गयी। ढेबरी जालओ.. कोई" ये जुमला आखिरी बार आपने कब सुना था, याद कीजिए। शायद बचपन के उन दिनों में जब लाइट जाने पर रौशनी करने का पूरा दारोमदार, अलमारी या खिड़की पर रखी ढेबरी या कुप्पी का होता था। पुरानी बोतल में तेल भरकर उसके ढक्कन में छेद करके बत्ती डालकर बनाई जाती थी ढेबरी। और ये काम घर का कोई ज़िम्मेदार शख्स करता था, क्योंकि कितनी बत्ती ढक्कन से ऊपर निकालनी है ये बारीक काम माना जाता था। एक ढबरी घर की बाहरी खिड़की पर रखी जाती थी ताकि दरवाज़े पर रौशनी रहे। इसी ढेबरी की रौशनी में कितने इम्तेहानों की पढ़ाई हुई और कितने ख़त लिखे गए... सब याद आया उन ट्विटर यूज़र्स को जिन्होंने इसका ज़िक्र किया।
उत्कर्ष श्रीवास्तव ने लिखा, "उन दिनों बिजली बहुत कटती थी। लैम्प की कमी थी। ऐसे में हमारे हिस्से में तो दादी की दवा की खाली शीशी से बनाई गयी ढबरी ही आती थी। इनवर्टर का चलन तो आज भी आम नहीं हुआ लेकिन ढेबरी अब घर के किसी ताक पर दिखाई नहीं देती। वक्त ने इसे चलन से बाहर कर दिया लेकिन यादों में ढेबरी हमेशा ज़िंदा रहेगी।"
एक दूसरे ट्वीटर यूज़र प्रत्युष ने लिखा, "हमारे गांव में कुम्हार ढेबरी बना कर बेचा करते थे। हम लोग अमूमन दवा की पुरानी शीशियों से ही बनाते थे। दीवाली में भी इनका ख़ूब इस्तेमाल होता था। उस दौर में चायनीज़ झालर की जगमग नहीं थी, एक किनारे चुपचाप हल्की रौशनी में ढेबरी जलती रहती थी। आज ज़मानों बाद ढेबरी की याद आई"
गिरधारी लाल ने अपने बचपन याद करते हुए ट्वीट किया, "और हम ढेबरी, पालिश की खाली डब्बी या साइकिल ट्यूब की वाल्व से बनाते थे। इसमें रोशनी कम या ज्यादा करने की सुविधा रहती थी। खलिहान या बाहर ले जाने के लिए बत्ती एक डब्बे के अंदर फिट कर देते थे जिससे हवा से लौ बुझती नहीं थी। आज इसे याद करके लगा बचपन कहां छोड़ हम"
4. कैंची सायकिल
तस्वीर सोर्स - ट्विटर सायकल चलाना सीखने की प्रक्रिया में कैंची चाल सबसे महत्वपूर्ण पायदान माना जाता है। बचपन का वो दौर याद कीजिए जब चुपके से चाचा की सायकल उनकी नज़र बचाकर निकालते थे और हैंडल पकड़कर आधे-आधे पैंडल मारते हुए सायकल चलाते थे। कैंची सायकल चलाने पर जो गर्व का एहसास होता था आज बड़ी सी बड़ी कामयाबी पर भी नहीं होता। कैंची सायकल चलाने का ज़िक्र निकला तो तमाम ट्वीटर यूज़र्स ने अपने अनुभव साझा किये। लेकिन इनमें सबसे शानदार बीतचीत तीन ट्वीट यूज़र्स की थी।
सौरभ तिवारी ने लिखा – "नीलेश भैया दादा जी की 24 इंच वाली ऐटलस साईकल याद आ गयी जिसे मैंने कैंची, डंडा और फिर गद्दी - तीन चरण में सम्पूर्ण रूप से चलाना सीखा था। पहली बार कैंची चलाना सीखने पर इतनी खुशी हो रही थी जैसे कोई हवाई जहाज़ चलाना सीख लिया हो। वो दिन ज़िन्दगी की सबसे अच्छे दिनों में से एक है।"
इसके जवाब में विवेकानंद पांडे ने लिखा, "सौरभ जी, तब तो सम्पूर्ण नहीं चलाए आप। सम्पूर्ण होता है- कैंची, डंडा, गद्दी, और 'कैरियर' जिसे सही में कैरियल कहा जाता था। चौथा चरण सबसे मुश्किल था। गद्दी के पीछे लगे कैरियर पर बैठ कर चला लिए तो फिर समझिए सिद्धहस्त हो गए।"
लेकिन बात यहीं नहीं रुकी, विवेकानंद पांडे के ट्वीट का जवाब देते हुए नितिन तिवारी ने कहा, "तब तो पूर्ण आप भी नही चला पाए पांडे जी। क्योंकि एक चरण और होता है, जब आप डंडे में किसी को बिठा लें और वो हैंडल संभाले आप पेंडल लगाएं। तब कहलाते थे उस्ताद।"
5. झाड़ू
6. सिलबट्टा
पिक्चर सोर्स - ट्विटर
आंगन से उठती वो सौंधी-सौंधी धनिया की खुश्बू आपको भी याद होगी। सिलबट्टे की घर्र-घर्र की आवाज़ के साथ आगे-पीछे होती हुई मां या दादी, जो बीच-बीच में हथेली तिरछी करके सिल पर फैली हरी चटनी समेट लेती थीं, याद आया? तमाम लोगों ने सिलबट्टे का ज़िक्र करते हुए कहा कि ये आज भी उनके घरों में मौजूद तो है लेकिन इस्तेमाल ना के बराबर होता है।
अविश ने सिलबट्टे को याद करते हुए लिखा, "धनिया की चटनी बड़ी शानदार होती थी। मेरी दादी पीसती थीं उसकी खुश्बू आज भी याद है। आज के ग्राइंडर में पिसी चटनी में वो बात कहां"
तमाम लोगों ने बताया कि सिलबट्टा हिंदुस्तान की अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है। अनिकेत जोशी ने बताया कि मराठी में सिलबट्टे को पाटन कहते हैं। जबकि अंकित ने बताया कि मैथिली में इसे सिलौट-लौढ़ा कहते थे।
7. इमाम दस्ता
पिक्चर सोर्स - ट्विटर
"धम्म, धम्म, धम्म" की वो आवाज़ याद है? जो जब भी घर में गूंजती थी तो पूरा घर मसालों की खुश्बू से महक उठता था। एक लोहे की ओखली में साबूत हल्दी या सूखी लाल मिर्च या खड़ी धनिया के दाने जब कूटे जाते थे तो महक दूर तक महसूस होती थी। इमाम दस्ते में मसाले कूटने की ये परंपरा, पिसे हुए मसालों के आने से अब तकरीबन खत्म हो गयी है। इमाम दस्ते का वज़न काफी होता था लिहाज़ा उसे उठाकर रखना भी एक काम था। याद कीजिए, लोहे का वो हिस्सा जिसे हाथ में लेकर ओखली की तली पर पीटते थे, कभी-कबार ओखली के किनारे टकरा जाता था तो कैसी टन्न की आवाज़ होती थी। वो आवाज़ आज भी ज़हन की परतों में दबी लगती है लेकिन इमाम दस्ते अब सिर्फ वैध-हकीमों के पास ही दिखाई देते हैं। हालांकि पिछले कुछ सालों में छोटी-छोटी ओखलियां बाज़ार में फिर से बिकने लगी हैं जिनमें चाय के लिए अदरक कूटी जाती है। ट्विटर पर सरौते से शुरु हुआ ज़िक्र इमाम दस्ते तक पहुंचा तो कई लोगों को बचपन से जुड़ी इमाम दस्ते की यादें ताज़ा हो गयीं।
समीर कपूर ने लिखा, "कल ही बहुत ज़माने के बाद मुंह से इमाम-दस्ता निकला। कोई गिलोय की टहनी दे गया। बोला कि पीस लीजियेगा तो मुंह से एकदम निकल पड़ा 'इमामदस्ता' में कूचना आसान रहेगा। इमाम दस्ते से जुड़ी यादें अचानक ज़हन में ताज़ा हो गयीं"
एक दूसरे ट्वीटर यूज़र सुदर्शन पाटीदार ने बताया कि मध्य प्रदेश में इसे हिमालदस्ता कहते थे। देश के कुछ हिस्सो में इसे खल बट्टा भी कहते हैं। भोजपुरी में इसे ओखर कहते हैं। और संदीप बाजपेयी ने कहा "हमारे बुंदलेखंड में उसे खल्लर मूसर कहते थे।" एक अन्य यूज़र अंकित ने लिखा, "हमारी मैथिली में इमाम दस्ते को निश्ता-मुंगड़ी कहते थे लेकिन अब इसे सुने हुए भी ज़माने हो गए"
8. मोगरी
वॉशिंग मशीन का चलन भारत में बहुत पुराना नहीं है। याद कीजिए गीले आगंन का वो दृश्य जब बालटियों के बीच बैठे हुए पिताजा कपड़ों का ढेर लिए बैठे होते थे। पतलून पिंडलियों तक मोड़े हुए, हाथों में साबुन का झाग और एक हाथ में लकड़ी का एक टुकड़ा लिए, कपड़ों पर धपा-धप पीटते हुए। लक़ड़ी का टुकड़ा यानि मोगरी की हर चोट से कपड़ा झाग छोड़ता था। मोगरी अब कम ही दिखाई देती है। अल्साई हुई दोपहर में जब बाकी लोग सो रहे होते थे तो उसी लकड़ी के टुकड़े को बैट बनाकर आपने भाई या बहन के साथ आंगन में क्रिकेट खेला होगा। याद आया? पिछले कुछ सालों तक भी तमाम घरों के गुसलखानों में मोगरी एक दीवार से तिरछी खड़ी दिखाई देती थी। लेकिन अब धीरे-धीरे वॉशिंग मशीन्स की आमद से ये कम दिखाई देती है। तमाम ट्वीटर यूज़र्स ने मोगरी को याद करते हुए मज़ेदार प्रतिक्रियाएं दीं।
एक अन्य ट्वीटर यूज़र ने लिखा कि औरतों में एक शरारत वाली कहावत थी – "जाड़ा लगलो पाड़ा लगलो ओढ़ गुदड़ी, बुढ़िया के दामाद ऐलो मार मूँगड़ी!
हरियाणा के एक यूज़र ने बताया कि मोगरी को हरयाणवी में थपकी कहते थे। और भारत के कई राज्यों में थापी ही कहा जाता था लेकिन अब थापी कम ही दिखाई देती है।
9. अंतर्देशीय ख़त
पिक्चर सोर्स - ट्विटर
आज मोबाइल कान से लगाकर पूछते हैं "कौन?" लेकिन एक वक्त था जब डाकिये की साइकल की घंटी की आवाज़ भी पहचानते थे। खाकी वर्दी में कंधे से लटका भूरा झोला उतारते हुए जब वो नीला अंतर्देशीय ख़त पकड़ाते थे तो लगता था जैसे ख़ज़ाना हाथ लग गया हो। नीले लिफ़ाफे वाले ख़त को धीरे-धीरे सावाधानी से फाड़ना और फिर अंदर से निकले कागज़ को नाक के पास लाकर सूंघना। वो ख़त जितनी बार पढ़ो भेजने वाले की आवाज़ में ही ज़हन में गूंजता था। कभी ख़ुशी, कभी ग़म, कभी आंसू, कभी मुस्कुराहट का ज़रिया बनने वाले वो अंतर्देशीय ख़त अब दिखाई नहीं देते। आज वीडियो कॉलिंग और फ्री-इंटरनेट कॉल के दौर में रिश्तों में वो दूरियां नहीं बची हैं, शायद इसीलिए रिश्तों में नज़दीकियां भी महसूस नहीं होतीं। किसी पुरानी अलमारी की भूली हुई दराज़ से कोई अंतर्देशीय ख़त फर्श पर लुढ़क आता है तो लगता है किसी गुज़रा हुआ ज़माना लिफ़ाफे में लिपटा पड़ा है। अंतर्देशीय ख़त की इन्हीं यादों को कई ट्वीटर यूज़र्स ने इसी थ्रेड में साझा किया।
10. ईख
तस्वीर सोर्स - इंटरनेट
खेतों में घुसकर, सबकी नज़र बचाकर ईख खाई है कभी? नहीं खाई तो आप नहीं जान पाएंगे कि खेतों में घुसकर ताज़ी ईख का ज़ायका क्या होता है। और अगर खाई तो ईख के ज़िक्र के साथ ही बचपन का वो सुहाना दौर आपको याद आया होगा। 'ईख' को भारत के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। जैसे मिहिर नाम के यूज़र ने लिखा कि पहले, बिहार के दरभंगा और मधुबनी इलाके में ईख को 'कुसियार' कहते थे। इसके अलावा अमरूद को 'लताम' अनार को 'दाड़िम' और मूँग को 'खेरहि' कहा जाता था। लेकिन अब वक्त के साथ-साथ भाषाओं की ये विविधता खत्म हो गयी है। स्थानीय शब्दों की जगह वही शब्द प्रचलन में आ गए हैं जो आम तौर पर बोले जाते हैं। मसलन, देवेंद्र नगर कहते हैं, "किसी ज़माने में हमारे हड़ौती में ईख को सांठा बोलते थे। बचपन में हम इसी नाम से ईख को जानते थे लेकिन शहरों से जुड़ने के बाद भाषाई आवगमन हुआ और अब हड़ौती शब्द सुने हुए ज़माना हो गया। आज अचानक याद आया।"
राजस्थान के मानव ने ट्वीट किया, "हमारे राज्सथान में ईख को गांडा कहा जाता था। गांडा का खेत, गांडा बो रहे हैं, गांडा खाओगे... ये जुमले प्रचलित थे लेकिन अब कोई गांडा नहीं बोलता। या तो गन्ना कहते हैं या ईख"
11. सिन्होरा
पिक्टर सोर्स - ट्विटर
मां का वो श्रृंगारदान तो याद होगा आपको भी, वही जिसके बड़े से आइने पर मां लाल बिंदी चिपका देती थी। उस आइने पर उखड़ी हुई बिंदियों का गोंद अपनी नन्हीं उंगलियों से खूब छुड़ाया होगा। हैना? आइने से लगी हुई मेज़ पर रखा मां के श्रृंगार का सामान पूरा का पूरा याद होगा। और उस सामान में सबसे खास होती थी एक छोटी सी रंगीन डिबिया। बाकी सामानों से सबसे अलग और सबसे खास। मां भी उस डिबिया को सबसे ज़्यादा संभाल कर रखती थीं। हम सबकी स्मृतियों में वो रंगीन सजी हुई डिबिया आज भी ज़िंदा है जिसे खोल कर मां चुटकी से सिंदूर निकालती थीं और बहुत बारीकी से मांग में भर लेती थीं। सिन्होरा – यही नाम था उसका। एक यूज़र ने सिन्होरा का ज़िक्र किया तो दर्जनों लोगों की यादों की उजली खिड़की खुल गयी। बचपन में वो सजावटी डिबिया सबसे ज़्यादा आकर्षित करती थी।
महेश शर्मा ने सिन्होरा का ज़िक्र करते हुए लिखा, "ये अलमारी की सबसे खास और सुंदर डिबिया होती थी। मां बहुत सलीके से इसे रखती थी और हम बच्चे को उसकी सजावट बड़ी प्यारी लगती थी। शादियों में अक्सर ये दुल्हन को तोहफे के तौर पर दी जाती थी और सुहाग की निशानी मानकर इसे बहुत संभालकर रखा जाता था"
12. भूले-बिसरे शब्द
यादों में सिर्फ सामान ही नहीं भाषा के वो जुमले भी हैं जो नए दौर की शार्टकट वाली ज़बान में अब सुनाई नहीं देते। वो शब्द जो बड़े होते हुए हम अपने बुज़ुर्गों से सुनते थे और अब उनके बाद वो शब्द कभी सुनाई नहीं दिए। जैसे अतिया ज़ैदी ने लिखा, "मेरे दादा सब्ज़ी को हमेशा तरकारी करते थे। उनके बाद हमारी ज़बान में तरकारी कभी नहीं आया, सब्ज़ी ही चला। इस लफ्ज़ से मेरे दादा की यादें जुड़ी हुई हैं। कोई तरकारी कहता है तो दादा याद आ जाते हैं।" अतिया ज़ैदी ने ही ये भी लिखा कि जब वो बचपन में, गर्मी की छुट्टियों में दादी के यहां बहराइच जाती थीं तो वहां एक चूडी बेचने वाली आती थी। जो चूड़ियों की टोकरी सर पर रखकर आती थी। वो लिखती हैं, "मेरी दादी हम सबको चूड़िया दिलाती थीं और कहती थीं और सबको चूड़ी के दाम पूछने से मना कर देती थीं, कहती थी "जो कहेगी दिया जाएगा... सुहाग की निशानी का दाम नहीं पूछते"
एक और ट्वीटर यूज़र ने लिखा "मेरे नानाजी कंघे को हमेशा चिरूनी कहते थे और माचिस को दियासलाई। उनके गुज़रने के बाद ना कभी चिरूनी सुनाई दिया न दिया सलाई"
इसके अलावा डॉ ढल सिंह चंदेल नाम के यूज़र ने एक पीतल की लंबी सी सुरमेदानी नुमा चीज़ की तस्वीर लगाते हुए कहा कि ये 'कजरौटा' है। दशकों पहले नवजात शिशु के लिए इसमें काजल रखा जाता था। अब ये किसी घर में नहीं दिखता लेकिन किसी की काली चीज़ की बयान करने के लिए अब भी लोग कह देते हैं, "रात बड़ी कजरौटा हो रही है।" मुहावरों में सिमट चुका ये शब्द अब बोलचाल में किसी की ज़बान में नहीं आता।
सामाजिक कार्यकर्ता और स्वराज पार्टी के संस्थापक योगेद्र यादव ने भी इस ट्वीट में एक अन्य यूज़र को जवाब देते हुए कहा
प्रभाकर मिश्रा ने शब्द 'पाहुन' का ज़िक्र करते हुए लिखा "हमारी दादी मेहमानों के लिए पाहुन शब्द इस्तेमाल करती थीं।"
शिल्पी दुूबे पाठक ने लिखा -
ट्वीटर पर हर-रोज़ चलने वाले शोर-शराबे के बीच गुज़रे वक्त की यादों को दोहराने की ये कोशिश शानदार रही।'सरौते' के एक ट्वीट से शुरु हुआ यादों का कारवां कहां से कहां तक पहुंच गया। ट्वीट्स का ये सिलसिला अब भी जारी है। आप भी लिंक पर क्लिक कीजिए और ट्वीट में अपने गुज़रे हुए दौर की भूली बिसरी चीज़ या यादों को दर्ज कीजिए।
अपनी भाषा में ऐसे शब्द कहिए जो भूले हुए हों, बोलचाल में कम प्रयोग होते हों। हिंदी के अलावा किसी भाषा के हों तो अर्थ बताइएगा, और उस से जुड़ी कोई याद या बात। मेरी ओर से शब्द है — "सरौता"।मेरी नानी सरौता ख़ूब इस्तेमाल करती थीं।"जाओ पान वाले डिब्बे से सरौता ले आओ!" #SlowExperiences pic.twitter.com/8AWuDkK8yQ
— Neelesh Misra (@neeleshmisra) April 27, 2020
1. सरौता
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पान रखने का वो पेटी नुमा बक्सा याद है आपको? कमरे के किनारे रखे एक स्टूल पर सजा होता था। जिसे एक रंगीन कपड़े से ढक कर रख जाता था। दादी-नानी या घर के किसी बुज़ुर्ग का वो पानदान, जिसमें पीतल की छोटी-छोटी डिब्बियां होती थीं। जिनमें कत्था, चूना, सौंफ, डली रखी जाती थी और उसमें होता था - छोटा सा सरौता। डली काटने का ये छोटा सा औज़ार जो घर के बुज़ुर्गों के हाथ में दिखता था। बचपन में बुज़ुर्गों की दी गयी नसीहतें, प्यार, फिक्र या थोड़ी सी डांट याद करेंगे तो उनमें सरौता भी याद आएगा। डली काटते हुए की गयी वो तमाम बातें जो अब सिर्फ यादों में दफ्न हैं अक्सर याद तो आती होंगी। ट्वीट के जवाब में सरौते का ज़िक्र करते हुए सुधा नाम की एक ट्वीटर यूज़र ने लिखा –
"हमारे यहां इसे खिलबट्टी कहते थे। पान को रखने की छोटी सी पेटी नुमा बॉक्स। दादाजी को सुबह-सुबह दादी 20 पान बनाकर खिलबट्टी में दे देती थी और कहती थी इतना ही चबाइयेगा दिन भर। इससे ज्यादा लगाकर नहीं दूंगी और दादा जी 2 घंटे में खाली कर देते थे। सरौता देखकर खिलबट्टी ही याद आई और सुपारी का कतरा सरौता से बनता था।"
तमाम लोगों ने कहा कि सरौते के ज़िक्र के साथ ही वो गुज़रे हुए ज़माने में चले गए। एक दूसरे यूज़र ने लिखा, "बचपन में गर्मी की छुट्टी में दादी के गांव में मेरा काम था कि दोपहर के खाने के बाद दादी के पान का सामान लाकर देना। और मुझे बखशीश में एक रुपया मिलता था। जो मैं सीधे अपनी गुल्लक में जमा कर लेता था। बचपन की उस कमाई के आगे आज का बैंक बैंलस भी कुछ नहीं है"
सरौता की ज़िक्र करते हुए शादाब ने ट्वीट किया, "दादी के जाने के बाद सरौता भी जाने कहां गुम हो गया। कसैली के लिए अम्मा इस्तेमाल किया करती थीं और ईद के दौरान सिवैंया बनाने के लिए उसी सरौते से छुआरा, नारियल और बादाम काटा जाता था। अब तो कटा हुआ मेवा बाज़ार से मिल जाता है, लेकिन वो बात कहां आती है"
ये सरौते मेरी दादीजी की निशानी हैं। जब भी इन्हें देखता हूँ, अपना बचपन आँखों के सामने एक चलचित्र की तरह स्वतः ही चलने लगता है। गंगा का घाट, बूंदी के लड्डू, दादा जी को मुझे डाँटने की वजह से पड़ी फटकार, और रात को दादीजी की गोंद में सिर रखकर रामायण के क़िस्से। सब अभी भी ताज़ा हैं। pic.twitter.com/TivVXfV80P
— Shack and Tea👨🏽🔬 (@ShackAndTea_PhD) April 27, 2020
This pic.twitter.com/wxb1Yh9xjK
— Shivam Singh (@shivam2witter) April 27, 2020
इसे गुजराती में 'सुडी' बोलते हे और एक कहावत हे "सुडी के बीच में सुपारी" मतलब बिना कोई फायदे वाली परिस्थति में फंस जाना
"सुडी वच्चे सोपारी" एक बहुत ही पुराना (१८८०) पारसी नाटक हे ! https://t.co/jwUcIK0dty
— Movie Mango ® (@Go_Movie_Mango) April 27, 2020
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हिंदुस्तानी तहज़ीब में चक्की हर घर-आंगन की सबसे ज़रूरी चीज़ों में से एक होती थी। दो पत्थरों के एक-दूसरे पर घिसने की वो आवाज़ याद कीजिए। घर्र-घर्र की आवाज़ जिसके साथ-साथ आंगन में चक्की चलाती महिलाओं की बातचीत भी होती रहती थी। नए दौर में पैकट सील आटा रसोई में रखे बड़े बर्तनों में पलटते वक्त वो आवाज़ याद आती है आपको? कई ट्वीटर यूज़र्स ने बताया कि उनके बचपन के दिनों में चक्की उनके घर की सबसे अहम सदस्य होती थी। और कभी गलती से उस पर पैर लग जाए तो छू कर हाथ माथे से लगाने को कहा जाता था। बेशक, आज चक्की घरों में नहीं होती और होती भी है तो आंगन के किसी किनारे, या बेकार हो चुके सामान के साथ रखी हुई गुज़रे वक्त को याद करती है। चक्की का ज़िक्र करने वाले महाराष्ट्र के अमोल काले ने लिखा, "मराठी मे इसे 'जातं' कहते है। आज भी महाराष्ट्र के किसी भी गांव मे जाईये तो लगभग सभी घरों में मिलेगी लेकिन इसका इस्तेमाल बहुत कम हो गया है।"
परवेज़ आलम ने चक्की की यादें ताज़ा करते हुए लिखा "उन दिनों चक्की चलाना हम बच्चों के लिए किसी खेल जैसा होता था। लेकिन हमें चक्की चलाने से मना कर दिया जाता था। हालांकि दोपहर के वक्त जब अम्मा सो जाती थीं तो हम बच्चे बिना पाट में अनाज डाले उसे घुमाया करते थे।"
मिहिर ने लिखा, "गुजरात में चक्की को 'सूड़ी' कहते हैं। इस तस्वीर को देखकर नाना जी से जुड़ी तमाम यादें ज़हन में ताज़ा हो गयीं।" जबकि शिव नाम के यूज़र ने बताया कि उन्होंने भी चक्की खूम घुमाई है और इसे मगही में जांता, अवधी में दरेतिया कहते थे। लेकिन अब ये शब्द सुनने को भी नहीं मिलते।
Still remember my grandmother using it to make coriander chutney...and the fragrance 😍
— Avish (@avanand2908) April 27, 2020
3. ढेबरी
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"ओह्हो लाइट फिर चली गयी। ढेबरी जालओ.. कोई" ये जुमला आखिरी बार आपने कब सुना था, याद कीजिए। शायद बचपन के उन दिनों में जब लाइट जाने पर रौशनी करने का पूरा दारोमदार, अलमारी या खिड़की पर रखी ढेबरी या कुप्पी का होता था। पुरानी बोतल में तेल भरकर उसके ढक्कन में छेद करके बत्ती डालकर बनाई जाती थी ढेबरी। और ये काम घर का कोई ज़िम्मेदार शख्स करता था, क्योंकि कितनी बत्ती ढक्कन से ऊपर निकालनी है ये बारीक काम माना जाता था। एक ढबरी घर की बाहरी खिड़की पर रखी जाती थी ताकि दरवाज़े पर रौशनी रहे। इसी ढेबरी की रौशनी में कितने इम्तेहानों की पढ़ाई हुई और कितने ख़त लिखे गए... सब याद आया उन ट्विटर यूज़र्स को जिन्होंने इसका ज़िक्र किया।
उत्कर्ष श्रीवास्तव ने लिखा, "उन दिनों बिजली बहुत कटती थी। लैम्प की कमी थी। ऐसे में हमारे हिस्से में तो दादी की दवा की खाली शीशी से बनाई गयी ढबरी ही आती थी। इनवर्टर का चलन तो आज भी आम नहीं हुआ लेकिन ढेबरी अब घर के किसी ताक पर दिखाई नहीं देती। वक्त ने इसे चलन से बाहर कर दिया लेकिन यादों में ढेबरी हमेशा ज़िंदा रहेगी।"
एक दूसरे ट्वीटर यूज़र प्रत्युष ने लिखा, "हमारे गांव में कुम्हार ढेबरी बना कर बेचा करते थे। हम लोग अमूमन दवा की पुरानी शीशियों से ही बनाते थे। दीवाली में भी इनका ख़ूब इस्तेमाल होता था। उस दौर में चायनीज़ झालर की जगमग नहीं थी, एक किनारे चुपचाप हल्की रौशनी में ढेबरी जलती रहती थी। आज ज़मानों बाद ढेबरी की याद आई"
गिरधारी लाल ने अपने बचपन याद करते हुए ट्वीट किया, "और हम ढेबरी, पालिश की खाली डब्बी या साइकिल ट्यूब की वाल्व से बनाते थे। इसमें रोशनी कम या ज्यादा करने की सुविधा रहती थी। खलिहान या बाहर ले जाने के लिए बत्ती एक डब्बे के अंदर फिट कर देते थे जिससे हवा से लौ बुझती नहीं थी। आज इसे याद करके लगा बचपन कहां छोड़ हम"
ढेबरी
बिजली बहुत कटती थी तब। पर्याप्त लैम्प न होने के लग्ज़री से वंचित रहते थे तो ढेबरी जलाते थे। इन्वर्टर का चलन अभी आम नही हुआ था। लैम्प होते हुए भी आम्मा ढेबरी ही जलाती थी।@neeleshmisra
— Utkarsh Srivastav (@dipulala) April 27, 2020
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सौरभ तिवारी ने लिखा – "नीलेश भैया दादा जी की 24 इंच वाली ऐटलस साईकल याद आ गयी जिसे मैंने कैंची, डंडा और फिर गद्दी - तीन चरण में सम्पूर्ण रूप से चलाना सीखा था। पहली बार कैंची चलाना सीखने पर इतनी खुशी हो रही थी जैसे कोई हवाई जहाज़ चलाना सीख लिया हो। वो दिन ज़िन्दगी की सबसे अच्छे दिनों में से एक है।"
इसके जवाब में विवेकानंद पांडे ने लिखा, "सौरभ जी, तब तो सम्पूर्ण नहीं चलाए आप। सम्पूर्ण होता है- कैंची, डंडा, गद्दी, और 'कैरियर' जिसे सही में कैरियल कहा जाता था। चौथा चरण सबसे मुश्किल था। गद्दी के पीछे लगे कैरियर पर बैठ कर चला लिए तो फिर समझिए सिद्धहस्त हो गए।"
लेकिन बात यहीं नहीं रुकी, विवेकानंद पांडे के ट्वीट का जवाब देते हुए नितिन तिवारी ने कहा, "तब तो पूर्ण आप भी नही चला पाए पांडे जी। क्योंकि एक चरण और होता है, जब आप डंडे में किसी को बिठा लें और वो हैंडल संभाले आप पेंडल लगाएं। तब कहलाते थे उस्ताद।"
5. झाड़ू
बढ़नी= झाड़ू
बरहँचा= झाड़ से बनी जुगाड़ झाड़ू
गाँव से जुड़े लोग शायद इन शब्दों से वाकिफ़ होंगे। pic.twitter.com/q2x2ykJ8M2
— Dharmendra Srivastava (@Rajdharmendra01) April 28, 2020
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आंगन से उठती वो सौंधी-सौंधी धनिया की खुश्बू आपको भी याद होगी। सिलबट्टे की घर्र-घर्र की आवाज़ के साथ आगे-पीछे होती हुई मां या दादी, जो बीच-बीच में हथेली तिरछी करके सिल पर फैली हरी चटनी समेट लेती थीं, याद आया? तमाम लोगों ने सिलबट्टे का ज़िक्र करते हुए कहा कि ये आज भी उनके घरों में मौजूद तो है लेकिन इस्तेमाल ना के बराबर होता है।
अविश ने सिलबट्टे को याद करते हुए लिखा, "धनिया की चटनी बड़ी शानदार होती थी। मेरी दादी पीसती थीं उसकी खुश्बू आज भी याद है। आज के ग्राइंडर में पिसी चटनी में वो बात कहां"
तमाम लोगों ने बताया कि सिलबट्टा हिंदुस्तान की अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है। अनिकेत जोशी ने बताया कि मराठी में सिलबट्टे को पाटन कहते हैं। जबकि अंकित ने बताया कि मैथिली में इसे सिलौट-लौढ़ा कहते थे।
Sir, Silvat lodha, Mere ghar Bihar me isi pe chatni masala Pisa jaata tha..aur aaj bhi kai gharo me iska istemaal hota hai. pic.twitter.com/QImi10sHk2
— Nitesh Panday (@NiteshPunyark) April 27, 2020
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"धम्म, धम्म, धम्म" की वो आवाज़ याद है? जो जब भी घर में गूंजती थी तो पूरा घर मसालों की खुश्बू से महक उठता था। एक लोहे की ओखली में साबूत हल्दी या सूखी लाल मिर्च या खड़ी धनिया के दाने जब कूटे जाते थे तो महक दूर तक महसूस होती थी। इमाम दस्ते में मसाले कूटने की ये परंपरा, पिसे हुए मसालों के आने से अब तकरीबन खत्म हो गयी है। इमाम दस्ते का वज़न काफी होता था लिहाज़ा उसे उठाकर रखना भी एक काम था। याद कीजिए, लोहे का वो हिस्सा जिसे हाथ में लेकर ओखली की तली पर पीटते थे, कभी-कबार ओखली के किनारे टकरा जाता था तो कैसी टन्न की आवाज़ होती थी। वो आवाज़ आज भी ज़हन की परतों में दबी लगती है लेकिन इमाम दस्ते अब सिर्फ वैध-हकीमों के पास ही दिखाई देते हैं। हालांकि पिछले कुछ सालों में छोटी-छोटी ओखलियां बाज़ार में फिर से बिकने लगी हैं जिनमें चाय के लिए अदरक कूटी जाती है। ट्विटर पर सरौते से शुरु हुआ ज़िक्र इमाम दस्ते तक पहुंचा तो कई लोगों को बचपन से जुड़ी इमाम दस्ते की यादें ताज़ा हो गयीं।
समीर कपूर ने लिखा, "कल ही बहुत ज़माने के बाद मुंह से इमाम-दस्ता निकला। कोई गिलोय की टहनी दे गया। बोला कि पीस लीजियेगा तो मुंह से एकदम निकल पड़ा 'इमामदस्ता' में कूचना आसान रहेगा। इमाम दस्ते से जुड़ी यादें अचानक ज़हन में ताज़ा हो गयीं"
एक दूसरे ट्वीटर यूज़र सुदर्शन पाटीदार ने बताया कि मध्य प्रदेश में इसे हिमालदस्ता कहते थे। देश के कुछ हिस्सो में इसे खल बट्टा भी कहते हैं। भोजपुरी में इसे ओखर कहते हैं। और संदीप बाजपेयी ने कहा "हमारे बुंदलेखंड में उसे खल्लर मूसर कहते थे।" एक अन्य यूज़र अंकित ने लिखा, "हमारी मैथिली में इमाम दस्ते को निश्ता-मुंगड़ी कहते थे लेकिन अब इसे सुने हुए भी ज़माने हो गए"
Bihar mein Khal bolte hai hum ise
— Arpit Srivastava (@arpitmiku) April 27, 2020
8. मोगरी
वॉशिंग मशीन का चलन भारत में बहुत पुराना नहीं है। याद कीजिए गीले आगंन का वो दृश्य जब बालटियों के बीच बैठे हुए पिताजा कपड़ों का ढेर लिए बैठे होते थे। पतलून पिंडलियों तक मोड़े हुए, हाथों में साबुन का झाग और एक हाथ में लकड़ी का एक टुकड़ा लिए, कपड़ों पर धपा-धप पीटते हुए। लक़ड़ी का टुकड़ा यानि मोगरी की हर चोट से कपड़ा झाग छोड़ता था। मोगरी अब कम ही दिखाई देती है। अल्साई हुई दोपहर में जब बाकी लोग सो रहे होते थे तो उसी लकड़ी के टुकड़े को बैट बनाकर आपने भाई या बहन के साथ आंगन में क्रिकेट खेला होगा। याद आया? पिछले कुछ सालों तक भी तमाम घरों के गुसलखानों में मोगरी एक दीवार से तिरछी खड़ी दिखाई देती थी। लेकिन अब धीरे-धीरे वॉशिंग मशीन्स की आमद से ये कम दिखाई देती है। तमाम ट्वीटर यूज़र्स ने मोगरी को याद करते हुए मज़ेदार प्रतिक्रियाएं दीं।
मेरी दादी मुझे मोग्री से बहुत डराती थी #मोग्री यानी कपड़े धोने वली लकड़ी pic.twitter.com/9Zs4uBC5zn
— Pankaj Khandelwal (@pankaj_jo) April 27, 2020
हरियाणा के एक यूज़र ने बताया कि मोगरी को हरयाणवी में थपकी कहते थे। और भारत के कई राज्यों में थापी ही कहा जाता था लेकिन अब थापी कम ही दिखाई देती है।
9. अंतर्देशीय ख़त
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आज मोबाइल कान से लगाकर पूछते हैं "कौन?" लेकिन एक वक्त था जब डाकिये की साइकल की घंटी की आवाज़ भी पहचानते थे। खाकी वर्दी में कंधे से लटका भूरा झोला उतारते हुए जब वो नीला अंतर्देशीय ख़त पकड़ाते थे तो लगता था जैसे ख़ज़ाना हाथ लग गया हो। नीले लिफ़ाफे वाले ख़त को धीरे-धीरे सावाधानी से फाड़ना और फिर अंदर से निकले कागज़ को नाक के पास लाकर सूंघना। वो ख़त जितनी बार पढ़ो भेजने वाले की आवाज़ में ही ज़हन में गूंजता था। कभी ख़ुशी, कभी ग़म, कभी आंसू, कभी मुस्कुराहट का ज़रिया बनने वाले वो अंतर्देशीय ख़त अब दिखाई नहीं देते। आज वीडियो कॉलिंग और फ्री-इंटरनेट कॉल के दौर में रिश्तों में वो दूरियां नहीं बची हैं, शायद इसीलिए रिश्तों में नज़दीकियां भी महसूस नहीं होतीं। किसी पुरानी अलमारी की भूली हुई दराज़ से कोई अंतर्देशीय ख़त फर्श पर लुढ़क आता है तो लगता है किसी गुज़रा हुआ ज़माना लिफ़ाफे में लिपटा पड़ा है। अंतर्देशीय ख़त की इन्हीं यादों को कई ट्वीटर यूज़र्स ने इसी थ्रेड में साझा किया।
अंतर्देशीय पत्र , अब हमारी यादों में pic.twitter.com/CLL5DNcuQT
— Abhishek singh (@Abhishek_bhp) April 27, 2020
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खेतों में घुसकर, सबकी नज़र बचाकर ईख खाई है कभी? नहीं खाई तो आप नहीं जान पाएंगे कि खेतों में घुसकर ताज़ी ईख का ज़ायका क्या होता है। और अगर खाई तो ईख के ज़िक्र के साथ ही बचपन का वो सुहाना दौर आपको याद आया होगा। 'ईख' को भारत के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। जैसे मिहिर नाम के यूज़र ने लिखा कि पहले, बिहार के दरभंगा और मधुबनी इलाके में ईख को 'कुसियार' कहते थे। इसके अलावा अमरूद को 'लताम' अनार को 'दाड़िम' और मूँग को 'खेरहि' कहा जाता था। लेकिन अब वक्त के साथ-साथ भाषाओं की ये विविधता खत्म हो गयी है। स्थानीय शब्दों की जगह वही शब्द प्रचलन में आ गए हैं जो आम तौर पर बोले जाते हैं। मसलन, देवेंद्र नगर कहते हैं, "किसी ज़माने में हमारे हड़ौती में ईख को सांठा बोलते थे। बचपन में हम इसी नाम से ईख को जानते थे लेकिन शहरों से जुड़ने के बाद भाषाई आवगमन हुआ और अब हड़ौती शब्द सुने हुए ज़माना हो गया। आज अचानक याद आया।"
राजस्थान के मानव ने ट्वीट किया, "हमारे राज्सथान में ईख को गांडा कहा जाता था। गांडा का खेत, गांडा बो रहे हैं, गांडा खाओगे... ये जुमले प्रचलित थे लेकिन अब कोई गांडा नहीं बोलता। या तो गन्ना कहते हैं या ईख"
'कुसियार'. हमारे यहाँ दरभंगा-मधुबन्नी में ईख को कुसियार कहते है। अमरूद को 'लताम' औऱ अनार को 'दाड़िम' औऱ मूँग को 'खेरहि'। pic.twitter.com/2Pkq225kmJ
— Mihir (@poddarmihir) April 27, 2020
11. सिन्होरा
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मां का वो श्रृंगारदान तो याद होगा आपको भी, वही जिसके बड़े से आइने पर मां लाल बिंदी चिपका देती थी। उस आइने पर उखड़ी हुई बिंदियों का गोंद अपनी नन्हीं उंगलियों से खूब छुड़ाया होगा। हैना? आइने से लगी हुई मेज़ पर रखा मां के श्रृंगार का सामान पूरा का पूरा याद होगा। और उस सामान में सबसे खास होती थी एक छोटी सी रंगीन डिबिया। बाकी सामानों से सबसे अलग और सबसे खास। मां भी उस डिबिया को सबसे ज़्यादा संभाल कर रखती थीं। हम सबकी स्मृतियों में वो रंगीन सजी हुई डिबिया आज भी ज़िंदा है जिसे खोल कर मां चुटकी से सिंदूर निकालती थीं और बहुत बारीकी से मांग में भर लेती थीं। सिन्होरा – यही नाम था उसका। एक यूज़र ने सिन्होरा का ज़िक्र किया तो दर्जनों लोगों की यादों की उजली खिड़की खुल गयी। बचपन में वो सजावटी डिबिया सबसे ज़्यादा आकर्षित करती थी।
महेश शर्मा ने सिन्होरा का ज़िक्र करते हुए लिखा, "ये अलमारी की सबसे खास और सुंदर डिबिया होती थी। मां बहुत सलीके से इसे रखती थी और हम बच्चे को उसकी सजावट बड़ी प्यारी लगती थी। शादियों में अक्सर ये दुल्हन को तोहफे के तौर पर दी जाती थी और सुहाग की निशानी मानकर इसे बहुत संभालकर रखा जाता था"
Har saal teej ke tyohar me hum iske sath puja karte hain aur sindoor lagate hain.
— Annu Sharma (@sharmaannu27) April 28, 2020
यादों में सिर्फ सामान ही नहीं भाषा के वो जुमले भी हैं जो नए दौर की शार्टकट वाली ज़बान में अब सुनाई नहीं देते। वो शब्द जो बड़े होते हुए हम अपने बुज़ुर्गों से सुनते थे और अब उनके बाद वो शब्द कभी सुनाई नहीं दिए। जैसे अतिया ज़ैदी ने लिखा, "मेरे दादा सब्ज़ी को हमेशा तरकारी करते थे। उनके बाद हमारी ज़बान में तरकारी कभी नहीं आया, सब्ज़ी ही चला। इस लफ्ज़ से मेरे दादा की यादें जुड़ी हुई हैं। कोई तरकारी कहता है तो दादा याद आ जाते हैं।" अतिया ज़ैदी ने ही ये भी लिखा कि जब वो बचपन में, गर्मी की छुट्टियों में दादी के यहां बहराइच जाती थीं तो वहां एक चूडी बेचने वाली आती थी। जो चूड़ियों की टोकरी सर पर रखकर आती थी। वो लिखती हैं, "मेरी दादी हम सबको चूड़िया दिलाती थीं और कहती थीं और सबको चूड़ी के दाम पूछने से मना कर देती थीं, कहती थी "जो कहेगी दिया जाएगा... सुहाग की निशानी का दाम नहीं पूछते"
कंपट/ कमपट pic.twitter.com/46FdJGk5lk
— Mohit Shankar Tewari (@shankarmohit23) April 28, 2020
Mere dada ji cup ko कप बशी kehte the.
Chai peene ke baad awaz lagate the
"Minni ye कप बशी le jaao"
Aajkal unki bahut yaad aati hai :)#SlowExperience pic.twitter.com/hwbgdGl5wk
— Ankita (@Ankitaa03) April 27, 2020
सामाजिक कार्यकर्ता और स्वराज पार्टी के संस्थापक योगेद्र यादव ने भी इस ट्वीट में एक अन्य यूज़र को जवाब देते हुए कहा
आप मेरे ही इलाके से लगते हैं।
जब मूंज की रस्सी को जब चारपाई बुनने में इस्तेमाल करते थे तो वह बान हो जाता था (ताना बाना वाला बान)
मूंज के बान वाली खाट चुभती थी, इसके बाद कपड़े की पट्टी वाले निवार का प्रचलन हुआ। निवार का पलंग कम कष्टप्रद था, लेकिन उसमें जल्दी से झोल पड़ जाता था।
— Yogendra Yadav (@_YogendraYadav) April 28, 2020
Metal utensil
Pot
गगरी कलश#Antonyfolkloremuseum #kochi #kerala via pinterest
Such magnificent work of metal craft were of daily use but also a skill or Art form, now extinct. Many craftsman lost job. Now in age of #NoPlastic hope such crafts r revived pic.twitter.com/lnpKQntP1X
— g katyan misra (@kamlesm) December 15, 2019
मुझे हँसुआ याद आता है । हम अब तरह तरह के chopper, peeler और cutter का इस्तेमाल करते हैं ... बचपन में दादी जिनको हम माइयाँ बुलाते थे, इन सब का काम अकेले हँसुआ से ही कर लेती थी और वो भी सपेरसोनिक speed से #SlowExperiences pic.twitter.com/SpLhBYwUOX
— Shilpi Dubey Pathak (@ShilpiDPathak) April 27, 2020