"निराला की माँ स्टेशन पर भीख नहीं मागेगी, आज के बाद स्टेशन पर भीख मागंते दिखी तो गला दबा दूंगा"
Ashwani Kumar Dwivedi 21 Feb 2020 12:21 PM GMT
"अभी न होगा मेरा अंत, अभी अभी ही तो, आया है
मेरे वन में मृदुल वसंत, अभी न होगा, मेरा अंत"।
हिंदी में महाप्राण की उपाधि प्राप्त महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला" की यह पंक्तियां उनके जीवन के प्रति उनके नजरिए को दिखाती हैं। जरा सोचिये, जिस बालक की माता तीन वर्ष की अवस्था में ही उससे छिन जायें, 21 साल की उम्र में पिता का साथ छूट जाए और पूरे परिवार की जिम्मेदारी उठानी हो, उस परिस्थितियों में साहित्य सृजन कितना कठिन होता होगा। विरले लोग ही ऐसे कर पाते हैं, उनमें से एक हैं सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'।
पिता की मृत्यु के बाद 21 साल के युवा सूर्यकान्त त्रिपाठी के लिए जीवन सहज नहीं था। पिता के न रहने के बाद संयुक्त परिवार की जिम्मेदारी को निभाने जिम्मेदारी उनके ऊपर ही थी। इसके लिए उन्होंने महिषादल (बंगाल की महिषादल रियासत की सेना) में सैनिक की नौकरी कर ली। लेकिन उस खर्चे से घर का खर्च नहीं चल पाता था।
पहले विश्व युद्ध के कुछ समय बाद भारत में फैली महामारी के चलते सूर्यकान्त त्रिपाठी जी की पत्नी मनोहर देवी, भाभी, भाई, और चाचा की मौत हो गई। जीवन में शेष बची उनकी पुत्री। कुछ समय बाद पुत्री की भी मौत हो गई। घोर आर्थिक संकटों में जूझते निराला के जीवन का अधिकांश हिस्सा उसके बाद इलाहाबाद में बीता।
वो तोड़ती पत्थर, इलाहाबाद के पथ पर,
कोई न छायादार पेड़, वह जिसके तले बैठी स्वीकार,
श्याम तन,भर बंधा यौवन, गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु-मालिका, अट्टालिका प्राकार
वह तोड़ती पत्थर, इलाहाबाद के पथ पर। जैसी कालजयी रचनाएं आज भी प्रासंगिक है।
उत्तर प्रदेश के सीतापुर जनपद के श्रीनारायण शास्त्री (90 वर्ष) बहुत कम उम्र से ही लेखन और कविता पाठ कर रहे हैं। वे बताते हैं, "निराला जी के अंतिम दिनों में एक दो बार उन्हें भी उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ।"
निराला जी के जीवन से जुड़े एक एक वाकये के बारे में के बताते हैं, "निराला जी शिव स्वरूप थे जिसके पास कुछ नहीं था लेकिन उसने जीवन भर अपना सब कुछ दान करने में कभी हिचक नहीं की। उन दिनों निराला जी आर्थिक तंगी से गुजर रहे थे। कोई किताब प्रकाशित हुई थी। उसकी रॉयल्टी लेकर घर लौट रहे थे। इलाहाबाद स्टेशन के पास एक बुजुर्ग महिला ने उनसे भीख मांगी।
"एक बारगी उनका ध्यान उस बुजुर्ग महिला की तरफ नहीं गया। महिला ने फिर आवाज दी कि बेटा कुछ दे दो, तुम्हारी माँ जैसी हूँ। उसके इतना कहते ही निराला ने गुस्से में बुजुर्ग महिला की गर्दन पकड़ ली और गुस्से में उस समय जितने भी रुपए थे, दे दिए। बुजुर्ग महिला से निराला जी ने कहा "अगर आज के बाद भीख मागतीं दिखी तो गला दबाकर मार डालूँगा, आज से तुम मेरी माँ हो और निराला की माँ स्टेशन पर भीख नहीं मांगेगी।" कहकर निराला जी रीते हाथ अपने निवास की तरफ चले गये।
एक दूसरा संस्मरण याद करते हुए श्रीनारायण शास्त्री ने बताया कि एक बार निराला इलाहाबाद ट्रेन से आये। कार्यक्रम के आयोजक उन्हें लेने के लिए स्टेशन पर आ गये। निराला जी साहित्य जगत में उस समय सूर्य की तरह ही चमक रहे थे। आयोजकों को लग रहा था कि निराला जी के बड़े ठाठ होंगे। लेकिन जब केवल एक गमछा डालकर निराला जी स्टेशन पर उतरे तो आयोजक उनकी सादगी पर चकित थे। उनमें से एक ने पूछा " निराला जी आपका सामान कहाँ है? निराला जी ने जवाब दिया " एक रजाई लेकर आया था, रास्ते में ठण्ड ज्यादा लगी तो रजाई फाड़कर उसी में घुस गया अंदर पड़ी है, उसे ही समेट लो यही सामान है।
निराला जी के जीवन से जुड़े यूँ तो अनेक प्रसंग हैं लेकिन शास्त्री जी बताते हैं कि अगर कोई व्यक्ति निराला जी के सामने उनके नाम का सही उच्चारण नहीं करता तो उन्हें बहुत गुस्सा आता था खासकर गोरे उनका नाम सही से नहीं ले पाते थे। जब तक नाम लेने वाला व्यक्ति सही तरीके से नाम न ले ले तब तक निराला जी उसे छोड़ते नहीं थे।
सूर्यकान्त त्रिपाठी का जन्म 21 फरवरी सन 1899 में बंगाल के महिषादल रियासत अब का मेदिनी जिले में हुआ था। निराला जी के पिता पंडित राम सहाय तिवारी उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले (वैश्वारा) के गाढ़ाकोला ग्राम के निवासी थे। वे हाई स्कूल के बाद पढ़ नहीं पाये। बाद में उन्होंने हिंदी, संस्कृत और बांग्ला भाषा का ज्ञान अर्जित किया।
निराला जी के साहित्य भंडार में काव्य संग्रह अनामिका, परिमल, गीतिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, सरीखे 14 काव्य संग्रह, अप्सरा,अलका, प्रभावती जैसे दस उपन्यास, छह निबंध, आलोचना दो, पौराणिक संग्रह और बाल साहित्य सहित एक समृद्ध कोष है। जीवन भर तमाम अभावों,गरीबी, और कठिनाइयों को ह्रदय में संजोये 15 अक्टूबर सन 1961 को हिंदी जगत के साहित्य का ये सितारा सदा के लिए चिर निद्रा में सो गया।
इस कविता में जैसे निराला ने अपनी जीवन व्यथा को शब्दों में पिरो दिया हो..
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया
ठोकरें खाते हुए दिन बीते।
उठा तो पर न सँभलने पाया
गिरा व रह गया आँसू पीते।
ताब बेताब हुई हठ भी हटी
नाम अभिमान का भी छोड़ दिया।
देखा तो थी माया की डोर कटी
सुना वह कहते हैं, हाँ खूब किया।
पर अहो पास छोड़ आते ही
वह सब भूत फिर सवार हुए।
मुझे गफलत में ज़रा पाते ही
फिर वही पहले के से वार हुए।
एक भी हाथ सँभाला न गया
और कमज़ोरों का बस क्या है।
कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया,
मुझे दुख देने में जस क्या है।
रात को सोते यह सपना देखा
कि वह कहते हैं "तुम हमारे हो
भला अब तो मुझे अपना देखा,
कौन कहता है कि तुम हारे हो।
अब अगर कोई भी सताये तुम्हें
तो मेरी याद वहीं कर लेना
नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें
प्रेम के भाव तुरत भर लेना"।
मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सान्ध्य बेला ।
पके आधे बाल मेरे
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मन्द होती आ रही,
हट रहा मेला ।
जानता हूँ, नदी-झरने
जो मुझे थे पार करने,
कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख,
कोई नहीं भेला।
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