पत्थरों की नक्काशी: सिर्फ कला नहीं, कारीगरों की ज़िंदगी भी ख़तरे में
इन खूबसूरत कलाकृतियों को बनाने वाले लोग ख़ुद किन मुश्किल परिस्थितियों में काम करते हैं, इसकी परवाह ना शायद कारखाने के मालिकों को है, ना सरकार को।
Kanchan Pant 10 Jun 2018 10:00 AM GMT
छह बाई आठ के उस कमरे में आए हुए हमें सिर्फ पांच मिनट हुए थे, लेकिन महसूस हो रहा था जैसे उस दमघोंटू माहौल में हम कई महीनों से बंद हैं। मध्यम रोशनी वाले उस कमरे में दो कारीगर लकड़ी के टुकड़ों को खूबसूरत खिलोनों का रूप देने में लगे हुए थे, उससे जो बुरादा निकल रहा था वो हवा में घुल-मिल गया था, इस हद तक कि सांस लेना मुश्किल हो रहा था। जिस माहौल में सिर्फ कुछ देर रहकर हमारी टीम की सांस घुटने लगी, खांसी के दौरे पड़ने लगे, बनारस में पत्थर और लकड़ी के हज़ारों कारीगरों की पूरी ज़िंदगी उसी माहौल में बीत जाती है।
किस कीमत पर ज़िंदा है नक्काशी की कला?
पत्थरों की नक्काशी (स्टोनवर्क) और लकड़ी के खिलौनों के लिए बनारस देशभर में मशहूर है। बनारस की संकरी गलियों के अंदर सैकड़ों छोटे-बड़े कारखाने हैं, जहां लकड़ी और पत्थर का काम होता है। यहां से निकलने वाले खूबसूरत आर्टिफेक्ट्स, मूर्तियां, पत्थर की मूर्तियां, लकड़ी के खिलौने देश और विदेश सब जगह सप्लाई किए जाते हैं, लेकिन इन खूबसूरत कलाकृतियों को बनाने वाले लोग ख़ुद किन मुश्किल परिस्थितियों में काम करते हैं, इसकी परवाह ना शायद कारखाने के मालिकों को है, ना सरकार को। चाहे लकड़ी के खिलौने हों, या पत्थरों का काम, इनकी नक्काशी से जो बुरादा निकलता है, वो कारीगरों की ज़िंदगी से खेल रहा है, ख़ासतौर पर पत्थर का काम करने वाले कारीगरों की ज़िंदगी से।बनारस में पत्थर का ज़्यादातर काम सोपस्टोन पर होता है। सोपस्टोन अपेक्षाकृत कम कठोर पत्थर है, इसलिए इसपर आसानी से कोई भी डिज़ाइन उकेरा जा सकता है, लेकिन इसमें इसमें बड़ी मात्रा में सिलिका और एस्बेस्टस पाया जाता है, जो शरीर के लिए बहुत ख़तरनाक है। जब मशीन से सोपस्टोन पर नक्काशी की जाती है तो इससे महीन पाउडर हवा में उठता है, जो हर सांस के साथ शरीर में जाता रहता है।
पिछले 45 साल से पत्थरों की नक्काशी का काम कर रहे कारीगर गोविंद इस खतरे को भी समझते हैं और ये भी जानते हैं कि ये ज़हरीला पाउडर उनके शरीर के लिए ठीक नहीं है, लेकिन उनके पास ये काम करते रहने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं। गोविंद कहते हैं- 16 साल की उम्र से यही काम कर रहा हूं...45 साल हो गए, कुछ और करना आता भी नहीं, दिन भर यही धूल खाते हैं, और लगे रहते हैं…सब ज़िंदगी इसी में ख़त्म हो गई है। जितना कमाते हैं, उतना तो दवाइयों में ही निकल जाता है" अपनी तकलीफ़ बताते हुए गोविंद का गला बार-बार रुंध जाता है। उनकी शिकायत सिर्फ किस्मत से नहीं, सरकार से भी है। वो कहते हैं-
"बहुत सारी सरकारें आईं, कहा हैंडीक्राफ्ट के लिए फैक्टरी लगा देंगें, कारीगरों को सरकारी नौकरी देंगें...किसी को कुछ नहीं मिला. किसी को दमा हो गया, किसी को टीबी हो गया, मेरे सामने सौ-दो सौ कारीगर मर गए, लेकिन सरकार कुछ नहीं करती। "
शरीर के लिए बेहद ख़तरनाक है सोपस्टोन
- सोपस्टोन में मौजूद सिलिका की वजह से सैकड़ों कारीगर सिलोकसिस नाम की बीमारी के शिकार हैं। इस बीमारी में फेफड़ों में सिलिका के कण जमा होने की वजह से वजह से सांस लेने में तकलीफ़, खांसी, बुखार जैसी कई परेशानियां हो जाती हैं
- सोपस्टोन में एस्बेस्टस भी बड़ी मात्रा में पाया. एस्बेस्टस की वजह से फेफड़ों, पेट और आंत के कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ जाता है
- पत्थर की नक्काशी से निकलने वाली धूल आंखों के लिए भी बेहद खतरनाक है. लगातार इस धूल के संपर्क में रहने से आंखों से पानी आने लगता है, जलन होने लगती है, और आंखों की रोशनी पर भी असर पड़ता है
- मशीनों से होने वाले वाइब्रेशन से अंगुलियां सुन्न पड़ने लगती हैं, जो कई बार हमेशा के लिए बनी रहती है
सरकार को नहीं है कारीगरों की फिक्र
हथकरघा और हस्तकला के विकास के लिए सरकार ने कहने को एक विभाग बनाया हुआ है। खानापूर्ति के तौर पर कारीगरों को मास्क दिए गए हैं, लेकिन ये मास्क पत्थर के महीन कणों को मुंह में जाने से रोकने में बिल्कुल कारगर नहीं है। इस बारे में जब उत्तर प्रदेश सरकार में सीनियर हैंडीक्राफ्ट डाइरेक्टर सोहन कुमार झा से पूछा गया तो उनका जवाब कुछ यूं था- "हमें तो किसी ने बताया नहीं ये मास्क इफेक्टिव नहीं है. अगर ये इफेक्टिव नहीं है तो देश में जो भी मास्क इफेक्टिव हो उन्हें दिया जा सकता है" हैरानी की बात ये है कि हैंडीक्राफ्ट डिपार्टमेंट के पास इस बात के आंकड़े तक नहीं हैं कि इस खतरनाक स्टोन पाउडर की वजह से कितने कारीगर बीमार हुए हैं, और कौन-कौन सी बीमारियों के शिकार हैं। ऐसे में कारीगर उम्मीद भी कैसे रखें कि सरकार उनके स्वास्थ्य की कभी सुध भी लेगी।
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