हर वाद्य यंत्र की अपनी ख़ासियत

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
हर वाद्य यंत्र की अपनी ख़ासियतgaoconnection

गिटार, ड्रम, हरमोनियम, वीणा, सारंगी, बांसुरी और न जाने कितने ही वाद्ययंत्रों के बारे में हम जानते हैं लेकिन क्या आपको पता है कि संगीत को रोचक बनाने वाले इन वाद्ययंत्रों को चार वर्गों में विभाजित किया गया है। इसमें घन-वाद्य, अवनद्ध-वाद्य, सुषिर -वाद्य और तत-वाद्य शामिल हैं। घन-वाद्य में डंडे, घंटियों, मंजीरे आदि शामिल किए जाते हैं जिनको आपस में ठोककर मधुर ध्वनि निकाली जाती है। अवनद्ध-वाद्य या ढोल में वे वाद्य आते हैं, जिनमें किसी पात्र या ढांचे पर चमड़ा मढ़ा होता है जैसे-ढोलक। सुषिर-वाद्य में वे यंत्र शामिल होते हैं जो किसी पतली नलिका में फूंक मारकर संगीतमय ध्वनि उत्पन्न करने वाले होते हैं, जैसे-बांसुरी। 

तत-वाद्य में वे यंत्र शामिल होते हैं, जिनसे तारों में कम्पन्न उत्पन्न करके संगीतमय ध्वनि निकाली जाती है, जैसे-सितार। इन वर्गों के हिसाब से आज हम आपको इन वाद्य यंत्रों के बारे में बता रहे हैं। वैसे तो इन्हें शास्त्रीय संगीत के लिए इस्तेमाल किया जाता है लेकिन हिंदी फिल्मों के गीतों के लिए भी कई बार इन वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल  होता है।

लोकिप्रिय वाद्ययंत्र वीणा

वीणा भारत के लोकप्रिय वाद्ययंत्र में से एक है जिसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत में किया जाता है। वीणा सुर ध्वनिओं के लिये भारतीय संगीत में प्रयुक्त सबसे प्राचीन वाद्ययंत्र है। समय के साथ इसके कई प्रकार विकसित हुए हैं -रुद्रवीणा, विचित्र वीणा वगैरह लेकिन इसका प्राचीनतम रूप एक-तन्त्री वीणा है। ऐसा कहा जाता है कि मध्यकाल में अमीर खुसरो दहलवी ने सितार की रचना वीणा और बैंजो (जो इस्लामी सभ्यताओं में लोकप्रिय था) को मिलाकर किया, कुछ इसे गिटार का भी रूप बताते हैं। 

सितार पूर्ण भारतीय वाद्य है क्योंकि इसमें भारतीय वाद्यों की तीनों विशेषताएं हैं। वीणा वस्तुत: तंत्री वाद्यों का संरचनात्मक नाम है। तंत्री या तारों के अलावा इसमें घुड़च, तरब के तार तथा सारिकाएँ होती हैं। यह तत वाद्य में शामिल होता है।

सितार

सितार का नाम सुनते ही सबसे पहले मशहूर सितार वादक पंडित रविशंकर की याद आती है। सितार का प्रयोग शास्त्रीय संगीत से लेकर हर तरह के संगीत में किया जाता है। इसके इतिहास के बारे में अनेक मत हैं। सितार पूर्ण भारतीय वाद्य है क्योंकि इसमें भी वीणा की तरह भारतीय वाद्यों की तीनों विशेषताएं हैं। तंत्री या तारों के अलावा इसमें घुड़च, तरब के तार तथा सारिकाएँ होती हैं। 

इसके महत्व का एक कारण यह भी है कि सेनिया धराने के लोग अपने घर के अलावा शिष्यों को सितार की शिक्षा देते थे। इस कारण वीणा वादन कुछ लोगों तक ही सीमित हो गया और सितार का प्रचार बढ़ता गया। सितार वाद्य का महत्व अनेक कारणों से देखा जा सकता है।

तबला

तबला को भी शास्त्रीय के साथ हर तरह के संगीत के साथ प्रयोग किया जा सकता है। इसका प्रयोग भारतीय संगीत में मुख्य रूप से मुख्य संगीत वाद्य यंत्रों का साथ देनेवाले वाद्ययंत्र के रूप में किया जाता है। इसके दो हिस्से होते हैं, जो लकड़ी के खाले डिब्बे की तरह होते हैं और बजाते समय दोनों के लिए अलग-अलग हाथ प्रयोग किए जाते हैं। दाएं हाथ से बजाए जानेवाले यंत्र को, जो आकार में बड़ा होता है, तबला, दायाँ या दाहिना कहा जाता है। जबकि छोटे यंत्र को जो आकार में छोटा होता है और बाएं हाथ से बजाया जाता है उसे सिद्दा, या बायाँ कहा जाता है। सिद्दा को बजाते समय बाएं हाथ की उँगलियों, हथेली और कलाई का प्रयोग किया जाता है। दोनो यंत्र पुआल के एक गद्दे पर रखा जाता है जिसे छुट्टा कहा जाता है। दोनो यंत्रों के ऊपर बीच में एक काली गोल आकृति होती है जो अक्सर या तो चंदन या एक अन्य काले पदार्थ की बनी होती है जिसे स्याही कहा जाता है। ये काली आकृति चमड़े के छाल के उपर लगी होती है। यह अवनद्ध वाद्य के अंतर्गत आता है।

मंजीरा 

मंजीरा भजन में प्रयुक्त होने वाला एक महत्वपूर्ण वाद्य है। इसमें दो छोटी गहरी गोल मिश्रित धतु की बनी कटोरियां जैसी होती है। इनका मध्य भाग गहरा होता है। इस भाग में बने गड्ढे के छेद में डोरी लगी रहती है। ये दोनों हाथ से बजाए जाते हैं, दोनों हाथ में एक-एक मंजीरा रहता है। इसे ढोलक व तबले के साथ में सहायक यंत्र के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। 

बांसुरी- बहुत प्रचलित 

इकहरी बांसुरी अथवा दोहरी बांसुरियां केवल एक खोखली नलिका के साथ, स्वर की ऊँचाई को नियंत्रित करने के लिए अंगुली रखने के छिद्रों सहित होती हैं। ऐसी बांसुरियां देश के बहुत से भागों में प्रचलित हैं। लम्बी, सपाट, बड़े व्यास वाली बांसुरियों को निचले (मंद्र) सप्तक के आलाप जैसे धीमी गति के स्वर-समूहों को बजाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। छोटी और कम लम्बाई वाली बांसुरियों को, जिन्हें कभी-कभी लम्बवत (उर्ध्वाधर) पकड़ा जाता है, द्रुत गति के स्वर-समूह अर्थात तान तथा ध्वनि के ऊंचे स्वरमान को बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। दोहरी बांसुरियां अक्सर आदिवासी तथा ग्रामीण क्षेत्र के संगीतकारों द्वारा बजाई जाती हैं और ये मंच-प्रदर्शन में बहुत कम दिखाई देती हैं। यह सुषिर वाद्य के अंतर्गत आता है।

संकलन: शेफाली श्रीवास्तव

 

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.