जंगलों में बचपन तलाश रहा भविष्य

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जंगलों में बचपन तलाश रहा भविष्यgaon connection

दुद्धी (सोनभद्र)। ''लकड़ी काटने के लिए हमें जंगलो में जाना पड़ता है। कई घंटे जंगल में बिताने के बाद हम बीस किलो लकड़ी इकट्ठा करते हैं और बाद में उसे शहर में बेचते हैं। पूरा दिन मेहनत करने के बाद हमें शाम तक सौ रुपये मिल जाते हैं।" सिर पर लकड़ी का गट्ठर लादकर जंगल से लौट रहा सुमित (10 वर्ष) माथे से पसीना पोछते हुए बताता है। 

सोनभद्र जिले के दुद्घी गाँव के सैकड़ों बच्चे जंगल से लकड़ी काटकर जीविकोपार्जन करने को मजबूर हैं। सरकार द्वारा बच्चों के हित के लिए चलाई जा रही योजनाओं का इस गाँव के बच्चों को कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है। सुबह होते ही गाँव के बच्चे कई किलोमीटर का सफर पूरा करने के बाद जंगलों से लकड़ी काटकर लाते हैं और बेचने के लिए शहर तक का सफर पूरा करते हैं। यहां के बच्चों की यह दिनचर्या बन चुकी है।

करहिया बहेराडोल, गड़दरवा समेत कई गाँव में रहने वाले आदिवासी परिवारों के बच्चों का हाल भी सुमित जैसा ही है। इन गाँव के बच्चे भोर पहर ही एक गुट बनाकर दुद्घी के आसपास के जंगलों से लकड़ी लाने के लिए घरों से निकल पड़ते हैं। खतरों से भरे रास्तों को पारकर वह जंगल में कई घंटे बिताते हैं और सूखी लकड़ियाँ इकट्ठा करते हैं। लकड़ियाँ इकट्ठा करने के बाद वह बड़ा सा बोझ बनाकर वापस शहर की ओर निकल पड़ते हैं। जंगलो से लकड़ी लाने वाले बच्चों को हर रोज बीस किलोमीटर से अधिक का सफर करना पड़ता है। शहर की सड़कों पर घूम-घूमकर लकड़ियों का गट्ठर बेचते हैं। पूरे दिन की कड़ी मेहनत के बाद बच्चों को सौ रुपये से अधिक नहीं मिल पाते हैं। जिन्हें वह रात में घर लौटकर अपने माता-पिता को दे देते हैं। आदिवासी परिवार के मुखिया ने बताया, ''हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे जंगल जाकर लकड़ी काटे, लेकिन हम मजबूर हैं। शहर जाकर हम भी काम करते हैं, लेकिन उतना पैसा नहीं मिलता जिससे सभी का पेट भर सके। लकड़ी बेचने से जो पैसा बच्चों को मिलता है उससे खर्चा चलाने में मदद मिल जाती है।" दुद्घी व उसके आसपास के गाँव के साथ ही ऐसी ही तस्वीर आपको पूरे जिले में आसानी से देखने को मिल जाएगी। जहां बच्चे स्कूल जाने के बजाए कई तरह के काम कर पैसे कमा रहे हैं।

रिपोर्टिंग - भीम कुमार

 

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