मधुमेह रोगियों के लिए फायदेमंद औषधि है स्टीविया, फरवरी-मार्च में करें इसकी खेती
Divendra Singh | Jan 30, 2017, 14:30 IST
लखनऊ। भारत में औषधीय पौधों की खेती का रकबा लगातार बढ़ता जा रहा है। उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में सरकार ऐसी खेती को प्रोत्साहित भी कर रही है। आर्टीमीशिया, सतावरी, अश्वगंधा की तरह यूपी में स्टीविया की खेती भी किसान करने लगे हैं। मधुमेह और मोटापा आदि के उपचार में इस्तेमाल किए जाने वाले स्टीविया की खेती के लिए फरवरी-मार्च का समय सबसे उपयुक्त होता है।
स्टीविया का उपयोग आजकल चीनी की जगह खूब हो रहा है क्योंकि इसकी पत्तियां मीठी तो होती हैं, लेकिन इसमें कैलोरी की मात्रा न के बराबर होती है इसलिए इसे पारंपरिक चीनी से अच्छा माना जाता है। इन्हीं गुणों के कारण स्टीविया की खेती करने में किसान का काफी फायदा होता है।
डॉ. केके लाल, वैज्ञानिक, केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध संस्थान (सीमैप) लखनऊ जलवायु:- स्टीविया की खेती सालभर की जा सकती है, बस इसे बरसात के मौसम में उगाने से बचना चाहिए। इसकी खेती के लिए अच्छी जल निकासी वाली जमीन होना आवश्यक है।
रोपाई:- स्टीविया वर्ष भर में कभी भी लगाई जा सकती है लेकिन उचित समय फरवरी-मार्च का महीना है। स्टीविया के पौधों की रोपाई मेड़ों पर की जाती है। इसके लिए 15 सेमी ऊंचाई के दो फीट चौड़े मेड़ बना लिए जाते है। उन पर कतार से कतार की दूरी 40 सेमी और पौधों में पौधे की दूरी 20-25 सेमी रखते हैं, दो मेड़ों के बीच 1.5 फीट की जगह नाली या रास्ते के रूप में छोड़ देते हैं।
खाद एवं उर्वरक:- क्योंकि स्टीविया की पत्तियों का मनुष्य द्वारा सीधे उपभोग किया जाता है। इस कारण इसकी खेती में किसी भी प्रकार की रासायनिक खाद या कीटनाशी का प्रयोग नहीं करते हैं। एक एकड़ में इसकी फसल को तत्व के रूप में नाइट्रोजन ,फास्फोरस व पोटाश की मात्रा क्रमश: 110:45:45 किग्रा के अनुपात की आवश्यकता होती है। इसकी पूर्ति के लिए 70-80 कुंतल वर्मी कम्पोस्ट या 200 कुंतल सड़ी गोबर की खाद पर्याप्त रहती है।
सिंचाई:- स्टीविया की फसल सूखा सहन नहीं कर पाती है। इसको लगातार पानी की आवश्यकता होती है, सर्दी के मौसम में 10 दिन के अन्तराल पर व गर्मियों में प्रति सप्ताह सिंचाई करनी चाहिए वैसे स्टीविया भी फसल में सिंचाई करने का सबसे उपयुक्त साधन िस्प्रंकुलरर्स या ड्रिप है।
सिंचाई के पश्चात खेत की निराई खेत की निराई-गुड़ाई करनी चाहिए जिससे भूमि भुरभुरी व खरपतवार रहित हो जाती है जो कि पौधों में वृद्धि के लिए लाभदायक होता है।
स्टीविया की फसल में किसी भी प्रकार का रोग या कीड़ा नहीं लगता है। कभी-कभी पत्तियों पर धब्बे पड़ जाते है जो कि बोरान तत्व की कमी के लक्षण है। इसके नियंत्रण के लिए छह प्रतिशत बोरेक्स का छिड़काव किया जा सकता है। कीड़ों की रोकथाम के लिए नीम के तेल को पानी में घोलकर स्प्रे किया जा सकता है।
स्टीविया की पत्तियों में ही स्टीवियोसाइड पाये जाते हैं इसलिए पत्तों की मात्रा बढ़ायी जानी चाहिए और समय-समय पर फूलों को तोड़ देना चाहिए। अगर पौधे पर दो दिन फूल लगे रहें व उनको न तोड़ा जाए तो पत्तियों में स्टीवियोसाइड की मात्रा में 50 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। फूलों की तुड़ाई, पौधों को खेत के रोपाई के 30, 45, 60, 75 और 90 दिन के पश्चात व प्रथम कटाई के समय की जानी चाहिए। फसल की पहली कटाई के पश्चात 40, 60 व 80 दिनों पर फूलों को तोड़ने की आवश्यकता होती है।
लाभ:- वैसे तो स्टीविया की पत्तियों का अन्तर्राष्ट्रीय बाजार भाव लगभग 300-400 रुपए प्रति किग्रा है लेकिन अगर स्टीविया की बिक्री दर रुपए 100 प्रति किग्रा मानी जाए तो कुल तीन वर्षों में लगभग एक एकड़ से पांच से छह लाख का शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
उपज:- वर्षभर में स्टीविया की तीन- चार कटाइयों में लगभग 70 कुंतल से 100 कुंतल सूखे पत्ते प्राप्त होते हैं।
ऐसे तो स्टीविया की कई किस्में बाजार में मिल जाएंगी पर सीमैप ने स्टीविया की दो नई किस्में विकसित की हैं। इनके नाम हैं स्टीविया मीठी और स्टीविया मधु। डॉ. लाल इन किस्मों के बारे में बताते हैं, 'जो वेराइटी हमने विकसित की है उसमें डेलकोसाईड नाम का कैंसर पैदा करने वाला पदार्थ बिल्कुल न के बराबर होता है। दोनों किस्मों में यह पदार्थ 0.2 फीसदी से भी कम होता है।' इसके अलावा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भी स्टीविया की दो किस्में निकाली हैं जो बाजार में एमडीएस-13 और एमडीएस-14 के नाम से मिल जाती हैं।
स्टीविया का उपयोग आजकल चीनी की जगह खूब हो रहा है क्योंकि इसकी पत्तियां मीठी तो होती हैं, लेकिन इसमें कैलोरी की मात्रा न के बराबर होती है इसलिए इसे पारंपरिक चीनी से अच्छा माना जाता है। इन्हीं गुणों के कारण स्टीविया की खेती करने में किसान का काफी फायदा होता है।
स्टीविया चीनी से 250 गुना ज्यादा मीठा होता है, लेकिन इसमें कैलोरी शून्य होती है। बाज़ार में मिलने वाले रासायनिक मिठास वाले पदार्थों के ज्यादा इस्तेमाल से किडनी खराब होने को खतरा रहता है, जबकि स्टीविया के इस्तेमाल में ऐसा कोई डर नहीं है। आजकल स्टीविया की खेती का चलन तेजी से बढ़ा है। किसान इसकी खेती बड़ी मात्रा में कर रहे हैं।
रोपाई:- स्टीविया वर्ष भर में कभी भी लगाई जा सकती है लेकिन उचित समय फरवरी-मार्च का महीना है। स्टीविया के पौधों की रोपाई मेड़ों पर की जाती है। इसके लिए 15 सेमी ऊंचाई के दो फीट चौड़े मेड़ बना लिए जाते है। उन पर कतार से कतार की दूरी 40 सेमी और पौधों में पौधे की दूरी 20-25 सेमी रखते हैं, दो मेड़ों के बीच 1.5 फीट की जगह नाली या रास्ते के रूप में छोड़ देते हैं।
खाद एवं उर्वरक:- क्योंकि स्टीविया की पत्तियों का मनुष्य द्वारा सीधे उपभोग किया जाता है। इस कारण इसकी खेती में किसी भी प्रकार की रासायनिक खाद या कीटनाशी का प्रयोग नहीं करते हैं। एक एकड़ में इसकी फसल को तत्व के रूप में नाइट्रोजन ,फास्फोरस व पोटाश की मात्रा क्रमश: 110:45:45 किग्रा के अनुपात की आवश्यकता होती है। इसकी पूर्ति के लिए 70-80 कुंतल वर्मी कम्पोस्ट या 200 कुंतल सड़ी गोबर की खाद पर्याप्त रहती है।
सिंचाई:- स्टीविया की फसल सूखा सहन नहीं कर पाती है। इसको लगातार पानी की आवश्यकता होती है, सर्दी के मौसम में 10 दिन के अन्तराल पर व गर्मियों में प्रति सप्ताह सिंचाई करनी चाहिए वैसे स्टीविया भी फसल में सिंचाई करने का सबसे उपयुक्त साधन िस्प्रंकुलरर्स या ड्रिप है।
खरपतवार नियंत्रण
रोग एवं कीट नियंत्रण
फूलों को तोड़ना
फसल की कटाई
उपज:- वर्षभर में स्टीविया की तीन- चार कटाइयों में लगभग 70 कुंतल से 100 कुंतल सूखे पत्ते प्राप्त होते हैं।