हाइड्रोजेल की मदद से कम पानी में भी पा सकते हैं बढ़िया उत्पादन, नहीं करनी पड़ेगी बार-बार सिंचाई
हाइड्रोजेल की मदद से किसान कम पानी में भी फसलों से बढ़िया उत्पादन पा सकते हैं, लेकिन ज्यादातर हाइड्रोजेल ऐसे होते हैं जो जल्दी नष्ट नहीं होते और पर्यावरण के लिए नुकसानदायक होते हैं। ऐसे में त्रिपुरा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने पौधों के सेल्यूलोज से हाइड्रोजेल विकसित किया है। जोकि पर्यावरण के लिए पूरी तरह सुरक्षित है।
Divendra Singh 10 Aug 2021 1:00 PM GMT
जिस तरह से जलसंकट बढ़ रहा है, कई राज्यों में तो सूखे ने खेती को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया है। अगर ऐसा ही रहा तो कुछ साल में कहीं खेती नहीं हो पाएगी। ऐसे में हाइड्रोजल जेल की मदद से कम पानी में भी खेती कर सकते हैं।
जिस तरह से जल संकट बढ़ रहा है, वो दिन दूर नहीं जब खेती के लिए भी पानी मुश्किल से उपलब्ध होगा। वैज्ञानिक प्रयास में लगे हैं कि किस तरह से किसानों की मदद कर पाएं, ऐसे में वैज्ञानिकों ने हाइड्रोजेल विकसित किया है, जिसकी मदद से किसान कम पानी में खेती कर सकते हैं।
देश ही नहीं दुनिया में बहुत से वैज्ञानिकों ने हाइड्रोजेल विकसित किए हैं, लेकिन त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला ने पूरी तरह से प्राकृतिक पौधों के पॉलीमर से हाइड्रोजेल विकसित करने में सफलता हासिल की है।
त्रिपुरा विश्वविद्यालय के केमिकल और पॉलीमर इंजीनियरिंग विभाग के डॉ सचिन भालाधारे और उनकी टीम ने इस हाइड्रोजेल को विकसित किया है। डॉ सचिन भालाधारे गाँव कनेक्शन से हाइड्रोजेल के बारे में बताते हैं, "हाइड्रोजेल पर बहुत सारा रिसर्च चल रहा है, सिर्फ इंडिया में ही नहीं बाहर भी इस पर वैज्ञानिक रिसर्च कर रहे हैं। क्योंकि पानी की कमी पूरी दुनिया में एक बड़ी समस्या है।"
पौधों के सेल्यूलोज से बने हाइड्रोजेल की खासियतों के बारे में डॉ भालाधारे ने कहा, "हम लोग सेल्यूलोज जोकि एक बॉयो पॉलीमर है और पौधों से मिलता है। इसके बारे में कहा जाता है कि यह खत्म नहीं होता और दूसरे पॉलीमर से इसकी तुलना करें तो ये कभी खत्म नहीं होगा और इसकी कमी नहीं होगी। इसलिए हमने हाइड्रोजेल बनाने के लिए पौधों से सेल्यूलोज लिया है। हम ऐसा मटेरियल चाहते हैं जिससे पर्यावरण को भी कोई नुकसान न हो और खुद से नष्ट भी हो जाए। हमने इसमें ऐसा मटेरियल लिया है जोकि नॉन टॉक्सिक हो और आसानी से मिल भी जाए।"
हाइड्रोजेल भी एक तरह का पॉलीमर ही होता है, ये एक चेन की तरह होता है, जिसमें बीच में खाली जगह होती है, जैसे कि एक जाल होता है, उसमें भी बीच में खाली जगह होती है, उसी तरह से इसमें भी खाली जगह होती है, जहां पर पानी इकट्ठा हो जाता है और धीरे-धीरे पानी को छोड़ता है। इसमें इवैपरेशन (वाष्पीकरण) नहीं होगा, अगर होगा भी तो बहुत सीमित मात्रा में होगा।
"हम इसके साथ यह भी देखते हैं कि पौधों पर इसका क्या असर पड़ता है, इसके लिए एक में हम हाइड्रोजेल रखते हैं और एक में नहीं और फिर हम देखते हैं कि इसका पौधों पर क्या असर पड़ रहा, कौन से पौधे ज्यादा अच्छे से ग्रोथ कर रहे हैं, अभी हमने इसका लैब में टेस्ट कर लिया है, जिसका बेहतर परिणाम भी मिला है, "डॉ सचिन ने बताया।
साल 2019 में भूमि की सिंचाई में पानी की बर्बादी को रोकने, सूखे की मार को कम करने, उर्वरकों की क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से पर्यावरण मंत्रालय ने राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन के तहत इस शोध परियोजना को स्वीकृत दी थी। इस परियोजना के तहत ही त्रिपुरा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक हाइड्रोजेल पर काम कर रहे हैं।
डॉ भालाधारे बताते हैं, "हमें राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन तहत इस रिसर्च के लिए फंड मिला है, इस पर काम चल रहा है। कोविड महामारी के चलते थोड़ा देरी हुई है, नहीं तो अब तक पूरी तरह से रिसर्च हो जाती है। अभी हमने हाइड्रोजेल विकसित कर लिया है और मिट्टी पर इसका परीक्षण भी कर लिया है, तीन साल का हमारा यह प्रोजेक्ट है। अभी फील्ड ट्रायल होना है, जिस पर काम चल रहा है, कोशिश है कि जल्दी ही इसे हम पूरा कर पाएं।"
हाइड्रोजेल क्रिस्टल या ग्रेन्यूल फॉर्म होगा। इससे खेत में इसे आसानी से उपयोग कर सकेंगे। हाइड्रोजेल के कण बारिश होने पर या सिंचाई के वक्त खेत में जाने वाले पानी को सोख लेता है और जब बारिश नहीं होती है तो इनसे धीरे-धीरे पानी रिसता है, जिससे फसलों को पानी मिल जाता है। फिर अगर बारिश हो तो हाइड्रोजेल दोबारा पानी को सोख लेता है और जरूरत के अनुसार फिर उसमें से पानी का रिसाव होने लगता है।
#hydrogel #irrigation #water conservation tripura university #story
More Stories