बीड़ी में सुलग रही श्रमिकों की जिंदगी: 1000 बीड़ी के 60 रुपए, उसमें भी खराब बीड़ी पर कटौती

तेंदू के सूखे पत्तों में तंबाकू लपेटकर मजदूर बीड़ी बनाते हैं। इस काम में लाखों मजदूर लगे हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर मजदूर ठेके पर काम करते हैं, जिन्हें औसतन 1000 बीड़ी के 60 रुपए मिलते हैं, ज्यादातर बार 1000 में से 200 बीड़ी खराब निकल जाती है, जिसके पैसे नहीं मिलते।

Sachin Tulsa tripathiSachin Tulsa tripathi   24 July 2021 1:47 PM GMT

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सतना/रीवा (मध्यप्रदेश)। "लगभग 30 साल से बीड़ी बना रही हूं। आज तक नियमित नहीं किया गया है। सुबह से लेकर रात नौ-दस बजे तक काम करने के बाद भी 1000 बीड़ी भी नहीं बन पाती हैं। पहले ऐसा कर लेती थीं। इस समय एक दिन में किसी भी तरह 500 बन जाती हैं, लेकिन इसमें से 200 की खराब मान कर कटौती की जा रही ही है।" बीड़ी मजदूर 55 साल की चंद्रकली देवी अपनी परेशानी बताती हैं।

मध्यप्रदेश के जिला सतना के गांव कैमा उन्मूलन की चंद्रकली चौधरी का शरीर गवाही नहीं देता कि लगातार सिर झुकाकर बीड़ी बनाएं लेकिन घर चलाने के लिए उन्हें ये काम करना होता है, जबकि मेहनत के मुकाबले पैसा काम काफी कम है। वो रोजाना बीड़ी बनाती हैं और हफ्ते भर में बनाई गई बीड़ियों को गिनाने ठेकेदार के पास जाती हैं।

चंद्रकली कहती है, "बीड़ी के काम में आमदनी नहीं है। कर रहे थे इसलिए करते आ रहे हैं। इस उम्र में और कोई काम भी नहीं मिलता।"

पिछले 30 साल से बीड़ी बनाने का काम कर रही हैं चंद्रकली।

मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों में जंगलों के आसपास के जिलों में बड़े पैमाने पर बीड़ी बनाने का काम होता है। मध्य प्रदेश में सतना, रीवा, पन्ना के तमाम आदिवासी और ग्रामीणों की आजीविका बीड़ी पर टिकी है। यूपी और एमपी के सूखा प्रभावित पथरीले इलाके बुंदेलखंड में सैकड़ों गांव ऐसे हैं जहां बीड़ी बनाई जाती हैं।

बीड़ी और तेंदू पत्ते से जो तरह से बनवासी, आदिवासी और ग्रामीण जुड़ते हैं। एक वो जो जंगल या जंगल के आसपास रहकर तेंदू के पत्ते एकत्र करते हैं और दूसरे वो इन पत्तों के सूखने के बाद उनसे बीडियां बनाते हैं।

सेंटर ऑफ मध्य प्रदेश स्टेट ऑफ एनवायरमेंट के अनुसार मध्य प्रदेश में देश का बड़ा तेंदूपत्ता उत्पादक राज्य है। यहां कुल वार्षिक उत्पादन 25 लाख मानक बोरा है। देश के कुल उत्पादन का लगभग 25 फीसदी तेंदूपत्ता की पूर्ति मध्य प्रदेश करता है। एक मानक बोरा में 1000 बंडल होते हैं। एक बंडल 50 से 100 तेंदूपत्तों का बनाया जाता है।

वनवासियों के आय का स्रोत तेंदूपत्ता भी है। इन्हें आर्थिक रूप से निर्भर बनाने मध्य प्रदेश में राज्य लघु वनोपज ( व्यापार एवं विकास) सहकारी संघ का 1984 में गठन किया गया। इसी तरह वनोपज संग्रहण, भंडारण एवं व्यापार से बिचौलियों से वनवासियों को बचाने के लिए प्राथमिक वनोपज समितियां हैं। इनकी संख्या 1072 है तथा जिला स्तर पर 60 ज़िला वनोपज सहकारी समिति हैं।

जनसंपर्क कार्यालय मध्य प्रदेश की जिला अनूपपुर कार्यालय की वेबसाइट के मुताबिक 25 जुलाई के वन मंत्री डॉ. कुंवर विजय शाह के बयान के मुताबिक प्रदेM में इस वर्ष 16 करोड़ 60 लाख मानक बोरा तेन्दूपत्ता संग्रहीत किया गया। तेन्दूपत्ता संग्राहकों को 415 करोड़ रूपये पारिश्रमिक के रूप में भुगतान किया गया।

अपने बयान में उन्होंने कहा, "राज्य लघु वनोपज संघ ने कोरोना संक्रमण की विपरीत परिस्थितियों में कोरोना गाइड लाइन का पालन कर निर्धारित लक्ष्य 16 करोड़ 30 लाख के विरूद्ध 16 करोड़ 60 लाख मानक बोरा का संग्रहण कर विशेष उपलब्धि अर्जित की है। अग्रिम निर्वतन में 872 लाटों की 15 लाख 76 हजार मानक बोरा 812 करोड़ 59 लाख रूपये के विक्रय मूल्य पर निर्वतन किये जाने के बाद शेष 65 लाटों में विभागीय संग्रहण कराया गया है।"

वन विभाग के वर्ष 2020-21 के प्रशासकीय प्रतिवेदन अनुसार 15.88 लाख मानक बोरा (31 दिसंबर 2020 तक तेंदूपत्ता संग्रहित किया गया था, इसमें से 13.70 लाख मानक बोरा का विक्रय किया जो 560.55 करोड़ रुपए का रहा। संग्रहण की दर 2500 रुपये मानक बोरा है। इसी तरह 2019-20 में 21.06 लाख मानक बोरा तेंदुपत्ता संग्रहित किया गया। इसमें से 19.74 लाख मानक बोरा विक्रय किया गया, जिसमें से 826.44 करोड़ रुपये की प्राप्ति हुई। वर्ष 2018-19 में संग्रहण की दर 2000 प्रति मानक बोरा थी। तब 19.15 लाख मानक बोरा का संग्रहण किया गया। इसमें से 14.82 लाख मानक बोरा विक्रय किया गया। इसकी कीमत 737.35 करोड़ रुपये रही।

तेंदू पत्ता का कारोबार। साभार ENVIS Madha Pradesh

बीड़ी बनाने का काम ज्यादातर ठेके पर होता है, जिसमें मजदूर को काफी कम मिलते हैं। औसतन 1000 बीड़ी बनाने पर मजदूरों को मात्र 60 रुपए मिलते हैं, जिसमें कई बार ठेकेदार 200 बीड़ी रिजेक्ट (खराब) बता देते हैं, जिसके उन्हें पैसे नहीं मिलते। मजदूरों को बीड़ी के ऊपर बांधा जाने वाला धागा अपने पास से लगाना होता है।

कैमा उन्मूलन गांव सतना जिला मुख्यालय से मात्र 5 किलोमीटर दूर बसा हुआ है। इस गांव में 250 से ज्यादा परिवार रहते हैं। इन परिवारों के जीविकोपार्जन का साधन मजदूरी और बीड़ी बनाना है।

बीड़ी मजदूर संघ के जिला अध्यक्ष बाशिक अहमद ने 'गांव कनेक्शन' से श्रमिकों का डाटा साझा करते हुए कहा, 'अकेले सतना जिले में करीब 110000 बीड़ी श्रमिक हैं। लेकिन नियमित श्रमिकों की संख्या बहुत की कम है। सक्रिय आठ कंपनियों में बमुश्किल 50-60 श्रमिक का ही फंड कटता होगा। यह भी तय नहीं है कि बीड़ी कंपनी किस मजदूर का कितना फंड काट रही हैं।"

बीड़ी बनाने का काम ज्यादातर ठेके पर होता है, जिसमें मजदूर को काफी कम मिलते हैं।

बीड़ी के मामले में तेंदूपत्ता की भूमिका अहम है। वन मंडल सतना के वनमंडलाधिकारी राजेश राय ने बताया, "इस वर्ष 65 हज़ार मानक बोरा तेंदूपत्ता संग्रहण का लक्ष्य रखा गया था। इस पर 63449 बोरा का संग्रह किया गया है। तेंदूपत्ता संग्रहण 42 वन समितियों के माध्यम से किया गया इसके लिए करीब 300 फड़ बनाये गए थे। एक मानक बोरा में 10000 तेंदूपत्ता होता है।"

जनजाति कार्य विभाग के अनुसार मध्य प्रदेश सात संभाग के 20 जिलों के 89 आदिवासी विकासखंड है इनमें कुल आदिवासियों की कुल जनसंख्या 15316784 है। 7719404 पुरुष और 7597380 महिलाएं हैं। इनमें से बड़ी संख्या तेंदुपत्ता से जुड़ा काम करती हैं।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत सरकार का अनुमान है कि भारत में 45 लाख बीड़ी श्रमिक हैं। इनमें से अधिकांश घर से काम करने वाली महिला श्रमिक हैं। ट्रेड यूनियनों का दावा है कि अगर बीड़ी बनाने के साथ तेंदू के पत्ते इकठ्ठा करने वालों को भी शामिल किया जाए तो यह संख्या 70 लाख से 80 लाख तक पहुंच सकती है। हालांकि असंगठित क्षेत्र होने के कारण सरकारी आंकड़ों में इनकी सही संख्या की जानकारी नहीं है। संबंधित खबर यहां पढ़ें-

औसतन 1000 बीड़ी बनाने पर मजदूरों को मात्र 60 रुपए मिलते हैं, जिसमें कई बार ठेकेदार 200 बीड़ी रिजेक्ट (खराब) बता देते हैं, जिसके उन्हें पैसे नहीं मिलते

मध्य प्रदेश के ही एक और जिले रीवा में जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर बसे गांव गोदहा की कुसुम कली साकेत (50 वर्ष) भी बीड़ी बनाती हैं। वो बताती हैं, ''एक दिन में बड़ी मेहनत के बाद 500 बीड़ी तक बन पाती हैं। गिनाने जाते हैं तो उसमें भी ठेकेदार 200 बीड़ी छांट लेता है। इस तरह से 300 बीड़ी का ही पैसा मिलता है। 1000 बीड़ी का 60 रुपए मिलता है। इसमें भी छंटाई और धागा का भी कट जाता है।" कुसुम के पति दिव्यांग हैं, वो काम पर नहीं जा सकते तो कुसुम की आदमनी से ही घर चलता है।

बीड़ी बनाने का ठेका लेने वाले चंद्रिका प्रसाद कोरी (48 वर्ष) बताते हैं, '' बीड़ी के काम में मेहनत से कम ही दाम मिल रहा है लेकिन लोग बना रहे हैं। मैं स्वयं बीड़ी बनाता हूँ। हजार बीड़ी का 60 रुपए तक दे रहे हैं। छंटाई का मतलब है कि कुछ बीड़ी खराब रहती है। किसी में तंबाकू कम है, कोई फट गई है आदि। ऐसी ही बीड़ी छंटाई में चली जाती हैं। कंपनी तो उम्दा माल ही लेगी।"

धागा तक के पैसे देने होते हैं

तेंदूपत्ता, तंबाकू तो ठेकेदार देता हैं लेकिन धागा के लिए तो बीड़ी की गिनती के समय ही पैसा काट लिया जाता है। अगर ठेकेदार ऐसा नहीं करता तो बाजार से धागा खरीदना मजबूरी होती है। सतना के हड़खार की सोमवती चौधरी 'गांव कनेक्शन को बताती हैं, '' मायके (पैकिनिया, ज़िला रीवा) में थे तो बीड़ी मज़दूरी करती थी। यहां भी वही काम करना पड़ता है। वहां और यहां में कोई अंतर नहीं है। तेंदूपत्ता और तंबाकू ठेकेदार दे देता है। अगर धागा दे दिया तो उसका पैसा बीड़ी की गिनती के समय काट लेता है। यह करीब 10 रुपए होता है।"

मजदूरों के मुताबिक 10 रुपए में एक लच्छी धागा मिलता है। एक लच्छी धागा अगर अच्छी क्वालिटी का हो तो 2000-4000 बीड़ी बन जाती हैं।

बीडी मजदूर पंजू खान (30वर्ष) ने गांव कनेक्शन को फ़ोन पर बताया, "धागा ढंग का हो 2 से 4 हज़ार तक बीड़ी बांधी जा सकती हैं। ज्यादातर धागा उलझा हुआ रहता है और काफी नाजुक होता है जिससे जल्दी टूट जाता है। इस लिए फिर बाजार से भी लेना पड़ता है। बीड़ी दो-दो रुपये का धंधा है। ध्यान देना पड़ता है। धागा, पत्ता तम्बाकू सब का।"

मजदूरों को बीड़ी के ऊपर बांधा जाने वाला धागा अपने पास से लगाना होता है।

आंख की रोशनी भी हो रही है कम

बीड़ी श्रमिकों की आंख में समस्या आने लगी हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि बारीकी से तम्बाकू को तेंदूपत्ता में भर कर बीड़ी का आकार देते हैं तो इससे आंख में जोर पड़ता है जिसे बीड़ी श्रमिकों की आंखों में दिक्कत हो रही है।

विद्या कुशवाहा (36 वर्ष) बताती हैं, "बीड़ी की तम्बाकू की गंध से सिर दर्द होने लगता है। इसके अलावा आंख में समस्या हो रही है। अक्सर पानी निकलता है। मजबूरी न होती तो बीड़ी क्यों बनाते।"

यही बात 75 वर्ष की शुभरण कोरी दोहराती हैं, "हमारे पास खेत खलिहान तो हैं नहीं मज़दूरी कर के ही बच्चों को पाला है। पति दूसरों के यहां काम करते थे और घर में बीड़ी बनाती थी। आज भी बना रही हूं। सिर झुका रहने और बारीकी से देखने के कारण आंखों में आंसू आते थे। अब तुम उम्र भी हो गयी। थोड़ा बहुत जो दिख रहा है उसके बाद भी बीड़ी बनाती हूँ।"

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