पढ़िए जनकवि बाबा नागार्जुन की पांच कविताएं

नागार्जुन उन कुछ कवियों में से हैं, जिन्होंने आम लोगों के लिए कविताएं और कहानियां लिखी हैं, पढ़िए उनकी पांच कविताएं....

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पढ़िए जनकवि बाबा नागार्जुन की पांच कविताएं

बाबा नागार्जुन ने खेत, खलिहान, राजनीति सब पर लिखा, नागार्जुन का असली नाम 'वैद्यनाथ मिश्र' था। हिन्दी साहित्य में उन्होंने 'नागार्जुन' और मैथिली में 'यात्री' उपनाम से रचनाओं का सृजन किया। नागार्जुन उन कुछ कवियों में से हैं, जिन्होंने आम लोगों के लिए कविताएं और कहानियां लिखी... आज पढ़िए उनकी पांच कविताएं....

अकाल और उसके बाद / नागार्जुन

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद

धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद

चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद

कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

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नागार्जुन ने यह कविता आपातकाल के प्रतिवाद में लिखी थी।

ख़ूब तनी हो, ख़ूब अड़ी हो, ख़ूब लड़ी हो

प्रजातंत्र को कौन पूछता, तुम्हीं बड़ी हो

डर के मारे न्यायपालिका काँप गई है

वो बेचारी अगली गति-विधि भाँप गई है

देश बड़ा है, लोकतंत्र है सिक्का खोटा

तुम्हीं बड़ी हो, संविधान है तुम से छोटा

तुम से छोटा राष्ट्र हिन्द का, तुम्हीं बड़ी हो

खूब तनी हो,खूब अड़ी हो,खूब लड़ी हो

गांधी-नेहरू तुम से दोनों हुए उजागर

तुम्हें चाहते सारी दुनिया के नटनागर

रूस तुम्हें ताक़त देगा, अमरीका पैसा

तुम्हें पता है, किससे सौदा होगा कैसा

ब्रेझनेव के सिवा तुम्हारा नहीं सहारा

कौन सहेगा धौंस तुम्हारी, मान तुम्हारा

हल्दी. धनिया, मिर्च, प्याज सब तो लेती हो

याद करो औरों को तुम क्या-क्या देती हो

मौज, मज़ा, तिकड़म, खुदगर्जी, डाह, शरारत

बेईमानी, दगा, झूठ की चली तिजारत

मलका हो तुम ठगों-उचक्कों के गिरोह में

जिद्दी हो, बस, डूबी हो आकण्ठ मोह में

यह कमज़ोरी ही तुमको अब ले डूबेगी

आज नहीं तो कल सारी जनता ऊबेगी

लाभ-लोभ की पुतली हो, छलिया माई हो

मस्तानों की माँ हो, गुण्डों की धाई हो

सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है प्रबल पिटाई

सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है 'इन्द्रा' माई

बन्दूकें ही हुईं आज माध्यम शासन का

गोली ही पर्याय बन गई है राशन का

शिक्षा केन्द्र बनेंगे अब तो फौजी अड्डे

हुकुम चलाएँगे ताशों के तीन तिगड्डे

बेगम होगी, इर्द-गिर्द बस गूल्लू होंगे

मोर न होगा, हंस न होगा, उल्लू होंगे

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अपने खेत में....

जनवरी का प्रथम सप्ताह

खुशग़वार दुपहरी धूप में...

इत्मीनान से बैठा हूँ.....

अपने खेत में हल चला रहा हूँ

इन दिनों बुआई चल रही है

इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही

मेरे लिए बीज जुटाती हैं

हाँ, बीज में घुन लगा हो तो

अंकुर कैसे निकलेंगे !

जाहिर है

बाजारू बीजों की

निर्मम छटाई करूँगा

खाद और उर्वरक और

सिंचाई के साधनों में भी

पहले से जियादा ही

चौकसी बरतनी है

मकबूल फ़िदा हुसैन की

चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक

हमारी खेती को चौपट

कर देगी !

जी, आप

अपने रूमाल में

गाँठ बाँध लो ! बिलकुल !!

सामने, मकान मालिक की

बीवी और उसकी छोरियाँ

इशारे से इजा़ज़त माँग रही हैं

हमारे इस छत पर आना चाहती हैं

ना, बाबा ना !

अभी हम हल चला रहे हैं

आज ढाई बजे तक हमें

बुआई करनी है....

एक के नहीं,

दो के नहीं,

ढेर सारी नदियों के पानी का जादू:

एक के नहीं,

दो के नहीं,

लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा:

एक के नहीं,

दो के नहीं,

हज़ार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म:

फसल क्‍या है?

और तो कुछ नहीं है वह

नदियों के पानी का जादू है वह

हाथों के स्पर्श की महिमा है

भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है

रूपांतर है सूरज की किरणों का

सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!

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सत्य को लकवा मार गया है

सत्य को लकवा मार गया है

वह लंबे काठ की तरह

पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात

वह फटी–फटी आँखों से

टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात

कोई भी सामने से आए–जाए

सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता

पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा

सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात

सत्य को लकवा मार गया है

गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है

सोचना बंद

समझना बंद

याद करना बंद

याद रखना बंद

दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती

सत्य को लकवा मार गया है

कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है

तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है

ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है

सत्य को लकवा मार गया है

वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है

सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात

वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक

वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक

वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक

लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा

पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है

जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है

उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है

लगता है, अब वह किसी काम का न रहा

जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा

लोथ की तरह, स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!

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सच न बोलना /

मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को,

डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को!

जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा!

सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा!

जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है

भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है!

बंद सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरे

जगह नहीं है जेलों में, यमराज तुम्हारी मदद करे।

ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का,

फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका!

बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे!

भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे!

ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है,

अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है!

सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर

एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर!

छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,

देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे!

जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा,

काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा!

माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं!

बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं!

मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है,

ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है। वाह खूब आज़ादी है!

रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा,

कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा!

नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं,

जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं!

सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे,

भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, मेवा-मिसरी पाओगे!

माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का,

हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का!


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