महंगाई अपने आप नहीं आती, बुलाई जाती है

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महंगाई अपने आप नहीं आती, बुलाई जाती हैgaonconnection

सरकार के वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बड़ी मशक्कत करके लगभग सभी सेवाओं पर टैक्स लगाने का बिल पास कराया जो इस वित्तीय वर्ष में लागू हो चुका है। कुछ चीजें तो दो दिन में ही महंगी हो गई हैं और जो बची हैं जल्दी ही महंगाई की राह पकड़ लेंगी। यही बिल पिछली सरकार के वित्तमंत्री चिदम्बरम भी लाना चाहते थे मगर ला नहीं सके थे। कभी-कभी तो सरकारें बड़ी मात्रा में नोट छाप कर महंगाई बढ़ाती हैं। आखिर महंगाई बुलाने वाला घाटे का बजट क्यों लाए अरुण जेटली, समझने की कोशिश कर सकते हैं।

इतिहास गवाह है कि 1920 के दशक में अमेरिका में मन्दी का दौर आया था, औद्योगिक विकास थम गया था और अमेरिकावासियों के लिए वह मन्दी का कठिन दौर था। इसके विपरीत 1930 के दशक में जर्मनी के लोग एक झोलाभर मार्क यानी जर्मन करेंसी ले जाते थे तो झोली भर चीनी लाते थे। यह हिटलर के पहले का हिन्डलबर्ग सरकार का अति महंगाई वाला दौर था। जर्मनी ने हिटलर को बैलट के जरिए खुशी से स्वीकार किया था। इन दोनों परिस्थितियों से बचने का प्रयास सभी वित्तमंत्री करते हैं, कुछ सफल भी होते हैं ।

हम आए दिन अखबारों में पढ़ते और टीवी पर देखते हैं कि दुनिया में विकास की दर मन्द है और मोदीजी कहते रहते हैं भारत की विकास दर दुनिया में सबसे तेज है। भारत की लॉटरी नहीं खुली है, आर्थिक सोच बदली है। सब्सिडी का बोझा घटाया गया है, तेल की कीमतें विश्व बाजार में कम हुई हैं,  उत्पादन बढ़ा है इसके बावजूद महंगाई बढ़ रहीं है। दूसरी सरकारों की तरह मोदी सरकार भी स्वीकार नहीं कर रहीं है। कई बार तो महंगाई को स्वीकार करने के बजाय छुपाने के लिए मूल्य सूचकांक का सहारा लिया जाता है।

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के लिए चीजों को कई वर्गों में विभाजित किया जाता है। पहला वर्ग है खाद्य पदार्थों का जिसमें पेय पदार्थ और तम्बाकू आदि को भी सम्मिलित किया जाता है। आम आदमी के अस्तित्व के लिए केवल खाद्य पदार्थ ही मायने रखते हैं। दूसरे वर्ग में ईंधन और प्रकाश तथा तीसरे वर्ग में भवन सामग्री सम्मिलित रहती है। चौथे वर्ग में कपड़ा, बिस्तर और पैरों का पहनावा जबकि पांचवे वर्ग में अन्य विविध सामान आते हैं। अब यदि कम्प्यूटर,  एसी, टीवी, फ्रिज, सरिया, लोहा, सीमेन्ट सस्ते हो जाएं और सूचकांक गिर जाए तो लगेगा कि मजदूर की जेब में जो एक रुपया है वह अब पहले से अधिक क्रय शक्ति वाला हो गया है। कितना भद्दा मजाक होगा उस गरीब के साथ क्योंकि उसे यह चीजें खरीदनी ही नहीं हैं।

हमारे देश में “थोक मूल्य सूचकांक” (होलसेल प्राइस इंडेक्स) की गणना की जाती है और जिससे भ्रामक तस्वीर पेश होती है। बिचौलियों की भूमिका के कारण उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (कन्ज्यूमर प्राइस इंडेक्स) जो फुटकर दरें बताता है, थोक मूल्यों के हिसाब से नहीं चलता। बिचौलिए समीकरण बिगाड़ देते हैं। सूचकांक या इंडेक्स ऐसा होना चाहिए जो जमीनी हकीकत को प्रकट करे, किसान मजदूर के लिए मायने रखता हो और बजट बनाने वालों को जमीनी सच्चाई से रू-ब-रू कराए। बजट या नीतियां देश की 70 फीसदी ग्रामीण आबादी को फोकस के साथ बनानी चाहिए। दूसरे देशों में यह संख्या कम है, अरब देशों में 43 फीसदी,  मध्य यूरोप में 38 फीसदी, यूरो क्षेत्र यानी जहां यूरो सिक्का चलता है वहां 24 फीसदी, दक्षिण अमेरिका में 21 फीसदी, तेल निर्यातक देशों में 20 फीसदी और सारी दुनिया में 47 फीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं। स्वाभाविक है कि हमारे देश की नीतियों का फोकस खेती पर होना चाहिए था परन्तु नेहरू के चलते ऐसा हुआ नहीं। मंदी या महंगाई का किसानों पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका ध्यान रखा ही नहीं गया। महंगाई या मन्दी केवल बजट पर निर्भर नहीं है, दूसरे कारण भी हैं।

आबादी पर कोई प्रभावी कदम न उठाए जाने के कारण तमाम प्रयासों के बावजूद महंगाई पर नियंत्रण नहीं हो पाता। सरकार या समाज इसके लिए कुछ करने को तैयार ही नहीं है। बच्चा पैदा करने के लिए महिलाओं को पहले एक माह की छुट्टी सरकारी नौकरी में मिलती थी अब एक साल की मिलती है। स्कूलों में दो बहन भाई हैं तो एक की फीस माफ होती है, मानो आबादी घटानी नहीं प्रोत्साहन देकर बढ़ानी है। रूस ने बहुत पहले अपनी आबादी बढ़ाने के लिए ऐसा किया था।

चीन ने अपनी आबादी घटाने के लिए कड़े उपाय किए थे, अब कड़ाई घटी है। आपातकाल के दिनों में इंदिरा गांधी की सरकार ने और विशेषकर संजय गांधी ने आबादी घटाने के कदम उठाए थे। प्रजातंत्र में ऐसे कदम लोकप्रिय नहीं होते। हमें लोकप्रियता और देशहित में सन्तुलन बिठाना होगा।

कई बार इस बात पर विवाद होता है कि हिन्दुओं की आबादी अधिक बढ़ रही है या मुसलमानों की। आखिर आबादी तो आबादी है और खाना, कपड़ा, मकान, दवाई,  पढ़ाई की तो सभी के लिए व्यवस्था करनी होगी। उसमें धर्म या जाति का अन्तर नहीं पड़ेगा। विश्व हिन्दू परिषद के कुछ लोग कहते हैं प्रत्येक हिन्दू को पांच बच्चे पैदा करने चाहिए,  शायद मुसलमानों की आबादी से मैच करने के लिए। सह तरीका सुख समृद्धि का मार्ग नहीं हो सकता। उपाय सोचना चाहिए कि जो वर्ग तेजी से आबादी बढ़ा रहे हैं वह कैसे बन्द हो। आबादी गरीबों की अधिक बढ़ रही है और महंगाई भी उन्हें ही अधिक सताती है।

भ्रष्टाचार भी महंगाई के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। उत्पादन और विपणन के बीच में जखीरेबाजी करके माल को रास्ते में दबा देना और कृत्रिम अभाव की हालत पैदा करना यहां की पुरानी समस्या है। राशन जिनके लिए सरकार भेजती है वहां तक न पहुंचने देना तो आम बात है। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने तो यहां तक कहा था कि एक रुपए की जगह केवल 15 पैसा ही किसानों तक पहुंचता है। अब परिस्थितियां बदली हैं और मनरेगा जैसे माध्यमों से गाँवों में भी पैसा पहुंच रहा है और महंगाई बढ़ा रहा है।

किसानों को खाद, बीज और पानी की महंगाई सर्वाधिक चोट पहुंचाती है। इन मामले में भ्रष्ट तरीकों के कारण हर चीज महंगी हो जाती है। सच तो यह है कि गाँव वालों को जो कुछ सामान बेचना होता है उसमें महंगाई नहीं होती और जिस समय बेचना होता है तब भी महंगाई नहीं होती लेकिन जब और जो चीजें उन्हें खरीदनी होती हैं,  महंगाई रहती है। हमारे वित्तमंत्री ने कह तो दिया ‘‘खूब कमाओ और खूब खर्चा करो” यह तो शुद्ध रूप से महंगाई बढ़ाने का सुझाव है।

कुछ समस्याएं तो ऐसी हैं जिन्हें हल करने के लिए धन की नहीं इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। गेहूं या धान की खरीद केन्द्रों पर बिचैलियों का होना एक ऐसा ही उदाहरण है। बिचैलियों के कारण किसान का सामान सस्ता बिकता है और उपभोक्ता को महंगा मिलता है।

हड़ताल करते समय कर्मचारी और अधिकारी नहीं सोचते इसका परिणाम क्या होगा। उत्पादन रुक जाएगा तो मांग और पूर्ति का सन्तुलन बिगड़ेगा, दुकानें बन्द होंगी तो कालाबाजारी होगी और कार्यालय बन्द होंगे तो कठिनाई होगी। हड़तालें इतने तक ही नहीं रुकतीं, भयानक तोड़फोड़ होती है जिसे सही करने के लिए नए कर लगाने पड़ेंगे जिससे महंगाई बढ़ेगी।

कभी आरक्षण के नाम पर तो कभी वेतन बढ़ाने के लिए हड़ताल करते हैं। सड़क जाम होती है और माल एक जगह से दूसरी जगह नहीं पहुंच पाता,प्याज और आलू की किल्लत पैदा होती है। वेतन में विसंगतियां हैं और हड़तालें होती रहती हैं। जब वेतन बढ़ेगा तो महंगाई अपने आप बढ़ेगी। अलग-अलग विभागों की विभिन्न समयों पर हड़तालें होती हैैं, पूरे देश के लिए एक वेजबोर्ड या वेतन आयोग बनाकर इस समस्या से निपटा जा सकता है। प्राइवेटाइजेशन भी एक उपाय है जिससे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा हो और महंगाई कम बढ़े। सरकारी कर्मचारी ऐसा होने नहीं देंगे।

वेतनभोगी तो अपना वेतन बढ़वा लेते हैं लेकिन किसान क्या करे। विकास के लालच में घाटे के बजट पेश होते रहे, इन्द्रदेव की तुनक मिजाजी रही, टैक्स बचाने के लिए करचोरों की मंडली खेती के छाते के नीचे खड़ी होती गई, औद्योगिक विकास धीमा रहा और काला धन बढ़ता गया। 

आवश्यकता है खेती पर से आबादी का दबाव घटाया जाए और खाद्यान्नों का आयात न करना पड़े। यह तभी सम्भव होगा जब जनशक्ति का उपयोग उद्योग धंधों की ओर मुड़ेगा।

 

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