मशरूम की तरह बढ़ती रहीं राजनैतिक पार्टियां

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मशरूम की तरह बढ़ती रहीं राजनैतिक पार्टियांgaonconnection

स्वामी प्रसाद मौर्य ने एक नई पार्टी बना ली इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होगा। यहां दस लोग एक साथ काम कर ही नहीं सकते क्योंकि यहां तो ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’। आजादी के बाद देश का सबसे पुराना दल कांग्रेस अनेक विचारधाराओं वाले लोगों का संगम था जो आजादी की लड़ाई के लिए एकत्रित हुआ था। इस दल में समाजवादी, साम्यवादी, उदारवादी, हिन्दूवादी, पूंजीवादी और ना जाने कितनी विचारधाराओं को मानने वाले लोग थे। उस रूप में कांग्रेस की भूमिका एक राजनैतिक छतरी जैसी थी, शायद इसीलिए महात्मा गांधी ने कहा था कि कांग्रेस पार्टी को भंग कर देना चाहिए क्योंकि उसका काम पूरा हो चुका था। कांग्रेस के नेताओं ने गांधी जी की बात नहीं मानी।

राजनैतिक दलों की संख्या की हालत यह है कि 2009 के चुनाव में 367 पार्टियों ने चुनाव लड़ा था और अब तो 1400 राजनैतिक दल चुनाव आयोग के पास पंजीकृत हैं। विचित्र एवं सत्य बात यह है कि यह सभी राजनैतिक दल सूचना के अधिकार अधिनियम से बाहर रहना चाहते हैं। क्या छुपाना है इन्हें? स्पष्ट है कि ये दल काला धन जुटाने और खर्च करने के लिए बनते हैं और यही छुपाना है इनको। यदि सरकार संविधान संशोधन करना ही चाहती हो तो सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 को कुन्द करने के बजाय राजनैतिक दलों का परिवार नियोजन करने का संशोधन पास करे जिसमें राजनैतिक दलों का पंजीयन इतना आसान ना रहे। 

अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी जैसे तमाम प्रजातांत्रिक देशों में राजनैतिक पार्टियों की संख्या नियोजित है- बस दो या तीन और उनका प्रजातंत्र आराम से चलता है। उन देशों में पार्टियां विचारधारा पर आधारित होती हैं और विचारधाराएं सैकड़ों की संख्या में नहीं हो सकतीं। हमारे देश में भी पचास के दशक में विचारधारा के हिसाब से कांग्रेस, कम्युनिस्ट, समाजवादी पार्टी और भारतीय जनसंघ ही थीं। आज सैकड़ों पार्टियां हैं जो अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग अलापती रहती हैं। अधिकतर पार्टियां या तो व्यक्तियों अथवा परिवारों द्वारा संचालित हैं अतः उनकी कोई सीमा नहीं हो सकती। इतना तो लगता है कि जिस अनुपात में देश में काला धन बढ़ा है उसी अनुपात में राजनैतिक दलों की संख्या बढ़ी है।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी 1925 से यानी कांग्रेस से भी पहले से काम कर रही थी, उसके  अनेक खंड हो चुके हैं, सीपीआई, सीपीआई (एम), सीपीआई (एमएल) तथा अन्य अनेक दल। कुल मिलाकर करीब 10 साम्य वादी दल हैं भारत में। उसी पृष्ठभूमि में जन्मा है नक्सलवाद। आखिर इतनी सारी साम्यवादी पार्टियों की क्या जरूरत जब सभी का एक ही उद्देश्य है- सम्पत्ति का न्यायसंगत बटवारा। सम्भव है समय के साथ उनकी विचारधारा की परिभाषा वह नहीं रही। 

भारतीय जनसंघ जो कालान्तर में भारतीय जनता पार्टी बनी उसका जन्म विशेष कारणों से 1951-52 में हुआ था। गांधी मर्डर के बाद लोकसभा में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगा तब लोक सभा में संघ का पक्ष रखने के उद्देश्य से डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में राष्ट्रवाद के नाम पर भारतीय जनसंघ की स्थापना हुुई। कोई माने या ना माने यह संघ की राजनैतिक फ्रंट है। अन्य दल शिव सेना, रामराज्य परिषद और पहले से चली आ रही हिन्दू महासभा, जनसंघ से मिलते जुलते विचार वाले रहे हैं परन्तु उनके पृथक अस्तित्व का उद्देश्य वे ही जानते होंगे। वैसे शिवसेना अन्य अनेक क्षेत्रीय दलों की भांति ही क्षेत्रीय अस्मिता के नाप पर बनी थी। 

पचास के दशक में आचार्य जे. बी. कृपलानी की अगुवाई में पहले किसान मजदूर प्रजा पार्टी फिर बाद में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनी। डाॅ. राम मनोहर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी िफर लोहिया, कृपलानी और अशोक मेहता की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बनी। बाद में ना जाने कितने समाजवादी दल बने मानो दो समाजवादी एकमत नहीं हो सकते। आज तो समाजवाद के नाम पर बनी पार्टियां परिवारवाद के दायरे से बाहर नहीं निकल पा रही हैं।

कांग्रेस से निकल कर वी पी सिंह ने जनता दल का गठन किया था जिसमें शामिल हुए थे जन मोर्चा, लोकदल, कांग्रेस (एस) आदि। ऐसा लगा था कि राजनैतिक दलों का सार्थक विलय हुआ है। कालान्तर में जनता दल के ना जाने कितने टुकड़े हुए- जनता दल (सेकुलर), जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल, बीजू जनता दल, राष्ट्रीय लोक दल और भी अनेक दल। इनमें से अनेक तो क्षेत्रीय दल हो गए हैं क्योंकि केन्द्र सरकारें कमजोर रही हैं। आशा की जानी चाहिए अब क्षेत्रीय दलों की संख्या घटेगी।

 

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