केसरिया परिधान में निकल पड़े कांवड़िए

गांव कनेक्शन के मल्टीमीडिया जर्नलिस्ट शुभम कौल ने कांवड़ यात्रा के कुछ लम्हों को किया अपने कैमरे में कैद

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केसरिया परिधान में निकल पड़े कांवड़िए

अगर आप उत्तर भारत में रहते हैं तो किसी भी राज्य में किसी सड़क हाईवे पर निकलेंगे तो हर-हर महादेव का जयघोष करते कांवड़िए नजर आएंगे। कांवड़िए गंगा, यमुना समेत कई दूसरी पवित्र नदियों से जल लेकर आते हैं और उसे अपने अराध्यदेव भगवान शिव को चढ़ाते हैं।

सावन और शिव भक्त, एक बार फिर शिव भक्त अपने कांवड़ लिए निकल पड़े हैं। कांवड़ का अर्थ है शिव के साथ विहार। कांवड़ के दोनों सिरे पर एक बर्तन में पवित्र जल होता है। ऐसी मान्यता है की एक बार कंधे पर कांवड़ उठाने के बाद जब यात्रा शुरू हो जाती है, तो उसे धरती पर नहीं रखा जाता है। एक बार यात्रा शुरु होने के बाद कांवड़िए अगर कहीं यात्रा मार्ग में रुकते भी हैं तो जल को जमीन की बजाए किसी ऊंचे स्थान पर रखते हैं। कई कांवडियों तो समूह में भी जल लाने लगे हैं।

अपनी-अपनी मन्नतों के साथ करोड़ों भक्त अपनी यात्रा शुरू करते हैं। दिल्ली, पंजाब, यूपी, हरियाणा और राजस्थान के करोड़ों कांवड़िए हरिद्वार में पवित्र गंगा से जल लाते हैं। ये यात्रा लगभग पूरे श्रावण मास से लेकर शिवरात्रि तक चलती है। यात्रा के प्रमुख केंद्रों में दिल्ली-हरिद्वार, लखनऊ फैजाबाद हाईवे, बनारस और इलाहाबाद के साथ ही झारखंड के देवघर हैं। जहां हर साल करोड़ों कांवड़िए पहुंचते हैं।

इस यात्रा से आप चाहकर भी अंजाने नहीं रह सकते। यात्रा की शुरुआत होते ही अक्सर आपको सड़कों पर केसरिया रंग के परिधान में ये भक्त, अपने कन्धों पर कांवड़ उठाये नज़र आ जाएंगे। पौराणिक कथाएं भी अपने आप में रहस्य समेटी हुई हैं, कहीं माना जाता है इस यात्रा की शुरुआत श्रवण कुमार से हुई थी, तो कहीं परशुराम को इसका श्रेय दिया जाता है, कहीं कहीं तो ऐसा भी कहा गया है, इसकी शुरुआत रावण से हुई थी।

कांवड़ यात्रा के दौरान भक्तों की शारीरिक क्षमता की भी परीक्षा होती है। भूख, प्यास और थका देने वाली एक लम्बी यात्रा के बाद भगवान शिव के दर्शन करना भक्तजन के लिए बेशक आसान नहीं होता। शायद यही तो भक्ति है। इसलिए कांवड़ का अर्थ ये भी है कठिनाइयों में भी अडिग रहना।






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