परंपरागत हर्बल ज्ञान को समझना ज़रूरी

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परंपरागत हर्बल ज्ञान को समझना ज़रूरीgaonconnection

सारी दुनिया 7 अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाती है। जब जब स्वास्थ्य की बात हो, औषधि विज्ञान की हर शाखाओं में एक बहस अक्सर होते रहती है कि कौन सा विज्ञान ज्यादा असरकारक और प्रचलित है, आधुनिक औषधि विज्ञान या परंपरागत हर्बल औषधि ज्ञान? 

दरअसल औषधि विज्ञान की इन दोनों शाखाओं में मरीजों को परोसने के लिए बहुत कुछ है। मेरे खयाल से सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कौन से औषधि विज्ञान से मरीज रोगमुक्त हो रहा है। औषधि विज्ञान की इन दोनों शाखाओं में एक महत्वपूर्ण संबंध है, संबंध भी परंपरागत है। सदियों से पौधों को मनुष्य ने अपने रोग निवारण के लिए उपयोग में लाया है और विज्ञान ने समय-समय पर इन पौधों पर शोध करके उसे आधुनिकता का जामा पहनाया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रपट के अनुसार विकासशील देशों के 80 से अधिक फीसदी लोग आज भी प्राकृतिक और हर्बल चिकित्सा से अपने रोगों का निवारण करते है। दुनिया में एक बड़े तबके द्वारा हर्बल औषधियों को अपनाया जाना एक प्रमाण है कि ये दवाएं काफी कारगर हैं। 

अब विकसित देशों में भी हर्बल ज्ञान ने पैर पसारना शुरू कर दिया है, वजह इस ज्ञान पर विज्ञान का ठप्पा लगना शुरू हो गया है। सच्चाई भी यही है कि आधुनिक औषधि विज्ञान को भी दिन-प्रतिदिन नई दवाओं की जरूरत है। आधुनिक औषधि विज्ञान को एक नई दवा को बाजार में लाने में 15 से अधिक साल और करोड़ों रुपयों की लागत लग जाती है। अब विज्ञान की इस शाखा को पारंपरिक हर्बल ज्ञान में आशा की किरण नज़र आ रही है। जहां अनेक वर्तमान औषधियों के प्रति रोगकारकों या वाहकों (सूक्ष्मजीवों/ कीट) में प्रतिरोध विकसित हो चुका है तो वहीं दूसरी तरफ निश्चित ही आधुनिक विज्ञान को इन सूक्ष्मजीवों/ कीटों के खात्मे के लिए नयी दवाओं की आवश्यकता है और ये आवश्यकता पूर्ति 15 साल तक के लंबे इंतजार के बाद पूरी हो तो विज्ञान के लिए शर्मिंदगी की बात है और ऐसी स्थिति में पारंपरिक हर्बल ज्ञान एक नयी दिशा और सोच को जन्म देने में कारगर साबित हो सकता है। ना सिर्फ वैज्ञानिकों में नयी कारगर दवाओं को लेकर खोज की प्रतिस्पर्धा है बल्कि अनेक फार्मा कंपनियों में भी होड़ लगी है कि कितने जल्दी नयी कारगर दवाओं को बाजार में लाया जाए। 

आधुनिक औषधि विज्ञान के इतिहास पर नजर डालें तो समझ पड़ता है कि धीमे-धीमे ही सही लेकिन इसने पारंपरिक हर्बल ज्ञान को तवज्जो जरूर दी है। सिनकोना की छाल से प्राप्त होने वाले क्वीनोन की बात की जाए या आर्टिमिशिया नामक पौधे से प्राप्त रसायन आर्टिमिसिन की, दवाओं की प्राथमिक जानकारी आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान से ही मिली। इन दोनों दवाओं को मलेरिया के उपचार के लिए सबसे बेहतर माना गया है। साल 1980 तक बाजार में सिर्फ सिनकोना पौधे से प्राप्त रसायन क्वीनोन की बिक्री होती थी, मलेरिया रोग के उपचार में कारगर इस दवा का वर्चस्व बाजार में काफी समय तक रहा लेकिन चीन में हर्बल जानकारों ने सदियों से इस्तेमाल में लाने वाले आर्टिमिसिया पौधे की जानकारी जैसे ही आधुनिक विज्ञान को मिली, फटाफट इस पौधे से आर्टिमिसिन रसायन को प्राप्त किया गया और झट बाजार में क्वीनोन के अलावा आर्टिमिसिन भी उपलब्ध हो गयी। 

सन 2004 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी आर्टिमिसिन को दुनियाभर में उपचार में लाने की स्वीकृति दे दी। सदियों से अपनाए जाने वाले इस नुस्खे को बाजार में आने और आम चिकित्सकों द्वारा अपनाए जाने में देरी की वजह सिर्फ यही रही कि आधुनिक विज्ञान के तथाकथित पैरवी करने वालों ने इस पर इतना भरोसा नहीं जताया। यदि चीन के पारंपरिक हर्बल जानकारों से मिलकर इस दवा के प्रभावों की प्रामाणिकता पर खुलकर बात होती, भरोसे की नींव मजबूत होती तो शायद इतना वक्त ना लगता। क्वीनोन और आर्टिमिसिन बाजार में पूरी तरह से आ पाती, उससे पहले ही खबरें आने लगीं कि अफ्रीकन मच्छरों ने दोनों दवाओं के प्रति प्रतिरोधकता विकसित कर ली है, यानि मच्छरों पर इनका खासा असर होना बंद हो चुका है। अब चूँकि एक सफलता हाथ आयी, भले ही कम समय के लिए, लेकिन विज्ञान भी पारंपरिक हर्बल ज्ञान का लोहा मान बैठा। आज आधुनिक विज्ञान की मदद से पारंपरिक हर्बल ज्ञान को पहचान मिलना शुरू हो रही है लेकिन आज भी अनेक लोगों के बीच हर्बल ज्ञान को लेकर भरोसे की कमी है। हालाँकि इस भरोसे की कमी के पीछे अनेक तथ्य हैं, जिनमें हर्बल दवाओं की शुद्दता, मानक माप-दंड, नकली दवाओं का बाजार में पसारा हुआ पाँव, बगैर शोध और परीक्षण हुए दवाओं का बाजारीकरण प्रमुख हैं। जिन पर चर्चा किसी और लेख में की जाएगी। फिलहाल जानते हैं कुछ ऐसे आधुनिक औषधियों के बारे में जिनका स्रोत आदिवासी या पारंपरिक हर्बल ज्ञान रहा है।

वैसे तो सैकड़ों ऐसे रसायन हैं जिन्हें पौधों से प्राप्त किया गया है और जो आज भी आधुनिक औषधियों के नाम से जाने जाते हैं और मजे की बात ये भी है कि बहुत ही कम लोग हैं जानते हैं कि ये सभी किसी ना किसी देश के आदिवासियों या पारंपरिक हर्बल ज्ञान पर आधारित हैं लेकिन सभी रसायनों का जिक्र इस लेख में करना संभव नहीं।

आज भी पारंपरिक हर्बल ज्ञान को दकियानूसी और बकवास मानने वालों की कमी नहीं है। ये बात मेरी समझ से परे है कि यदि परंपरागत हर्बल ज्ञान इतना बेअसर, गैर-वैज्ञानिक और खतरनाक है तो फिर आधुनिक विज्ञान को अपनी दुकान बंद कर देनी चाहिए क्योंकि आधे से ज्यादा आधुनिक औषधियों को पौधे से प्राप्त किया जा रहा है। पौधों के असरकारक गुणों और आदिवासियों के सटीक ज्ञान को समझे बिना कोई इसे प्राचीन या खतरनाक कह दे तो सिवाय मुस्कुराहट के मेरे चेहरे पर आपको कुछ और नहीं दिखेगा। जब बात हमारे बेहतर स्वास्थ्य की है तो हमें अपने विचारों के दायरों से बाहर आकर सोचना होगा, जो सच है उसे अपनाने में हिचक नहीं होनी चाहिए। बस रोगी निरोगी बनें, हर दिन बेहतर स्वास्थ्य का दिन हो, सिर्फ 7 अप्रैल ही क्यों?

(लेखक हर्बल जानकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

 

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