परंपरागत हर्बल ज्ञान में दम

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परंपरागत हर्बल ज्ञान में दमgaonconnection

आदिवासी हर्बल जानकारों के अनुसार दुनिया में कोई भी ऐसी जड़ी-बूटी नहीं है जो काम की नहीं है। हर एक पेड़-पौधे के अपने औषधीय महत्व हैं। मजे की बात यह भी है कि आदिवासियों के अनुसार हर मर्ज का इलाज रोगी के निवास स्थान से 20 किमी के दायरे में ही है, बशर्ते हमें उनकी जानकारी हो। अब वक्त आ चुका है जब हम हमारे देश की अनमोल विरासत, हमारे पेड़-पौधों और आदिवासियों के हर्बल ज्ञान को सम्मान दिलाने के लिए हम सब मिलकर सजग पहल करें ताकि बाजार से जानलेवा संश्लेषित दवाएं सफाचट्ट हो जाए। आधुनिक विज्ञान में डॉक्टरेट और पोस्ट डॉक्टरेट जैसी तथाकथित डिग्रियां लेकर, पिछ्ले 15 वर्षों से अधिक समय से आदिवासियों के बीच काम करते हुए इतना तो जान चुका हूं कि “दम तो इसी ज्ञान में है” और आने वाला दौर हमारे देसी ज्ञान हर्बल का ही है। आप यकीन नहीं कर सकते तो कम से कम इंतजार जरूर करते रहिए, बहुत जल्द ही आपको यकीन आ जाएगा। 

दरअसल वर्तमान दौर पारंपरिक हर्बल ज्ञान की दृष्टि से चुनौतियों भरा है, ये चुनौतियां अलग-अलग तरह की हैं जिस वजह से चीन की तरह हमारा देश पारंपरिक ज्ञान को लेकर अग्रक्रम में नहीं हैं। चीन में ट्रेडिशनल मेडिसिन्स यानी पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक ज्ञान के समतुल्य रखा गया है क्योंकि वहां इस ज्ञान को आधुनिक विज्ञान ने समझने की कोशिश की है जबकि हमारे देश में आज भी पारंपरिक चिकित्सा पद्धितियों को शंका की नज़रों से देखा जाता है। जरा नज़र डालते हैं कुछ खास चुनौतियों पर।

आदिवासी हर्बल जानकार अपने परंपरागत ज्ञान को लिखित रूप में नहीं रखते हैं। ये ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी शब्दों के जरिए मुंह से संचारित और संचालित हुआ है लेकिन दुर्भाग्य से आदिवासियों की नयी पीढ़ी इस ज्ञान को सीखने के लिए इतनी उत्साहित नहीं है। आदिवासियों का ज्ञान अब तक बिखरा हुआ सा है, कोई हर्बल जानकार महिलाओं के रोगों के निवारण के लिए बेहतर माना जाता है तो कोई किडनी संबंधित समस्याओं के लिए। हर एक रोग के एक्सपर्ट हर्बल जानकार के रूप में भगत या भुमका अलग-अलग दूरस्थ गाँव में बसे हुए हैं। यदि हर्बल जानकारों को मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल की तर्ज पर एक ही मंच पर लाया जाए तो इस तरह के चिकित्सालय को प्रचार-प्रसार भी मिलेगा। गुजरात सरकार और अभुमका हर्बल (सोशल इंटरप्राइज़) के प्रयासों से डाँग जिले में डाँग जिला सहकारी आयुर्वेदिक फार्मेसी और भगत मंडली आदि का बनना, एक सराहनीय कदम है।

आदिवासियों के हर्बल ज्ञान का संकलन समय रहते करना अत्यंत आवश्यक है ताकि इस ज्ञान को एक धरोहर बनाकर संजोया जा सके। अब तक इस ज्ञान का जितना भी संकलन तमाम विभागों, विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों ने किया, पूर्ण रूप से अनियंत्रित प्रकार का रहा है। अब तक जितना भी संकलन का कार्य किया गया, कागजों में सिमट कर रह गया जबकि प्रयास ये किए जाने चाहिए थे कि इस संकलित ज्ञान के फायदे को आम लोगों तक पहुंचाया जाए। बौद्धिक संपदा अधिकारों को ध्यान में रखते हुए इस ज्ञान के बाजारीकरण पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, जबकि पारंपरिक ज्ञान का प्रचार प्रसार तब ही होगा, जब कि इस ज्ञान को घर-घर तक पहुंचाने की व्यवस्था हो।

आदिवासियों के हर्बल ज्ञान पर आधारित उत्पादों का बाज़ारीकरण करना, आदिवासियों को इस बाज़ारीकरण की प्रक्रिया में हिस्सेदारी देना और उत्पादों की जरूरत के हिसाब से कच्चे माल (जड़ी-बूटियों) की खेती के लिए आदिवासी खेतीहरों को प्रोत्साहित करना आदि बड़ी चुनौतियां हैं। आदिवासियों की आर्थिक विकास प्रक्रिया में हर्बल मेडिसिन्स एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं बशर्तें इस पर सकारात्मक सोच के साथ पहल की जाए और इस विज्ञान से जुड़ी तमाम शाखाओं के विद्वानों को तर्क वितर्कों के साथ आमंत्रित कर इस पर सकारात्मक पहल होनी आवाश्यक है।

आज भी हर्बल दवाओं या नुस्खों पर आम लोगों के भरोसे की कमी है और इसके लिए हर्बल दवाएं या जानकार दोषी नहीं ठहराए जा सकते किंतु दवा निर्माताओं के दावों के अनुसार दवाओं का खरा नहीं उतरना बहुत से कारकों पर निर्भर है। अल्प ज्ञान और झोलाछाप अनुभवों के आधार पर दवाएं बाजार में लाई जाएं और दवाओं का असर नहीं होने पर हम सीधे या तो आयुर्वेद को दोषी ठहराते हैं या देसी ज्ञान को कोसने से बाज़ नहीं आते। नकली माल, नकली जड़ी-बूटियां, घटिया स्तर का हर्बल माल-सामान और बगैर वैज्ञानिक प्रमाणों और तथ्यों के आधार पर जब दवाएं बनायी जाती हैं, तो ज़ायज सी बात है, असर दिखाई नहीं देता है। उत्तम जड़ी-बूटियां, क्लीनिकल प्रमाण, सही मात्रा और सही संयोजन से बनी दवाएं संश्लेषित दवाओं की तरह असर करती हैं।

विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों ने आदिवासी अंचलों में शोध के नाम पर आदिवासियों के ज्ञान का बेजा दोहन किया जाता है। ये लोग शोध पत्र प्रकाशित कर अपना बायोडेटा तगड़ा जरूर कर लेते हैं लेकिन मज़ाल है कि कभी आदिवासियों से मिले ज्ञान को कहीं भी सम्मान दिलाने की सोच रखते हों। इस ज्ञान को ना सिर्फ बौद्धिक संपदा अधिकारों के तहत सम्मान दिलाना जरूरी है अपितु हर्बल जानकारों को किस तरह आर्थिक मजबूती दिलाई जाए, इस पर सोचना भी नितांत आवश्यक है।

 (लेखक हर्बल विषयों के जानकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

 

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