बिहार: मिड डे मील के अभाव में रोटी-प्याज़ और भात-अचार खाकर जीने को मज़बूर मुसहर बच्चे

COVID-19 के कारण मार्च के मध्य से ही देश भर में स्कूल बंद हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को यह निर्देश दिया था कि वे बच्चों को मध्यान्ह भोजन सुनिश्चित करें। गाँव कनेक्शन ने बिहार के गया में इसकी पड़ताल की और पाया कि बच्चे केवल रोटी-प्याज, चावल-अचार या माड़-भात खा रहे हैं।

Rohin KumarRohin Kumar   20 July 2020 12:44 PM GMT

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बिहार: मिड डे मील के अभाव में रोटी-प्याज़ और भात-अचार खाकर जीने को मज़बूर मुसहर बच्चे

गया, बिहार। बेलागंज के केंदुई गांव के भुई टोला में तीन से 10 साल की उम्र के बीच के बच्चों का एक समूह आपस में खेल रहा है। अपने इलाके में दुपहिया वाहन आते देख यह समूह खुशी से दौड़ पड़ता है। कुछ मीटर की दूरी पर एक बच्ची लकड़ी की गठरी पर बैठी हुई है, जिसके हाथ में एक रोटी और आधा कटा प्याज है।

पिछले कुछ महीनों से बिहार के गया ज़िले में दलितों की श्रेणी में सबसे नीचे और हाशिए पर रहने वाली इस महादलितों के घरों में बच्चों को सिर्फ रोटी और प्याज नसीब है।

इस महादलित बस्ती में जीवन कभी आसान नहीं रहा है। लेकिन कोरोना महामारी और लॉकडाउन के दौरान इनकी मुश्किलें कई गुना बढ़ गई हैं। स्कूल चार महीने से बंद हैं। व्यस्कों को आय का कोई स्त्रोत नहीं है। बच्चे सबसे ज्यादा कमजोर हैं।

इन बच्चों में अधिकांश के लिए, स्कूलों में दिए जाने वाले मिड-डे-मील (मध्याह्न भोजन) उनका पहला या संभवत: उनके पूरे दिन का भोजन होता था। स्कूलों के बंद होने से उनके भोजन का बोझ भी गरीब परिवारों पर आ गया है।

विगत 18 मार्च को, कोरोना महामारी के कारण मिड-डे-मील बंद होने पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसका स्वत: संज्ञान लिया गया। न्यायालय ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को नोटिस जारी करते हुए जवाब मांगा कि वे बताएं कि स्कूल और आंगनवाड़ी केंद्रों के बंद होने पर बच्चों और माताओं को पोषाहार कैसे पहुंचेगा।

जवाब में कई राज्यों ने बच्चों और गर्भवती महिलाओं को सूखे राशन के रूप में भोजन देना शुरू किया। लेकिन बिहार में पूरे लॉकडाउन के दौरान बच्चों को मिड-डे-मील नहीं मिलने की ख़बरें आती रहीं। मई में, राज्य सरकार द्वारा निर्देश दिया गया कि वे लोगों को क्वारंटाइन सेंटर में खाना खिलाने के लिए मिड-डे-मील के तहत मिल रहे अनाजों का उपयोग करें। इस बीच बच्चों को भूखे छोड़ दिया गया।

बिहार में बच्चों की पोषण की स्थिति पहले ही सबसे खराब है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)-4, (2015-16) के अनुसार यहां 5 साल से कम उम्र के करीब 48.3 फीसदी बच्चे शरीरिक रूप से कुपोषित हैं। इसमें 43 फीसदी से अधिक उम्र के अनुसार कम वजन के हैं जबकि 20.8 फीसदी का वजन उनकी लंबाई की तुलना में कम है।

ऐसी स्थिति में, बच्चों को उनके मध्याह्न भोजन से वंचित करना लापरवाही से कम नहीं है।


भुई टोला के रहने वाले गुड्डु मांझी गांव कनेक्शन से कहते हैं, "दाना-दाना के लिए मोहताज हैं। जो चीज़ मिल जाता है उसको तनी-मनी (थोड़ा-सा) खा लेते हैं।" 13 लोगों के परिवार में उनके स्कूल जाने वाले दो बच्चे हैं, जिनकी उम्र 10 और 12 साल है। दोनों को मिड-डे-मील नहीं मिल रहा है।

पागो देवी अपने सात साल के बच्चे की इशारा करते हुए बताती हैं कि स्कूल में खाना मिलने से कम से कम इसका खाना तो ठीक ढंग से हो जाता था। अब वह भी बंद हो गया। वह आगे कहती हैं, " अब दाल-भात साथ बन गया, वही बहुत है।"

बिहार में 'मध्याह्न भोजन कार्यक्रम' घर पर भोजन के पूरक के रूप में नहीं बल्कि यह एक विकल्प के रूप में स्थापित हुआ है। इस कारण सरकारी स्कूलों में बच्चों के नामांकन और उपस्थिति में वृद्धि दर्ज की गई है।

राज्य के सरकारी स्कूलों में मध्याह्न भोजन कार्यकर्म के अंतर्गत साप्ताहिक व्यंजन सूची में चावल, मिश्रित दाल, हरी सब्जियों के साथ पुलाव, छोले और अंडे तक शामिल हैं। स्कूलों के बंद होने के कारण, बच्चे अपने मिड-डे-मील को बस याद कर पाते हैं।

भुई टोला युवा लड़का दीपक गांव कनेक्शन से कहता है, "मुझे छोला-पुलाव सबसे अच्छा लगता था।" उसकी बात को बीच में रोकते हुए उसका दोस्त पूछता है कि, "अंडवा (अंडा) अच्छा नहीं लगता था क्या?" दीपक फिर जवाब देता है, "हां, अंडवा भी अच्छा लगता था।"

अंतिम बार अच्छे खाने के बारे में पूछने पर एक बच्चा 'पचौनी(बकरी का आंत)' कह उठ खड़ा होता है।

अब, इन हाशिए के परिवार के बच्चों के जीवन से पुलाव-छोला और अंडे गायब हो गए हैं। पिछले चार महीनों से इनका दैनिक भोजन भात-आचार (चावल-आचार), माड़-भात और रोटी-प्याज तक सीमित रह गया है।


इस मसले पर सत्यम वर्मा, जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के अंतर्गत 'शारीरिक शिक्षा' का अध्ययन कर रहे हैं, गांव कनेक्शन से बताते हैं कि, "राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद द्वारा निर्धारित मापदंड के अनुसार तीन से 10 साल के बीच के बच्चों के पोषण के लिए रोज़ाना 1,060 से 2190 किलोकैलोरी की जरूरत होती है।"

वह आगे कहते हैं, "मिड-डे-मील योजना, जिसकी प्रशंसा होती रही है वो पहले से ही दैनिक पोषण की जरूरतों को पूरी नहीं करती है। अगर यह भी बच्चों तक नहीं पहुंच रहा है तो न यह केवल उनके शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करेगा, बल्कि एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट पैदा करेगा।"

4.48 रुपए में पौष्टिक भोजन?

हाल ही में, एक समाचार रिपोर्ट पर बवाल होने के बाद, बिहार सरकार ने मिड-डे-मील के एवज में बच्चों के लिए तीन महीने का राशन और डीबीटी (डायरेक्ट बैंक ट्रांसफर) के माध्यम से उनके या उनके अभिभावक के बैंक खाते में कुछ राशि देने का राज्यव्यापी आदेश जारी किया गया। आदेश के अनुसार, कक्षा 1 से 5 के बच्चों को प्रतिदिन 100 ग्राम के हिसाब से 8 किलोग्राम अनाज और 358 रुपए कुंकिंग कॉस्ट के रूप में दी जाएगी। इसी तरह, कक्षा 6-8 के लिए प्रतिदिन 150 ग्राम के हिसाब से 12 किलो अनाज के साथ 526 रुपए दिए जाएंगे। यह कुल 80 दिन का हिसाब है।

इन आंकड़ों पर बारीक नज़र डालें तो पता चलता है कि कक्षा 1 से 5 तक दिए जाने वाले 358 रुपए की राशि रोजाना प्रति भोजन के हिसाब से मात्र 4.48 रुपए पड़ता है। इसी तरह कक्षा 6 से 8 के बच्चों के लिए 6.70 रुपए प्रति भोजन है और कुल 80 दिन का गणना राज्य सरकार ने मई के 24 कार्य दिवस, जून की 30 गर्मी की छुट्टियों और जुलाई के 26 दिनों के कार्यदिवस को मिलाकर किया है।

इससे पहले, 4 मई को सुबे के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने मीडिया को बताया कि मिड डे मील की 378 करोड़ राशि, सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले 1.29 करोड़ बच्चों के खाते में भेजी गई है। वह बताते हैं, "14 मार्च और 3 मई के बीच 34 कार्य दिवसों के लिए, अनाज, दूध, फल और अंडे की लागत के साथ-साथ खाना पकाने के खर्चों को ध्यान में रखते हुए कुल राशि का वितरण किया गया है।"

बोधगया में राजकीय मध्य कन्या विद्यालय में शिक्षक प्रभावती रानी गांव कनेक्शन को बताती हैं कि मई तक की राशि लाभार्थियों के खाते में स्थानांतरित हो गया है। नए आदेशों के बारे में हमने सुना है जिसमें और स्पष्टता की हम प्रतिक्षा कर रहे हैं।

हालांकि, बोधगया के मस्तीपुर गांव में हरिजन टोला में परिवारों ने कोई पैसा मिलने से इनकार किया है। केंदुई के भुई टोला में कुछ परिवारों ने दावा किया कि उन्हें स्कूल पोशाक के लिए कुछ पैसे तो मिले हैं, लेकिन मिड-डे-मील के लिए कुछ नहीं।

जिला शिक्षा अधिकारी मोहम्मद मुस्तफा हुसैन ने गांव कनेक्शन से कहा, '' मिड-डे-मील के बदले डीबीटी को मई तक क्रियान्वित किया जा चुका है।" यह पूछे जाने पर कि क्या बड़े बच्चों की पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए 5-7 रुपये का भोजन पर्याप्त है। उन्होंने अपनी लाचारी व्यक्त करते हुए कहा,"मैं इस पर टिप्पणी नहीं कर सकता। यह एक सरकारी आदेश है और राज्य भर में हो रहा है, इसलिए हम आदेशों का पालन कर रहे हैं।"

नीलम सिन्हा जो केंदुई राजकीय मध्य विद्यालय की प्रधानाध्यापिका हैं, कहती हैं, "निश्चित ही यह राशि अपर्याप्त है, लेकिन हम असहाय हैं।" वह आगे कहती हैं, " चूंकि सरकार ने छात्रों के लिए खाद्यान वितरण के लिए नया आदेश पारित किया है हम जल्दी ही कोरोना महामारी के दिशानिर्देशों को ध्यान में रखकर यह काम शुरू करेंगे।"

विशेषज्ञों ने इस भोजन गणना शैली को 'गणित की नौकरशाही शैली' कहा है। सार्वजनिक नीति, पोषण और सार्वजनिक स्वास्थ्य की विशेषज्ञ दीपा सिंहा, जो बी. आर. अंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में 'स्कूल ऑफ लिबरल स्टडीज' की सहायक प्रोफेसर हैं, कहती हैं, "डीबीटी की अल्प राशि बेतुकी है जो मिड-डे मील योजना के बुनियादी सूक्ष्म अर्थशास्त्र को पहचानने में विफल है। जब भोजन 200 बच्चों के लिए तैयार किया जाता है, तो प्रति व्यक्ति लागत आमतौर पर न्यूनतम होगी। लेकिन जब इसके लिए मुआवजा प्रदान किया जा रहा है, तो सरकार 4.48 रुपये या प्रति दिन 6.70 रुपये में भोजन की उम्मीद कैसे कर सकती है?"

सिन्हा गांव कनेक्शन को बताती हैं, "बिहार को केरल, कर्नाटक और यहां तक कि महाराष्ट्र जैसे राज्यों से सीखने की जरूरत है कि इस मुश्किल समय में भी मिड-डे-मील स्कीम को बच्चों के लाभ के लिए कैसे इस्तेमाल करना चाहिए।"

"इसके अलावा, बिहार सरकार का अनाज के वितरण से संबंधित वर्तमान आदेश स्पष्ट नहीं है। उन्हें समझना चाहिए कि खाद्यान्न अकेले काम नहीं करेगा। प्रत्येक बच्चे को एक उचित राशन किट प्रदान की जानी चाहिए।"


लॉकडाउन के पहले कोई मिड-डे-मिल नहीं

तालाबंदी लागू होने से पहले ही बिहार में बच्चों को मध्याह्न भोजन नहीं मिल रहा था। फरवरी के मध्य में, राज्य के 4.5 लाख संविदा शिक्षक हड़ताल पर चले गए, जिसके कारण छात्रों को नुकसान उठाना पड़ा। बोधगया के मस्तीपुर में हरिजन टोला के माता-पिता ने बताया कि स्कूल बंद होने से पहले मध्याह्न भोजन नहीं मिल रहा था।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, शिक्षक 'समान काम के लिए समान वेतन' की मांग कर रहे थे जिसके परिणामस्वरूप राज्य के 75,000 सरकारी स्कूलों में 45,000 स्कूलों में मिड-डे-मील को उस समय ही बंद कर दिया गया था। मिड-डे-मील का सरकारी स्कूलों में प्रबंधन के लिए लगभग 73,000 सरकारी अनुबंध शिक्षक जिम्मेवार हैं। इसका असर छात्रों की उपस्थिति में भी देखने को मिला, जिसमें 50 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई।

सत्यम वर्मा इस बात की गंभीरता को बताते हैं, "यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार शुरुआती जीवन में कुपोषित होने से मस्तिष्क के विकास, स्कूली शिक्षा में 0.7 प्रतिशत ग्रेड की हानि, स्कूल शुरू होने में सात महीने की देरी और जीवन भर की कमाई में लगभग 22 से 45 फीसदी की कमी होने की संभावना है।"


वर्मा ने चेतावनी देते हुए कहा कि हमारी सरकारों को इस समस्या से बचने के लिए पोषण पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

इस बीच, केंडुई और बोधगया के दोनों टोलों में किशोर लड़कियों के लिए बंद स्कूल और गरीबी ने नई चुनौतियां खोल दी हैं। केंदुई की लखमनिया देवी अपनी 17 साल की बेटी की शादी करना चाहती हैं। वह गांव कनेक्शन से कहती हैं, "उसने अपनी पढ़ाई पूरा कर ली है,और घर का भी काम जानती है। हम इसकी जल्द शादी कर देंगे।" वह आगे कहती हैं कि, वह दूर के रिश्तेदार से बात करती थी जो गुजरात के एक कपड़ा फैक्ट्री में काम करता है।

नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 65 प्रतिशत किशोरियाँ (15 से 18 साल की) स्कूलों बीच में ही छोड़ देती हैं। फिर, वे या तो घरेलू गतिविधियों में लगे रहते हैं या परिवार और समाज से समर्थन की कमी के कारण, सामाजिक और सामुदायिक मानदंडों से प्रभावित होते हैं जो उनकी आर्थिक उन्नति के लिए अवरोध पैदा करते हैं। वर्मा कहते हैं, "यह वही है जो मैं अंतर-संबंधी समस्याओं से मतलब रखता हूं। एक कुपोषित महिला या उसकी प्रजनन आयु की लड़की में छोटे शिशुओं (वजन और ऊंचाई) को जन्म देने की अधिक संभावना होती है, जो आने वाली पीढ़ियों में कुपोषण के चक्र को जारी रखता है।

क्या बिहार सरकार सुन रही है? बिहार में पहले से ही शिशु मृत्यु दर 48 (प्रति 1000 जीवित जन्म लेने वाले बच्चे) है। साथ ही पांच साल तक के बच्चों में मृत्य दर 58 है।

अनुवाद- दीपक कुमार

इस स्टोरी को अंग्रेजी में यहां पढ़ें।

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