अंडर-17 फुटबॉलः विश्वकप खेलने की दावेदारों को लॉकडाउन में पड़े खाने के लाले

इस साल भारत की अंडर-17 फुटबॉल टीम टर्की, भूटान में मैच खेलने गई। इसके बाद गोवा में फिर कैंप लगा और फिर मार्च के शुरूआत में खिलाड़ी वापस अपने घर लौट आईं, फिर लॉकडाउन शुरू हो गया। इसके साथ ही इन खिलाड़ियों के जीवन जीने की जद्दोहहद भी।

Anand DuttaAnand Dutta   3 Jun 2020 8:07 AM GMT

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क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई खिलाड़ी जो देश का प्रतिनिधित्व कर रहा या रही हो, या फिर करने की कतार में हो, वह केवल चावल और दाल खाकर बीते दो महीने से जीवन गुजार रहा है? वह भी पीडीएस डीलर से मिला चावल। डरने की बात नहीं है, क्रिकेट में ऐसा नहीं हुआ है। यह हुआ है फुटबॉल में।

भारत में पहली बार फीफा अंडर-17 महिला फुटबॉल विश्व कप होने जा रहा है। ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन के मुताबिक प्रतियोगिता अगले साल फरवरी में होनी है। पहले यह नवंबर, 2020 में होनी थी। प्रतियोगिता के मद्देनजर भारतीय टीम में चयन के लिए महिला खिलाड़ियों का कैंप पिछले एक साल से गोवा में लगाया जा रहा है। फिलहाल इसमें सबसे अधिक झारखंड की आठ खिलाड़ी शामिल हैं।

इस साल फुटबॉल टीम टर्की, भूटान में मैच खेलने गई। इसके बाद गोवा में फिर कैंप लगा और फिर मार्च के शुरूआत में खिलाड़ी वापस अपने घर लौट आईं, फिर लॉकडाउन शुरू हो गया। इसके साथ ही इन खिलाड़ियों के जीवन जीने की जद्दोहहद भी। नेशनल फुटबॉल चैंपियनशिप में सबसे अधिक 17 गोल करनेवाली झारखंड की सुमति कुमारी (फॉरवर्ड) रांची से 110 किलोमीटर दूर गुमला जिले में कभी चावल दाल तो कभी सब्जी चावल खाकर रह रही है। पिता खेती-मजदूरी करते हैं। भाई भी इसी काम में लगा रहता है। सुमति दोनों समय का खाना बनाती है। एक सप्ताह पहले उसे झारखंड सरकार की ओर से 50 किलो चावल (मात्र) मिला है। इससे पहले घर में पहले से जमा थोड़ा-बहुत चावल से किसी तरह गुजारा चल रहा था।

लगातार अभ्यास न कर पाने और अभ्यास न होने की स्थिति में टीम में अपने स्थान को लेकर सुमति के चेहरे पर उदासी साफ दिख रही है। उदासी कितना लाजिमी है उसको इस घटना से समझिये। बीते साल सितंबर में भूटान में देश के लिए खेल रही थी। उसी वक्त उसकी मां का निधन हो गया। वह लौटी नहीं, खेलती रही। इस बीच वह हांगकांग, भूटान और टर्की भी खेलने गई। वह विश्वकप खेलकर मां को श्रद्धांजलि देना चाहती हैं।

घर के पास ही अभ्यास करती सुमति कुमारी

वह बताती है उसके कोच एलेक्स एंब्रोज (टीम के सहायक कोच) ने फोन पर पूछा था कि कैसे रहती हो, बताने पर उन्होंने अपने स्तर से पांच हजार रुपया भेजा। लेकिन लॉकडाउन की वजह से ताकत के लिए कुछ भी खाने का सामान खरीद नहीं पाई है। जबकि कैंप में सभी खिलाड़ियों को सुबह नाश्ते में दूध, अंडा, केला ब्रेड, दलिया आदि मिलता था। दोपहर के भोजन में चावल, दाल, रोटी, सलाद, हरी सब्जी, चिकेन और मछली मिलता था। रात के खाने में चिकेन या मटन, रोटी, हरी सब्जी मिलती थी। नॉनवेज नहीं खाने वालों के लिए दूध की व्यवस्था थी।

गुमला की ही सुधा अंकिता तिर्की (डिफेंडर) को पेट भरने के लिए गांव के लोगों से मदद मांगनी पड़ी। किसी के एक किलो चावल तो किसी से दाल ले रही है। पिता की मौत हो चुकी है। मां घरों में काम कर बेटी के सपनों को पूरा करने में लगी है। राशन कार्ड के लिए आवेदन दिया था, लेकिन बना नहीं है। अप्रैल माह में 10 किलो चावल मिला, लेकिन उसके बाद वह भी नहीं। स्थानीय अखबार में बीते 26 मई को खबर छपने के बाद सीएम हेमंत सोरेन ने संज्ञान लिया। उन्होंने जिला प्रशासन से मदद पहुंचाने का आदेश दिया। इसके बाद अगले दिन उसके घर राशन मुहैया कराया गया।

मजदूरी कर बड़ी बहन छोटी बहन को बना रही फुटबॉलर

रांची से 170 किलोमीटर दूर सिमडेगा जिले के जामबहार की रहनेवाली पूर्णिमा कुमारी (डिफेंडर) के पिता काफी बुजुर्ग हैं, मां का निधन बचपन में ही हो चुका है। पिता को सीने से संबंधित बीमारी भी है। बड़ी बहन मजदूरी कर घर चलाती है। लॉकडाउन में केवल चावल और दाल का इंतजाम हो पाया है। घर में राशन कार्ड है, सो चावल का इंतजाम हो पाया।

पूर्णिमा भी कैंप में शामिल है। टीम में शामिल होने की संभावना प्रबल है। वह कहती है, "सबसे ज्यादा दिक्कत हजारीबाग स्थित बोर्डिंग सेंटर से घर लौटने और फिर यहां से जाने में होती है, क्योंकि इसमें 500 रुपया खर्च हो जाता है। दीदी कर्ज लेकर देती है। फिलहाल दीदी को भी काम नहीं मिल पा रहा। घर आने पर पिताजी पूछते भी हैं कि क्या खाना है, लेकिन मैं कभी कुछ नहीं कहती। वह खुद बीमार हैं, लेकिन मेरे खेल की वजह से इलाज नहीं कराते हैं। ताकि मुझे पैसे की कमी न हो जाए।''

पूर्णिमा के पिताजी

सीएम हेमंत सोरेन ने सिमडेगा जिलाधिकारी से भी कहा था कि उनके इलाके में ऐसी सूचनाएं आ रही है। खिलाड़ियों को मदद पहुंचाए। जवाब में जिलाधिकारी ने कहा कि उनके जिले में सभी खिलाड़ियों को घर राशन पहुंचा दिया है। पूर्णिमा की यह स्थिति जिलाधिकारी के सीएम को दिए इस जवाब के बाद की है।

गुमला की अष्टम उरांव (मिडफिल्डर) का परिवार भी राशन कार्ड पर निर्भर है। माता-पिता दोनों ही मजदूर हैं। फिलहाल काम मिल नहीं रहा है। चार बहन और एक भाई के इस परिवार में सभी को किसी तरह भात-दाल मिल पा रहा है।

रांची की अमीषा बाखला (मिडफिल्डर) के पिता गार्ड की नौकरी करते हैं और मां होमगार्ड हैं। परिवार में छह लोग हैं। यही वजह है कि आमदनी का अधिकतर हिस्सा घर के किराए आदि में ही खर्च हो जाता है। सुनीता मुंडा माता-पिता खेती करते हैं। चार भाई-बहनों के परिवार का खर्च इसी से चलता है। वहीं नीतू लिंडा (मिडफिल्डर) के भाई मजदूरी करते हैं। राशन कार्ड के जरिए चावल मिल जा रहा है।

गुमला की सलीना कुमारी के परिवार में चार लोग हैं। राशन कार्ड से मिलने वाले अनाज से ही घर चल रहा है। पिता मजदूरी का काम करने बाहर जाते हैं। उन्हें बड़ी बेटी की शादी करनी है। परिवार हर खर्च में कटौती कर रहा है।

इसी सिलसिले में जब मणिपुर, बंगाल, ओडिशा के इन्हीं ग्रुप के खिलाड़ियों से बात करने की कोशिश की तो सबने साफ मना कर दिया। खिलाड़ियों के अभिभावकों ने कहा कि जब तक मैच नहीं हो जाता, वह मीडिया से बात नहीं करेंगी। उनके कैरियर का सवाल है।

AIFF ने पहुंचाई मदद, निश्चिंत रहा झारखंड खेल विभाग

ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) के सूत्र ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि खिलाड़ी जब तक कैंप में रहते हैं तब तक की सारी जिम्मेवारी फेडरेशन की होती है। लेकिन जब वो कैंप से बाहर होते हैं तब अपने राज्य या स्टेट फुटबॉल फेडरेशन की होती है। जहां तक इन खिलाड़ियों का परेशानी का सवाल है, फेडरेशन की तरफ से इन्हें कुछ आर्थिक मदद पहुंचाई गई है। साथ ही राज्य सरकारों के साथ संपर्क में भी है कि इन्हें कोई परेशानी न हो।

झारखंड फुटबॉल एसोसिएशन के सचिव गुलाम रब्बानी ने कहा कि, ''हम केवल रांची में रह रहे खिलाड़ियों को मदद पहुंचा पाए। जो लोग रांची से बाहर थे, लॉकडाउन की वजह से उनतक नहीं पहुंच पाए। उनके घर का पता एसोसिएशन के पास नहीं था। जहां तक सरकारी मदद की बात है, तो सरकार के किसी विभाग या किसी अधिकारी ने उनसे इस संबंध में बात नहीं की है।''

झारखंड खेल विभाग के निदेशक अनिल कुमार ने कहा कि, ''जरूरतमंद खिलाड़ियों को मदद पहुंचाई गई है। लेकिन कितने को मदद पहुंचाई गई है, इसकी जानकारी विभाग के पास नहीं हैं। क्योंकि जिला खेल पदाधिकारी अभी आपदा प्रबंधन में लगे हुए हैं। लॉकडाउन के दौरान सभी जिलाधिकारियों को विभाग की ओर से पत्र लिखे गए थे कि अगर कोई खिलाड़ी इस दौरान मदद की मांग करता है तो उसे मदद तत्काल मदद पहुंचाई जाए। हालांकि खिलाड़ियों के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गई थी।''

गरीब घरों की ये लड़किया अपना पूरा समय खेल में देती है। खेल के अलावा कैरियर का कोई दूसरा ऑप्शन इनके पास नहीं होता। ऐसे में सरकारी रवैया और खिलाड़ी के संघर्ष, दोनों के गुत्थमगुत्थी के बीच में खिलाड़ी का भविष्य तय हो रहा होता है।

(आनंद झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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