जब कृषि उत्पादों का आयात नहीं जरूरी, फिर बाहर से मंगाने की क्या है मजबूरी

देश में दाल उगाने वाले किसानों की लागत नहीं निकल पा रही है और सरकार एक बार फिर विदेशों से दाल आयात करने जा रही है, जबकि इस साल बेहतर मानसून में दलहनों के भी अच्छे उत्पादन की संभावना है। दाल हो या तिलहन ऐसा हर मामले में हो रहा है। इस तरह के गैरजरूरी आयात से किसान कमजोर होता है और देश कृषि उत्पादों के मामले में आत्मनिर्भरता की ओर भी नहीं बढ़ पाता।

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जब कृषि उत्पादों का आयात नहीं जरूरी, फिर बाहर से मंगाने की क्या है मजबूरी

अभी हाल ही में नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद का मीडिया में एक बयान आया था जिसमें उन्होंने जिक्र किया था कि खाद्य तेलों का आयात 1990 में 5 प्रतिशत से भी कम था जो कि 2016 में बढ़कर 66 प्रतिशत हो गया। यह बात समझने के लिए बहुत अधिक जानकार होने की जरूरत नहीं है कि भारत में कृषि-वस्तुओं का आयात करना उपभोक्ताओं के हित में नहीं है। लेकिन फिर भी ऐसा होता है और इसके लिए राजनीतिक सरोकार जिम्मेदार हैं। भारतीय सरकार की आयात संस्कृति और कृषि वस्तुओं के बढ़ते आयात, चाहे वह अनाज, दालें, तिलहन हों या प्याज आजकल फैशन बन चुके हैं, जबकि अधिकतर मामलों में इन्हेंं देश से बाहर से मंगाने की जरूरत भी नहीं होती । दरअसल, इन आयातों से सबसे ज्यादा फायदा राजनेताओं और नीति निर्माताओं को ही होता है। यह आयात संस्कृति धीरे-धीरे देश में खेती की जड़ें खोखली कर रही है और भारत जैसी कृषक अर्थव्यवस्था में किसान को कमजोर बना रही है।



मुझे याद आता है कि तिलहनों के क्षेत्र में पहले टेक्नॉलजी मिशन (1986) के लॉन्च के बाद कितने कम समय में भारत खाद्य तेलों के मामले में लगभग आत्मनिर्भर हो गया था। देश में तिलहानों का उत्पादन 70 लाख टन से बढ़ कर लगभग दो गुना यानि 1.4 करोड़ टन हो गया था। इसके लिए बस कुछ सरल कदम ही उठाए गए थे जैसे, तिलहन उत्पादकों को मूल्य प्रोत्साहन, उनके उत्पाद के खरीद की गारंटी और खाद्य तेलों के आयात पर पूर्ण प्रतिबंध। डॉ एमवी राव, पीवी शेनॉय, सैम पित्रोदा और स्वेत क्रांति के जनक वर्गीज कुरियन जैसे दिग्गजों के प्रयासों से देश में पीली क्रांति संभव हो सकी थी, मुझे उनके साथ काम करने का सौभाग्य भी मिला।

लेकिन जैसे ही सत्ता में मौजूद नेताओं के हितों पर चोट हुई चीजें फिर पहले जैसी हो गईँ। डॉ कुरियन ने बफर स्टॉक और दूसरे विवादास्पद मुद्दों पर इस्तीफा दे दिया। इसके बाद खाद्य तेल के आयात पर जो प्रतिबंध लगे थे वे भी धीरे-धीरे शिथिल कर दिए गए। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सरकार भले किसी भी पार्टी की रही हो स्वदेशी आत्मनिर्भरता की जगह तेलों के आयात को वरीयता दी गई।

हमारे राजनेता चुनावों के समय एक ओर तो महात्मा गांधी को याद करते हैं, नमक सत्याग्रह की वर्षगांठ मनाते हैं और दूसरी तरफ गैरजरूरी आयातों को बढ़ावा देकर किसान की ताकत को कमजोर करते हैं। अब समय आ गया है कि देश के अब तक के सबसे सक्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आयात सत्याग्रह का आह्वान करें। अगले पांच साल के लिए कृषि वस्तुओं के आयात पर रोक लगाकर किसानों का भरोसा जीतें। इस प्रकार देश के नवनिर्माण में किसानों की भागीदारी भी सुनिश्चित की जा सकेगी।

जरूरत है तिलहन की सघन खेती के लिए नई कार्ययोजना बनाई जाए और नई संभावनाओं को परखा जाए। उदाहरण के लिए पूर्वी घाट के क्षेत्रों में नाइजर या रामतिल की खेती की जाए, चावल उगाने वाले मुख्य राज्यों में चावल की भूसी से तेल निकाला जाए और सिंचित इलाकों में अनाज-फलियों की खेती बढ़ावा दिया जाए।

(डॉ. एम. एस. बसु आईसीएआर गुजरात के निदेशक रह चुके हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)

यह भी देखें: विदेश से फिर दाल मंगा रही सरकार : आख़िर किसको होगा फायदा ?

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