जमीनी हकीकत: चुनाव आते ही जिंदा होता है कर्ज़ माफ करने का वादा

Devinder SharmaDevinder Sharma   12 Feb 2017 2:56 PM GMT

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जमीनी हकीकत: चुनाव आते ही जिंदा होता है कर्ज़ माफ करने का वादापढ़िए इस हफ्ते देवेन्द्र शर्मा का लेख “ज़मीनी हकीकत”।

हाल ही में एक चुनावी रैली के दौरान जब मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ये वादा करते सुना कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने हमेशा किसानों का साथ दिया है, और आगे भी पार्टी किसानों के साथ ही खड़ी रहेगी, तो मुझे पंजाब के एक किसान हरभजन सिंह की याद आ गई। एक आम किसान हरभजन सिंह ने हाल ही में इकोनोमिक्स टाइम्स से कहा था, ‘कुछ नहीं बदला है। खेती में कोई मुनाफा नहीं है। पूरे साल की मेहनत के बाद बस पेट भरने का ही बंदोबस्त हो पाता है।’

प्रधानमंत्री अकेले नहीं जो ‘अच्छे दिन’ लाने का वादा किसानों से कर रहे हैं। मैंने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को सुना, वो वादा कर रहे थे कि यदि सत्ता में आए तो अगले तीन महीने में छोटे और मंझोले किसानों का कर्ज़ माफ़ कर देंगे। केंद्रीय गृह मंत्री तो एक कदम और आगे निकल गए और उन्होंने किसानों से बिना ब्याज़ कर्ज देने का वादा कर दिया। वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती और कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने भी किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया है। राष्ट्रीय लोकदल के अजीत सिंह ने भी गन्ने के लिए ऊंचे दाम दिलाने के बजाए, किसानों को कर्ज से राहत दिलाने की बात की है।

विधानसभा और लोकसभा के चुनाव ही वो मौके होते हैं जब राजनैतिक पार्टियां और राजनेता चुनावी वादों के रूप में अपनी उदारता का प्रदर्शन करते हैं। चुनाव के समय जब सारे राजनेता किसानों के सामने हाथ जोड़कर खड़े होते हैं तो लगता है कि किसान ही राजा है लेकिन...

अचानक अब हर नेता को वो त्रासदी दिखने लगी है जिसमें किसान लंबे समय से घिरा है। ऐसा हर पांच साल में एक बार होता है जैसे ही चुनावों का बिगुल बजता है। हालांकि, किसानों के साथ खड़े रहने का वादा केवल चुनावी अवधि तक के लिए मान्य है। विधानसभा और लोकसभा के चुनाव ही वो मौके होते हैं जब राजनैतिक पार्टियां और राजनेता चुनावी वादों के रूप में अपनी उदारता का प्रदर्शन करते हैं। चुनाव के समय जब सारे राजनेता किसानों के सामने हाथ जोड़कर खड़े होते हैं तो लगता है कि किसान ही राजा है। हर पार्टी किसानों के उद्धार के लिए काम करने का वादा करती है पर जैसे ही चुनाव खत्म सभी पार्टियां किसानों को छोड़कर जोर-शोर से उद्योगों का भला करने में लग जाती हैं।

मैं कई बार सोचता हूं कि चुनाव के समय जब ये नेता और पार्टी कुछ भी करने को तैयार होते हैं तो किसान इस बात का फायदा क्यों नहीं उठा पाते? वो सरकारों के सामने नज़रअंदाज़ न कर सकने वाला पहाड़ बनकर क्यों नहीं खड़े होते? क्या यह सही नहीं कि किसानों के बिखरे होने के सच की वजह से ही राजनैतिक पार्टियां हमेशा उनका इस्तेमाल कर उन्हें भूल जाती हैं। यह भी सब जानते हैं कि चुनाव के समय एक किसान, किसान बनकर नहीं बल्कि एक जाति या धर्म का प्रतिनिधि बनकर वोट करता है। ऐसे में किसानों की बुरी स्थिति के लिए किसानों को ही क्यों न जिम्मेदार ठहराया जाए?

एक समय जो ‘कुलक लॉबी’ (समृद्ध किसानों का संगठित समूह) मजबूत हुआ करती थी उसे भेदने और बांटने में अब राजनैतिक पार्टियां आसानी से सफल हो जाती हैं। चौधरी चरण सिंह कुलकों के निर्विरोधी नेता थे, जो आमतौर पर बड़े किसनों का प्रतिनिधित्व करते थे। छोटे किसान भी उन्हें सही मानकर उनके पीछे चल पड़ते थे। आगे चलकर जब महिंदर सिंह टिकैत का उदय हुआ-जिन्होंने भारतीय किसान यूनियन का गठन किया- तो चौधरी चरण का आधिपत्य कम हो गया। ये बात जब मैंने कई दशकों पहले इंडियन एक्सप्रेस अखबार में उनके कृषि संवाददाता के तौर पर लिखी थी तो, चौधरी चरण सिंह खासा खुश नहीं थे, और उन्होंने मुझे फोन करके अपनी नाराज़गी भी दर्ज कराई थी।

एक तरह से देखा जाए तो 1980 से 1990 के बीच का दस साल का समय किसान आंदोलन का स्वर्णिम समय था। उसके बाद इस आंदोलन का ढहना शुरू हुआ। तब से आज तक मैं बस भाकयू को कई छोटे क्षेत्रीय संगठनों में टूटता देख रहा हूं, जिनमें से कई संगठनों के मुखिया का सपना एमएलए या एमपी बनने का है।

इस बीच शरद जोशी ने महाराष्ट्र में शेतकरी संगठन का गठन किया, और आगे चलकर टिकैत और जोशी ने हाथ मिला लिया। एक तरह से देखा जाए तो 1980 से 1990 के बीच का दस साल का समय किसान आंदोलन का स्वर्णिम समय था। उसके बाद इस आंदोलन का ढहना शुरू हुआ। तब से आज तक मैं बस भाकयू को कई छोटे क्षेत्रीय संगठनों में टूटता देख रहा हूं, जिनमें से कई संगठनों के मुखिया का सपना एमएलए या एमपी बनने का है। भाकयू से टूटकर अलग हुए कुछ संगठन ये दावा करते हैं कि वो राजनैतिक नहीं हैं लेकिन ये सच किसी से छुपा नहीं है कि राजनैतिक विचारधारा में अंतर के चलते भी संगठन कई गुटों में बटा है। बड़े राजनैतिक दलों ने इस स्थिति का भांपने में कतई देर नहीं की और अपने-अपने दलों में ही ‘किसान संगठन’ की शाखाएं खोल दीं।

किसान अब संगठित ताकत नहीं बचे हैं, न ही वो किसान बनकर वोट करते हैं इसीलिए मैं बार-बार उनकी बुरी हालत के लिए किसानों को ही दोषी ठहराता हूं।

मुझे ये बात बड़ा बेचैन कर देती है कि हर राजनैतिक दल हर बार किसान का कर्ज़ माफ करने का दावा करता रहता है। मुझे नहीं पता कि कितने प्रतिशत किसान इस बात पर भरोसा करते हैं लेकिन ये बात भी सच है कि कर्ज माफ करने का वादा पांच साल पहले 2012 में भी किया गया था। सामाजवादी पार्टी से कोई सवाल नहीं पूछ रहा कि अपने शासनकाल के दौरान वे इसे लागू करने में क्यों फेल हो गए।

इसी तरह पंजाब में शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी की गठबंधन की सरकार ने दस साल तक सत्ता में रहने के बाद किसानों के कर्ज माफ करने का वादा किया है। हालांकि इसी वादे के लिए पंजाब के डिप्टी मुख्यमंत्री सुखवीर सिंह बादल आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पर वोटरों को गुमराह करने का आरोप लगाते रहे हैं, उनके अनुसार राज्य के पास किसानों का कर्ज माफ करने के संसाधन नहीं हैं लेकिन बाद में उन्हीं की पार्टी ने अपने घोषणापत्र में कर्ज माफ करने का वादा किया है।

लखनऊ में आयोजित एक किसान गोष्ठी में शामिल किसान। फोटो प्रतीकात्मक

उत्तर प्रदेश में कुछ हफ्तों पहले ही राजनाथ सिंह ने माना था कि राज्य में किसानों के कर्ज को माफ नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसा करने से, हर राज्य का किसान यही मांग करने लगेगा और इससे वित्तीय ढांचा लड़खड़ा जाएगा लेकिन जैसे ही चुनाव नज़दीक आए बीजेपी ने पल्टी मार दी और किसानों का कर्ज माफ करने का वादा कर दिया। दावें कुछ भी हों, सच यही है कि पंजाब और यूपी दोनों ही राज्यों के पास किसानों का कर्ज माफ करने के संसाधन नहीं हैं। चौकाने वाली बात तो ये है कि किसी भी चुनावी रैली में मुझे आजकल कोई भी बीजेपी का बड़ा नेता किसानों की आय पांच साल में दोगुनी करने का आपना वादा याद दिलाता या उसकी कार्ययोजना बताता नहीं दिखता। शायद राजनैतिक पार्टियों को अब इतना तो समझ आ गया है कि वो अब वोटरों को और बहला नहीं पाएंगे। उन्हें वादे वही करने होंगे जो वो बाद में पूरा कर सकें।

दिवेंदर के लिखे बाकी लेख यहां पढ़े-

http://www.gaonconnection.com/author/82743

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(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)

              

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