कैसे निकलेंगे खिलाड़ी ? यूपी की सरकारी मशीनरी में खेल मानसिकता का ही अभाव

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कैसे निकलेंगे खिलाड़ी ? यूपी की सरकारी मशीनरी में खेल मानसिकता का ही अभावप्रतीकात्मक फोटो

डॉ. एस बी मिश्रा

काफी साल पहले उत्तर प्रदेश में भाजपा की मदद से बसपा सरकार बनी थी और गोमतीनगर में करोड़ों रुपए खर्च करके अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का बढ़िया स्टेडियम और विशाल सत्कार भवन बनवाया था। उसके बाद अगली सरकार केवल बसपा की बनी तो वह स्टेडियम और उससे लगा हुआ गेस्ट हाउस सब तुड़वा दिया। उस सरकार के लिए मानव संसाधन संवारना जरूरी नहीं था और पत्थर तराशना अधिक जरूरी था। जहां से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के क्रिकेट खिलाड़ी निकलते थे वहां अब पथरीला मैदान है। खिलाड़ी कैसे जीतेंगे ओलम्पिक मेडल।

सरकारी अधिकारी भूल जाते हैं कि खेलकूद से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना विकसित होती है, जाति धर्म की दीवारें टूटती हैं और प्रदेश का नाम रोशन होता है। यदि सवर्ण और अवर्ण को एक प्लेटफॉर्म पर लाना है तो स्पोर्ट्स से बेहतर कुछ नहीं है। यही तरीका है सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय काम करने का। हर मुहल्ले और हर गाँव में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि सवर्णों के बच्चे दलितों के साथ खेलें और मानसिक, भावनात्मक एकता बनाएं।

इसके पहले, बैडमिंटन एकेडमी की जमीन को घटाकर लोहिया पार्क का विस्तार करने का प्रयास किया गया था लेकिन उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण वह चला नहीं। इसे प्रान्त का दुर्भाग्य कहा जाएगा कि खेल की नई सुविधाएं जुटाने के बजाय मौजूदा मूलभूत सुविधाओं को भी नष्ट किया जा रहा है। यह खेल भावना के प्रतिकूल तो है ही देशहित के विपरीत भी है।

भारत जैसे विकासशील देश में खेलों की मूलभूत सुविधाएं कठिनाई से बनती हैं। तमाम आलोचनाओं के बावजूद 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों के समय दिल्ली में एक खेल ग्राम और पांच नए स्टेडियम बने थे। इसी प्रकार आसाम में राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता आयोजित की गई थी जिससे सामूहिक आनन्द और उद्देश्य का बोध होता है। उत्तर प्रदेश की पत्थर प्रेमी सरकार ने एक ऐसा स्टेडियम ध्वस्त कर दिया जिसमें खेलकर अनेक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी निकले थे।

उत्तर प्रदेश में खेल सुविधाएं पंजाब, तमिलनाडु, आसाम और आंध्र जैसे प्रान्तों से कहीं कम हैं। प्रदेश में हॉकी में ध्यानचन्द और केडी सिंह बाबू की विरासत दिखाई नहीं देती। युवा खिलाड़ियों के लिए अच्छे छात्रावास और उनके कोच नहीं हैं। कुश्ती के पहलवान और पिछले मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का समय रहा हो या फुटबाल प्रेमी अखिलेश यादव का, खेल और खेल प्रतियोगिताओं पर वांछित जोर नहीं दिया गया।

प्रदेश में स्विमिंग पूल बने हैं और मनरेगा के अन्तर्गत गाँव-गाँव में बन सकते थे लेकिन बारह महीने पानी से भरे रहने वाले पूल और तैराकी सिखाने वाले कोच शायद ही होंगे। गाँवों में खेलकूद पर अधिकाधिक जोर देने की आश्यकता है स्वास्थ्य के लिए ही नहीं सामाजिक समरसता के लिए भी। थोड़े से पब्लिक स्कूल ऐसा परिवर्तन नहीं ला सकते।

जो खेल होते भी हैं उनमें व्यक्तिगत विजय पर अधिक जोर है और टीम भावना की अक्सर कमी देखने को मिलती है। इसका कारण है स्कूल कॉलेजों से या गाँवों से खिलाड़ी नहीं निकलते। इस सम्बंध में स्वामी विवेकानन्द के विचारों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। कहते हैं एक बार कुछ नवयुवक स्वामी जी के पास वेदान्त सीखने की इच्छा लेकर गए थे तो उन्होंने कहा जाओ फुटबाल खेलो। आज की तारीख में हम यह भी नहीं कह सकते क्योंकि खेल के मैदान ही नहीं बचे हैं भूमाफियाओं से।

गाँवों में युवा प्रतिभाओं के सामने आर्थिक तंगी के साथ ही खुल सुविधाओं और सिखाने वालों का भी अभाव है। सामान्य खेल जैसे कबड्डी, खो-खो, फुटबॉल, तैराकी, हॉकी भी आकर्षण खो रहे हैं। गाँवों के युवक फुटबाल खेलने के बजाय टीवी देखने और ताश खेलने में अधिक समय बिताते हैं। प्रदेश में खेल के मैदानों के प्रति सरकारों का ध्यान ही नहीं गया है। पंजाब और तमिलनाडु ग्रामीण खेलों में हमसे बहुत आगे हैं।

स्पोर्ट्स निदेशालय के वेबसाइट को देखने से जो जानकारी मिलती है वह ज्यादा उत्साहवर्धक नहीं है। वर्षवार किए गए खर्चों से ही पता चल जाता है कि सुविधाएं न तो सृजित की गई और न प्रतियोगिताएं आयोजित की गईं। जब तब गाँवों तक खेल और खेलकूद प्रतियोगिताएं नहीं पहुंचेंगी तब तब हम विश्वस्तर के खिलाड़ी नहीं निकाल सकते। अकेले क्रिकेट वा सारी ऊर्जा, धन और समय लगाते रहने से देश में खेल मानसिकता नहीं आएगी। खेल मानसिकता और टीम भावना के बिना सामाजिक समरसता भी नहीं आएगी।

  

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