विद्यालय ज्ञानार्जन नहीं धनोपार्जन का मुख्य केंद्र बन चुके हैं

विद्यालयों में एक दिन काले जूते तो दूसरे दिन सफ़ेद जूते, किसी दिन सफ़ेद कमीज़ तो किसी दिन पीली या लाल कमीज़ जैसे की विद्यालय न हुआ कोई फैशन मंच हो गया

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विद्यालय ज्ञानार्जन नहीं धनोपार्जन का मुख्य केंद्र बन चुके हैं

अर्पना श्रीवास्तव

आज मेरी बेटी निक्की का जन्मदिन है। मैंने और मेरे पति ने तय किया की हमलोग निक्की का जन्मदिन हर बार की तरह इस बार भी वृद्धाश्रम में ही बुज़ुर्गों के आशीर्वाद के साथ मनाएंगे। निक्की ने सबके साथ मिलकर भोजन किया और सबके बीच उपहार बांटे। बहुत खुश थी निक्की।

हमलोगों ने काफी वक़्त बुज़ुर्गों के साथ बिताया और उनसे ढेर सारी बातचीत की। उन सबकी अपनी दुखभरी कहानी थी, जिसने उन्हें भीतर से तोड़ कर रख दिया था। एक दंपत्ति ने बताया की उनकी इकलौती बेटी और दामाद ने उनकी सारी जमा पूंजी हड़प ली और उनका मकान बेचकर विदेश चले गए। फिर इन लोगों के पास वृद्धाश्रम के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं रह गया।

दूसरे दंपत्ति ने बताया की उनके दोनों बेटों ने उनसे ये कहते हुए बंटवारा करवा लिया की दोनों अपने माता पिता की देखभाल करते रहेंगे पर बंटवारा होते ही दोनों ने उन्हें ये कहकर वृद्धाश्रम में छोड़ दिया की घर में कमरे कम हैं और बच्चो को अलग कमरे चाहिए। आठ साल हो गए हैं, एक फ़ोन तक नहीं किया उन्होंने।


जब वृद्धाश्रम में एकांकी जीवन व्यतीत कर रहे इन बुजुर्गों की दशा देखती हूं तो मन बरबस ही रो पड़ता है। लेकिन यह तो हमारे बीमार समाज का केवल एक पहलू है, बाकी पहलुओं की चर्चा की जाए तो हमारे सामने जो चित्र उभरेगा वह अत्यंत ही भयावह होगा। लोग आज समाज की दुर्दशा पर लम्बी बहस करते हैं, आधुनिक जीवनशैली को जी भर कर कोसते हैं। लोगों को बेहद तक़लीफ़ होती है की बच्चे आज अपने संस्कारों और नैतिक मूल्यों से दूर होते जा रहे हैं। पर क्या हमने कभी सोचा है की कौन है इन सबका जिम्मेदार? क्या हमने कभी इस पतन की गहराई में जाने की कोशिश की ?

इस पतन के लिए समाज को दोष देना सर्वथा निर्थक है क्योंकि समाज तो मूर्त्त रूप है हमारे स्वयं के विचारों का और हमारे विचारों का प्रस्फुटन होता है (नींव पड़ती है) हमारी शिक्षा पद्धति से। शिक्षा और ज्ञान का दारोमदार कई आधार तंत्रों पर निर्भर करता है, जिनमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं विद्यालय, शिक्षा तंत्र ,पाठ्यक्रम, परिवार और समाज।

परिवार वाले अपने बच्चों को पुरानी पीढ़ी, पुराने संस्कारों, नैतिक शिक्षा और पारिवारिक मूल्यों से दूर करते जा रहे हैं। उन्हें लगता है की अगर बच्चा दिन भर पढ़ेगा तो अच्छी नौकरी पा सकेगा। यहां बच्चे की नौकरी ही मुख्य लक्ष्य है न की उसका चारित्रिक विकास। अगर वह बच्चा अपने बड़े बुज़ुर्गों का सम्मान न करे या संस्कारों का मज़ाक बनाए तो आश्चर्य की कोई बात नहीं होनी चाहिए।


एक जमाना था जब शिक्षा का अर्थ ज्ञानार्जन होता था। वह ज्ञान हमारे चरित्र निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान निभाता था या सरल शब्दों में कहें तो चरित्र निर्माण करता था। लेकिन आज का शिक्षा तंत्र ही इतना भ्रष्ट हो चुका है की शिक्षा बस किताबी जानकारियों तक सीमित होकर रह गई है। ये जानकारियां इतने खोखले रूप में प्रस्तुत की जाती हैं की ज्ञान वहां से नदारद हो चुका होता है।

ये पाठ्यक्रम बनाता है हमारा शिक्षा तंत्र जिसमें शामिल होते हैं हमारे देश के नेतागण जिनकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि स्वयं ही शून्य होती है। क्या इन नेताओं पर हम पाठ्यक्रम बनाने जैसा ज़िम्मेदाराना काम सौंप के सही कर रहे हैं ? आज की इस खोखली व्यवस्था में सह पाठ्यक्रमिक गतिविधियों पर ही सारा ध्यान केंद्रित किया जा रहा है, जिसमें बच्चो को मज़बूरन उनकी रूचि के ख़िलाफ़ खेलकूद व सांस्कृतिक गतिविधियों में संलिप्त किया जाता है।


वहीं दूसरी ओर जिन बच्चों की रूचि इन गतिविधियों में होती है उन पर जबरदस्ती शैक्षिक प्रदर्शन का दबाव डाला जाता है अन्यथा उन्हें असफल घोषित कर उन पर अयोग्य होने का मानसिक दबाव डाला जाता है। आज परीक्षा के परिणामों के बाद आत्महत्याओं का जो दौर चल पड़ा है ये उसी विफल मूल्यांकन पद्धति का नतीजा है। जिसमें मुख्य आरोपी है शिक्षा तंत्र और विद्यालय परन्तु बदनाम होते हैं छात्र वर्ग और देश झेलते हैं परिवारवाले, गलती किसी की और सजा मिले किसी और को।

यह ज़रूरी नहीं की एक मेधावी छात्र बाकि गतिविधियों में भी अव्वल हो और यह भी ज़रूरी नहीं की खेलकूद व सांस्कृतिक गतिविधियों या कला के क्षेत्र में जो छात्र उत्कृष्ट होते हैं वे पढाई में भी मेधावी हों। फिर विद्यार्थियों का मूल्यांकन समान स्तर पे कैसे किया जा सकता है? यही है हमारे पाठ्यक्रम की सबसे बड़ी विफलता जिसका दंश आज न सिर्फ छात्रवर्ग झेल रहा है बल्कि अभिभावक और समाज भी झेल रहे हैं।


इस विफलता में योगदान देने वाली ऐसी ही एक अहम कड़ी है जिसका नाम है विद्यालय जो आज ज्ञानार्जन का केंद्र नहीं बल्कि धनोपार्जन का मुख्य केंद्र बन कर रह गया है। नए सेशन के नाम पर हर वर्ष किताबें बदल दी जाती हैं क्यों? और क्यों विद्यालयों को ये छूट दी जाती है की वे अपने कमीशन के मुताबिक पुस्तकों का चयन करें? पहले एक विषय के लिए एक ही किताब की आवश्यकता होती थी तो अब एक विषय की पढाई के लिए 4-5 किताबों की ज़रूरत क्यों पड़ती है? और हर विषय की 1-2 किताबें ऐसी होती हैं जिन्हें विद्यालयों में पढ़ाया ही नहीं जाता है और बस यहीं कह कर विद्यालय प्रशासन पीछा छुड़ा लेता है की इनसे एग्जाम के प्रश्न नहीं आएंगे। अगर परीक्षा में प्रश्न नहीं आने होते हैं और पढाई नहीं होनी होती है तो क्यों उन पुस्तकों को खरीदने का दबाव बच्चों पर डाला जाता है?

शिक्षकों को पढ़ाने की आज़ादी नहीं मिलती, बल्कि उन्हें क्या पढ़ाना है, कितनी देर पढ़ाना है और किस तरीक़े से पढ़ाना है ये प्रशासन तय करता है। ये काम तो रोबोट भी कर सकते हैं तो फिर शिक्षकों की आवश्यकता क्या है?

शायद भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश होगा जहां मातृभाषा बोलने पर जुर्माना भरना पड़ता है। धन्य हैं कोरिया, जर्मनी और चीन जिन्होंने मातृभाषा से कभी किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया और इसे सही में माता के समान आदर दिया है। इन देशों ने अपने मूल को सदैव सर्वोपरि रखा है। हमारे यहां बच्चे चैत्र, बैशाख, आषाढ़ भले ना जाने पर अप्रिल, मई, जून उन्हें अवश्य पता होने चाहिए। हम कैसे हिंदुस्तानी बनते जा रहे हैं की आज हमें हिंदी बोलने में शर्मिंदगी महसूस होती है? क्यों हिंदी भाषियों को दोयम दर्ज़े पर रखा जाता है? क्यों अंग्रेजी अखबार पढ़ने वाला ज्ञानी और हिंदी अखबार पढ़ने वाला निपट गंवार समझा जाता है? इन सवालों का सरल जवाब है आधारहीन शिक्षातंत्र की मज़बूत पकड़।


हममें से कितने लोग हैं जो सुप्रभात, शुभरात्रि, नमस्कार का सम्बोधन करते हैं? लेकिन गुड मॉर्निंग, गुड इवनिंग और गुड नाइ तो हमारी सभ्यता के परिचायक बन गए हैं।

पढ़ाई को छोड़कर हर तरह के तामझाम देखने को मिल जाते हैं। विद्यालयों में जैसे अब यूनिफार्म को ही ले लीजिए। विद्यालयों में एक दिन काले जूते तो दूसरे दिन सफ़ेद जूते, किसी दिन सफ़ेद कमीज़ तो किसी दिन पीली या लाल कमीज़ जैसे की विद्यालय न हुआ कोई फैशन मंच हो गया। अब शिक्षक बच्चों को पढ़ाएं या फिर यूनिफार्म और जूतों का ही निरिक्षण करते रहें।

अब इतनी भ्रष्ट शिक्षातंत्र से हम किस उज्जवल समाज की परिकल्पना कर रहे हैं। इस शिक्षा प्रणाली के जो उत्पाद हैं वो हमें बस इस कहावत की याद दिलाते हैं की "रोपे पेड़ बबूल का तो आम कहां से होए"।

लेखिना निजी स्कूल में शिक्षिका और आकाशवाणी रांची में प्रोस्तोता हैं, ये उनके निजी विचार हैं।

   

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