सपा की कलह से वोटरों का ध्रुवीकरण तय

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सपा की कलह से वोटरों का ध्रुवीकरण तयमुख्यमंत्री अखिलेश यादव

लेखक- ऋतुपर्ण दवे

उत्तर प्रदेश में जो राजनीतिक घटनाक्रम चल रहा है, अप्रत्याशित तो नहीं लेकिन चौंकाने वाला जरूर है। समाजवादी पार्टी का असमाजवाद, बंद कमरों से निकलकर सड़क तक आ गया है। तेजी से बदलते कई-कई नाटकीय घटनाक्रम से वहां सत्ता की दावेदार दूसरी राजनीतिक पार्टियां जरूर अपने फायदे, नुकसान का रोज नया गुणाभाग करती होंगी, लेकिन अगर सपा दो फाड़ होती है तो वोटों का समीकरण बिगड़ना तय है।

देश में पहली बार इस तरह की कलह सामने आई, जिसमें अपने सुप्रीमो के दम-खम पर शीर्ष तक पहुंची पार्टी अंदरूनी कलह में उलझ खुद का गला काटते दिख रही है। मार्च-अप्रैल में संभावित चुनाव से पहले यह अंर्तकलह भले ही सुलझ जाए, लेकिन तब तक मतदाता अपना मन बदल चुके होंगे। पिछड़े तथा बड़ी आबादी और एक राज्य के बावजूद कई खंडों में विभक्त उत्तर प्रदेश वैसे भी नए राजनीतिक मापदण्डों के लिए जाना जाता है। यदि सपा में सब कुछ ठीकठाक होता तो इसका सीधा फायदा भाजपा को मिलना था।

वहां पर ज्यादातर वोट दलित-मुस्लिम और हिंदुत्व के नाम पर बटने का कयास लिए भाजपा काफी उत्साहित थी। आंकड़े भी कुछ ऐसे ही बैठ रहे थे कि दलित-मुस्लिम और यादव वोटों के ध्रुवीकरण के बीच भाजपा हिंदुत्व का कार्ड खेल, ब्राह्मण और दीगर हिंदू वोटों के सहारे आगे निकल जाती। हो सकता है कि इस दशहरे लखनऊ में प्रधानमंत्री का ‘जय श्रीराम’ के उद्घोष की वजय यही हो। लेकिन अब इस दो फाड़ ने पूरे समीकरण को ही बिगाड़कर रख दिया है। जैसा कि सभी मानकर चल रहे थे कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का वहां पर 18-19 प्रतिशत वोट तो है। ऐसे में उसे बस थोड़ी सी मेहनत कर आंकड़ा बढ़ाना होगा। अल्पसंख्यक, दलित और यादव वोट आपस में बंट जाने से जो सीधा फायदा भाजपा को होना था, अब यह सब टेढ़ी खीर जैसा लग रहा है।

जाहिर है, वोटों के ध्रुवीकरण का खेल चलेगा और चाहरदीवारी की बातें सार्वजनिक जूतम-पैजार की स्थिति तक पहुंच जाने के परिणाम यह होंगे कि कहीं सपा वोट बैंक का झुकाव, बसपा की ओर न हो जाए? यदि दलित और मुस्लिम वोट बैंक एकतरफा बसपा के खाते में चले गए तो बहनजी को सत्ता में पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता।

एक बहस यह भी होगी कि सपा के अंर्तकलह में अखिलेश शहीद का दर्जा या सहानुभूति के पात्र न बन जाएं? इसमें कोई दो राय नहीं कि अपने साढ़े चार वर्ष के कार्यकाल में अखिलेश ने कुछ नहीं तो खुद की विकासवादी और ईमानदार छवि जरूर बनाई है जो उत्तर प्रदेश के लोग बहुत ही सम्मान और विश्वास के साथ देख रहे हैं।

एक संभावना यह भी बनती है कि यदि अखिलेश ने कोई दूसरी लाइन पकड़ी तो एक नए राजनीतिक दल का उदय होने से भी इनकार नहीं किया जा सकता। जिस तरह पार्टी की बैठक में सपा सुप्रीमो ने हर उस शख्स का नाम लिया और विश्वासपात्र बताया, जिसको अखिलेश ने न केवल दरकिनार कर, पार्टी के लिए घातक कहा था।

जाहिर है, अखिलेश का कद कमतर करने की कोशिश की गई थी। इतना ही नहीं, गले मिलने के फौरन बाद चाचा-भतीजा की वहीं पर झड़प भी प्रदेश के मतदाताओं को पसंद नहीं आई होगी। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि लोकतंत्र के इन भगवानों को चुनने वाला मतदाता प्रदेश में एक-एक आहुति काफी सोच, समझ देकर देगा।

मतलब साफ है कि सपा की कलह पर भाजपा भले ही कुछ भी कहे लेकिन अंदरूनी तौर पर फायदा बसपा को होगा। इस आंकड़े को अंदर ही अंदर हर कोई मान रहा है। रही बात कांग्रेस की तो इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस को अभी रेस में आगे बढ़ने के लिए काफी जोर आजमाइश करनी होगी जो इतनी आसान नहीं दिखती।

हां, समाजवादी पार्टी के असामजवाद से उत्तर प्रदेश की राजनीति में मतदाता, विशेषकर दलित-मुस्लिम-यादव और हिंदुत्व, दो खेमे में बंटते दिखें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। फिर राजनीति में कब कौन छूत-अछूत रहा है, चुनाव अभी दूर हैं तब तक उप्र की राजनीति में और न जाने कब कौन सा ‘सीन’ दिख जाए! अब तो यह भी कहा जाने लगा है कि कहीं ‘समाजवादियों के असमाजवाद से उत्तर प्रदेश में नए राजनीतिक नक्षत्र का उदय तो नहीं?’

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

    

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