क्या आम बजट पर नोटबन्दी का असर दिखेगा

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क्या आम बजट पर नोटबन्दी का असर दिखेगाबजट में जाति और धर्म को ध्यान में रखकर धन का आवंटन होता है, यदि व्यवसाय और क्षेत्र के हिसाब से आवंटन हो तो विकास को सेकुलर और वैज्ञानिक आधार मिल सकता है।

डाॅ. एसबी मिश्रा

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के रमाबाई पार्क में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सिंह गर्जना सुनाई पड़ रही थी ‘मैं कहता हूं भ्रष्टाचार हटाओ, वे कहते हैं मोदी हटाओ’। यह सुनकर मुझे तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का भाषण याद आया जब उन्होंने कहा था ‘‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, वे कहते हैं इन्दिरा हटाओ, फैसला आप कीजिए”। भाषण में मोदी ने चाचा भतीजे की लड़ाई का भी जिक्र किया, परोक्ष रूप से राहुल गांधी पर भी निशाना साधा और मायावती की नीतियों पर तंज किया। एक कसर रह गई कि उन्होंने यह नहीं बताया कि यूपी की बागडोर किसके हाथ में सौंपेंगे क्योंकि शासन कोई पार्टी नहीं व्यक्ति चलाते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी ने 31 दिसम्बर 2016 को देश के नाम सन्देश में जनता को नोटबन्दी के कारण कष्ट सहन करने के लिए धन्यवाद और भविष्य के लिए अपेक्षाओं के साथ कुछ घोषणाएं भी की हैं। ये घोषणाएं गरीबों, महिलाओं, किसानों, मजदूरों और बुजुर्गों के लिए हैं जैसे कर्जा, कर्जा माफी, ब्याज दर, बैंक ऋण, डिजिटल इंडिया आदि के सम्बंध में। बजट बनाते समय इनमें से कितनी बातें उसमें जगह पा सकेंगी यह तो समय ही बताएगा लेकिन मुझे अपने पोते की याद आई जब वह नरेन्द्र मोदी को टीवी पर देखकर कहता था ‘‘मोदी सरकार”। सचमुच मोदी जी अपने में सरकार हैं।

संसद के अगले सत्र में बजट प्रस्ताव आएंगे तब कथनी और करनी का भेद पता चलेगा। पुराने समय में बजट प्रस्तावों से आर्थिक राष्ट्रनीति का खुलासा होता था जिसकी साल भर प्रतीक्षा रहती थी परन्तु अब वह नीति आधारित दस्तावेज नहीं रहा। साल भर आर्थिक अध्यादेश आते रहते हैं। सरकारें बदलने के साथ ही बजट की प्राथमिकताएं तो बदलती हैं परन्तु कोई राष्ट्रनीति नहीं बन पाई है। खर्चा घटाने के लिए मोदी ने संसद और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में मत व्यक्त किया है, जो सराहनीय है। नेहरू और शास्त्री के जमाने में ऐसा ही होता था।

आयकर घटाने का संकेत किया है जिससे मुख्यतः वेतन भोगी कर्मचारियों पर असर पड़ता है। परन्तु वकील, इंजीनियर, डॉक्टर, सोने चांदी का व्यापारी, पुलिस अधिकारी अथवा एमपी, एमएलए या मंत्री जब फार्म हाउस बनाकर खेती के नाम से करोड़ों रुपया कमाता है तो भी उसे खेती की आय पर कोई टैक्स नहीं देना होता। शहरों के अनेक धनी लोग किसान बनकर जमीन खरीदकर फार्म हाउस बना रहे हैं। खेती मे नगदी फसलों के माध्यम से प्रति एकड़ लाखों रुपया कमाया जा रहा है। जब खेती की आय को कर मुक्त किया गया था तब खेती अलाभकर थी। अब ऐसा नहीं है।

खेती पर टैक्स वसूली का काम जटिल होगा परन्तु यह काम सरल हो सकता है यदि खेती आदि पर टैक्स वसूली की व्यवस्था प्रान्तों में आयकर विभाग बनाकर उनके हाथ में दे दी जाए, जिससे प्रान्तों को उनके विकास के लिए धन उपलब्ध होता रहेगा। आज वोट बैंक के जमाने में बजट की राजनीति तो हो रही है परन्तु बजट की राष्ट्रनीति नहीं है।

बजट में जाति और धर्म को ध्यान में रखकर धन का आवंटन होता है इसके बजाय यदि व्यवसाय अथवा क्षेत्र के हिसाब से आवंटन हो तो विकास को सेकुलर और वैज्ञानिक आधार मिल सकता है। विविध कामों के लिए धन का आवंटन करते समय यदि इस बात पर विचार हो कि किसानों के बच्चों को भी अच्छी शिक्षा मिल सके किसानों को समय पर खाद, पानी और बिजली उचित दामों पर मिलती रहे, रोजगार के अवसर मिलें और उनके घर से सही दाम देकर पैदावार उठा ली जाए तो किसानों के बैंक कर्जे माफ करने, उन्हें मुफ्त में बिजली देने, उनको खैरात बांटने की आवश्यकता नहीं होगी।

यदि गहन चिन्तन न हुआ तो नोटबन्दी के लाभ उसी तरह हो जाएंगे जैसे इन्दिरा गांधी द्वारा बैंकों का राष्ट्रीयकरण और प्रिवीपर्स समाप्त करने का हुआ था। यह देखना रोचक होगा कि आने वाला बजट कितना न्यायसंगत और कितना तर्कसंगत होगा, जो 4 लाख करोड़ रुपया कालेधन का आया है उसका उपयोग कहां और कैसे होता है। मोदी के वादों और सुझावों का समावेश जेटली के बजट में किस सीमा तक होता है।

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