आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की 5 कविताएं
Anusha Mishra 5 Feb 2018 1:28 PM GMT

छायावादोत्तर काल के जाने -माने कवि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री शास्त्री का आज जन्मदिन है। 5 फरवरी 1916 को गया (बिहार) के मैगरा गाँव में जन्मे जानकी वल्लभ कहा करते थे कि उनका और निराला की प्रसिद्ध कविता 'जुही की कली' का जन्म एक ही वर्ष हुआ, यानी 1916 में।
शुरुआत में उन्होंने संस्कृत में कविताएं लिखीं। इसके बाद महाकवि निराला की प्रेरणा से हिंदी भाषा में अपनी लेखनी को मजबूत किया। आचार्य की अलग - अलग विधाओं में जितनी रचनाएं प्रकाशित हैं, उनसे अधिक उनकी अप्रकाशित कृतियां हैं।
आचार्य जानकी वल्लभ ने कहानियां, काव्यनाटक, आत्मकथा, संस्मरण, उपन्यास और आलोचना भी लिखी है। उनके साथ एक दिलचस्प बात यह थी कि वे बहुत बड़े पशुपालक थे। उनके यहां कई गाय, बैल, बछड़े, बिल्लियां और कुत्ते थे। पशुओं से उन्हें इतना प्यार था कि गाय क्या, बछड़ों को भी बेचते नहीं थे। आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री का 7 अप्रैल 2011 को बिहार के मुजफ्फरपुर ज़िले में निधन हो गया। उस वक्त वह 96 वर्ष के थे। आज उनके जन्मदिन पर पढ़िए उनकी चुनिंदा कविताएं...
1. गुलशन न रहा, गुलचीं न रहा
गुलशन न रहा, गुलचीं न रहा, रह गई कहानी फूलों की,
महमह करती-सी वीरानी आख़िरी निशानी फूलों की।
जब थे बहार पर, तब भी क्या हंस-हंस न टँगे थे काँटों पर
हों क़त्ल मज़ार सजाने को, यह क्या कुर्बानी फूलों की।
क्यों आग आशियां में लगती, बागबां संगदिल होता क्यों ?
कांटॆ भी दास्तां बुलबुल की सुनते जो ज़ुबानी फूलों की।
गुंचों की हंसी का क्या रोना जो इक लम्हे का तसव्वुर था,
है याद सरापा आरज़ू-सी वह अह्देजवानी फूलों की।
जीने की दुआएं क्यों मांगीं ? सौंगंध गंध की खाई क्यों?
मरहूम तमन्नाएं तड़पीं फ़ानी तूफ़ानी फूलों की।
केसर की क्यारियां लहक उठीं, लो, दहक उठे टेसू के वन
आतिशी बगूले मधु-ऋतु में, यह क्या नादानी फूलों की।
रंगीन फ़िज़ाओं की ख़ातिर हम हर दरख़्त सुलगाएंगे,
यह तो बुलबुल से बगावत है गुमराह गुमानी फूलों की।
'सर चढ़े बुतों के'- बहुत हुआ; इंसां ने इरादे बदल दिए,
वह कहता दिल हो पत्थर का, जो हो पेशानी फूलों की।
थे गुनहगार, चुप थे जब तक, कांटे, सुइयां, सब सहते थे,
मुँह खोल हुए बदनाम बहुत, हर शै बेमानी फूलों की।
सौ बार परेवे उड़ा चुके, इस चमनज़ार में यार, कभी-
ख़ुदकिशी बुलबुलों की देखी, गर्दिश रमज़ानी फूलों की
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2. जीना भी एक कला है
जीना भी एक कला है .
इसे बिना जाने ही, मानव बनने कौन चला है
फिसले नहीं, चलें, चटटानों पर इतनी मनमानी
आँख मूँद तोड़े गुलाब, कुछ चुभे न क्या नादानी
अजी,शिखर पर जो चढ़ना है तो कुछ संकट झेलो,
चुभने दो दो-चार खार, जी भर गुलाब फिर ले लो
तनिक रुको, क्यों हो हताश,दुनिया क्या भला बला है
जीना भी एक कला है
कितनी साधें हों पूरी, तुम रोज बढ़ाते जाते ,
कौन तुम्हारी बात बने तुम बातें बहुत बनाते,
माना प्रथम तुम्हीं आये थे,पर इसके क्या मानी?
उतने तो घट सिर्फ तुम्हारे, जितने नद में पानी
और कई प्यासे, इनका भी सूखा हुआ गला है
जीना भी एक कला है
बहुत जोर से बोले हो, स्वर इसीलिए धीमा है
घबराओ मन, उन्नति की भी बंधी हुई सीमा है
शिशिर समझ हिम बहुत न पीना, इसकी उष्ण प्रकृति है
सुख-दुःख,आग बर्फ दोनों से बनी हुई संसृति है
तपन ताप से नहीं,तुहिन से कोमल कमल जला है
जीना भी एक कला है।
3. बना घोंसला पिंजरा पंछी
बना घोंसला पिंजरा पंछी
अब अनंत से कौन मिलाये
जिससे तू खुद बिछड़ा पंछी
सुखद स्वप्न लख किसी सुदिन का
चुन-चुन पल-छिन तिनका-तिनका
रहा मूल से दूर-दूर, पर --
डाल-पात तो झगड़ा पंछी
अग्नि जले तब विफल न ईंधन
मुक्ति करम का मर्म, न बंधन
उड़ा हाय जो सबसे आगे
वह अपने से बिछड़ा पंछी
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4. मौज
सब अपनी-अपनी कहते हैं!
कोई न किसी की सुनता है,
नाहक कोई सिर धुनता है,
दिल बहलाने को चल फिर कर,
फिर सब अपने में रहते हैं
सबके सिर पर है भार प्रचुर
सब का हारा बेचारा उर,
सब ऊपर ही ऊपर हंसते,
भीतर दुर्भर दुख सहते हैं
ध्रुव लक्ष्य किसी को है न मिला,
सबके पथ में है शिला, शिला,
ले जाती जिधर बहा धारा,
सब उसी ओर चुप बहते हैं।
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5. ज़िंदगी की कहानी
ज़िंदगी की कहानी रही अनकही
दिन गुज़रते रहे, साँस चलती रही
अर्थ क्या शब्द ही अनमने रह गए,
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई,
धूप ढलती रही, छाँह छलती रही
बाँसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में
चाँदनी थरथराई तिमिर पुंज में
पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ,
आग बुझती रही, आग जलती रही
जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला,
कब झुका आसमाँ, कब रुका कारवाँ,
द्वंद्व चलता रहा पीर पलती रही !
बात ईमान की या कहो मान की
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
उँगलियाँ तार पर यों मचलती रहीं
और तो और वह भी न अपना बना,
आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना !
चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का,
रात ढलती रही, रात ढलती रही !
यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं,
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं !
जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के-
थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही !
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