मेंथा की रोपाई का चल रहा सही समय  

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मेंथा की रोपाई का चल रहा सही समय  बाराबंकी जिला मेंथा की खेती में अपनी अलग पहचान बना चुका है।

अरुण मिश्र, स्वयं कम्यूनिटी जर्नलिस्ट

विशुनपुर (बाराबंकी)। बाराबंकी जिला मेंथा की खेती में अपनी अलग पहचान बना चुका है। जिले में व्यापक स्तर पर मेंथा की खेती की जाती है। मेंथा की खेती जहाँ किसानों की पहली पसंद है वहीं, मेंथा की खेती करने से जिले का किसान आर्थिक रूप से समृद्ध भी हुआ है। किसानों की आर्थिक समृद्धि का आधार मानी जाने वाली मेंथा की खेती आज बाराबंकी जिले में लगभग प्रत्येक किसान करता है। मेंथा की रोपाई आलू की फसल की खोदाई के बाद प्रारम्भ होती है व मई जून में जाकर तैयार होती है।

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मेंथा की कोसी,क्रान्ति, हिमालया आदि कई किस्में होती हैं। जिनमें कोसी और हिमालया जैसी किस्मों से अच्छा आयल निकलता है।ग्रामीण क्षेत्रो में लाल पिपरमिंटा के नाम से मशहूर मेंथा में तेल कम निकलने की सम्भावना रहती है। जिस कारण किसान लाल पिपरमिंटा की खेती करने से परहेज करते हैं।

मेंथा की खेती के लिए सबसे पहले खेत को तैयार किया जाता है खेत की लगभग 4 से 5 बार जोताई करने के बाद जब मिटटी भुरभुरी हो जाये तो खेत को समतल कर उसमे पानी भरकर मेंथा की रोपाई की जाती है। मेंथा की रोपाई के लिए नर्सरी और जड़ों, दोनों को ही प्रयोग में लाते हैं, लेकिन जो पैदावार नर्सरी से प्राप्त होती है, वो जड़ों को बोने की अपेक्षा अधिक मात्रा में होती है । नर्सरी के लिए एक थोड़े से स्थान पर खेत को तैयार कर क्यारियां बना लेते हैं और उसमें जड़ों को काफी घनी मात्रा में लगाकर सिंचाई करते रहते हैं। इस प्रकार उन जड़ों से निकलने वाले कल्ले तैयार होते हैं, जो रोपाई के लिए काम आते हैं। रोपाई प्रायः फरवरी के अंत व मार्च के शुरुआती दिनों में की जाती है।

मेंथा की जड़ें अधिक गहराई जाने के कारण इनको वायु संचार की अधिक आवश्यकता पड़ती है, इसलिए निराई गुड़ाई से हम खरपतवारों को नष्ट करते ही हैं, साथ ही मिट्टी को भूरभूरी कर देने से वायु का संचार अच्छा हो जाता है।

मेंथा में प्रति सप्ताह पानी की आवश्यकता रहती है। जून माह तक तैयार होने वाली इस फसल से अमूमन एक बीघा मेंथा में करीब 15 से 20 किलो तक मेंथा आयल निकल आता है।

This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.ipsmf.org).

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