जहाँ कभी दूर-दूर तक एक भी स्कूल नहीं था, वहाँ गूँजती हैं 700 बच्चों की आवाज़

धीरेन्द्र शर्मा बिहार के गया में बोधि ट्री एजुकेशनल फाउंडेशन चलाते हैं; महात्मा गाँधी के आदर्शों पर चलने वाले इस संस्थान में विदेशों से टीचर बच्चों को पढ़ाने आते हैं।

Ambika TripathiAmbika Tripathi   29 Nov 2023 10:44 AM GMT

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जहाँ कभी दूर-दूर तक एक भी स्कूल नहीं था, वहाँ गूँजती हैं 700 बच्चों की आवाज़

आठवीं क्लास में पढ़ने वाले 15 साल के हिमांशु कुमार को इस बात की ख़ुशी है कि उनके स्कूल में विदेश से टीचर आते हैं। अपने गाँव और घर में हर दिन जाकर बताते हैं कि आज उन्होंने क्या सीखा।

हिमांशु कुमार गाँव कनेक्शन से बताते हैं, "मुझे अपने स्कूल में बहुत अच्छा लगता है और गणित तो मुझे बहुत पसँद है; हमें पढ़ाने तो सर जी फॉरेन से भी आते हैं।"

बिहार की बुद्ध नगरी गया से 75 किलोमीटर दूर बोधगया के इस ख़ास स्कूल में हिमांशु पढ़ते हैं। यहाँ कभी दूर-दूर तक कोई स्कूल नहीं था, आज तीन एकड़ में फैले बोधि ट्री एजुकेशनल फाउंडेशन संस्थान में 700 बच्चे पढ़ रहे हैं। इसकी शुरुआत की है धीरेंद्र शर्मा ने।

अपनी यात्रा के बारे में धीरेंद्र गाँव कनेक्शन से बताते हैं, "मेरी जन्मभूमि गया है और मेरी कर्मभूमि बोध गया है; मेरा जन्म यहाँ से लगभग 75 किमी दूर नक्सलवाद से प्रभावित यमुना गाँव में हुआ, जिसे लाल जंगल भी कहा जाता था। मेरी शुरुआती पढ़ाई पास के सरकारी स्कूल में हुई। "


"उसके बाद पढ़ाई के लिए गया के इमामगंज आ गया, यहाँ 10वीं तक पढ़ाई की; मैं अपने घर का पहला बच्चा था जो पढ़ने के लिए गाँव से बाहर निकला था। इसी तरह मैं आगे बढ़ता गया, मगध यूनिवर्सिटी गया और फिर जेएनयू से फॉरेन लैंग्वेज की पढ़ाई की। " धीरेंद्र ने आगे कहा।

साल 1998 में धीरेंद्र के जीवन में बदलाव आया जब उनकी मुलाकात गाँधी जी के शिष्य द्वारिको सुंदरानी से हुई। धीरेंद्र बताते हैं, "उन्होंने मुझे गाँधी जी के आदर्शों और उपदेशों से परिचित कराया, लेकिन पहले तो उनकी बातें साधारण लगी, क्योंकि एक तरफ साइंस के दौर में बदलता माहौल, गाँव के बच्चे कंपटीशन में आ ही नहीं पा रहे थे; गाँव के बच्चे शहरों के बच्चों के सामने नहीं टीक पा रहे थे, मुझे हमेशा इस बात की चिंता थी।"

वो आगे कहते हैं, "बात तो बहुत हुई, लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकल पाया, फिर साल 2000 में द्वारिको जी ने मुझसे संपर्क किया और मुझसे पूछा कि आप क्या चाहते हैं। मैं उनकी बातों को बदलना नहीं चाहता था, उन्होंने मुझसे पूछा कि हम कहाँ से शुरू करें, तो मैंने कहा हम निचले समुदाय के बच्चों के लिए कुछ करते हैं।"

दोनों ने मिलकर निर्णय लिया कि गाँधी के विचारों के ऐसे पेश किया जाए, जिससे बच्चे बैक बेंचर न रह जाएँ, वो सामने आ सकें।


इसी बीच धीरेंद्र की मुलाकाल कैलिफोर्निया के ब्रेट रोजेन से हुई और उनसे भी इस विषय पर बात हुई। अब दो से तीन लोग हो गए थे। 8 दिसम्बर 2008 में बोधि ट्री एजुकेशनल फाउंडेशन संस्थान की शुरुआत हुई, जिसमें शुरुआत में सिर्फ 70 बच्चों ने एडमिशन लिया जिसमें बच्चियों की संख्या लड़कों की अपेक्षा कम थी क्योंकि लड़कियों की शादी 14 साल से भी कम उम्र कर दी जाती थी।

धीरेन्द्र आगे बताते हैं, "अमेरिका की नरोपा यूनिवर्सिटी जैसी 27 से 28 यूनिवर्सिटीज के साथ समझौता भी हुआ की अगर आप भारत की संस्कृति पर स्टडी करने आते हैं, तो आपका स्वागत है लेकिन शोध के साथ बच्चों को पढ़ाना पड़ेगा। उन्हें कोई परेशानी नहीं थी शोध के लिए छात्र आने लगे और साथ ही हमारे स्टूडेंट को पढ़ाते हैं।"

पहले स्कूल में लड़कियों की संख्या 22 प्रतिशत थी। लड़कों की संख्या 75 प्रतिशत थी, लेकिन लड़कियाँ शर्मीले स्वभाव की थी, गाँव में जाकर बच्चों के माता पिता को समझाया गया आप नहीं चाहते की आपके बच्चे पढ़ाई करें।

धीरेंद्र आगे कहते हैं, "बच्चियों की शादी जल्दी कर दी जाती थी, माझी समुदाय के लोगों का पेट भरना ही बड़ी बात होती है; पोषण उनके लिए बहुत बाद में आता है, इसको देखते हुए बच्चियों की सेहत से जुड़कर हमने मद्ध्यान भोजन योजना की शुरुआत की, जिसमें बच्चों के भोजन की व्यवस्था थी।"

बच्चियों के एडमिशन के समय एग्रीमेंट साइन होता है, पढ़ाई के बीच में किसी बच्ची को शादी के लिए फोर्स नहीं किया जाएगा न उनकी शादी की जाएगी ।


"इसके साथ जो बच्चे मानसिक रूप से दिव्यांग थे, उन बच्चों का घर पर कोई नाम नहीं था, उन्हें लोग पागल नाम से पुकारते थे; कोई सुन नहीं पाता तो बहरा बोल दिया, जो बोल नहीं सकता तो उसका गूंगा नाम रख दिया। " धीरेंद्र ने कहा।

ऐसे सात बच्चों को सेलेक्ट किया गया और उन बच्चों का सर्टिफिकेट बनाया गया और उनके लिए ज़रूरी चीजें उपलब्ध कराई गईं। साथ ही इन बच्चों की देखभाल और पढ़ाई के लिए दिव्यांग लोगों को ही रखा गया, जिससे उन्हें भी रोज़गार मिल जाए।

धीरेंद्र के अनुसार 18 साल से ऊपर के जो दिव्यांग बच्चे थे उनके साथ नर्सरी से शुरुआत की गई ये देश की पहली नर्सरी है, जो दिव्यांग बच्चे चला रहे हैं जिनका पैसा उनके अकाउंट में जाता हैं।

धीरेंद्र कहते हैं "अगर आपको डोनेशन देना है तो कंप्यूटर दो, लैब बनाओ, साइंस लैब बनाओ, हेल्प उन चीज़ों का करें जो नहीं है; हमें बस वही चीज़ें दें।"

14 साल की दिव्या पास के गाँव बड़की बभनी से स्कूल आती हैं। दिव्या गाँव कनेक्शन को बताती हैं, "मैं क्लास 8 में पढ़ाई करती हूँ मुझे अंग्रेजी पढ़ना पसन्द है; मेरे पापा किसान हैं हमारे गाँव के आस पास के सारे बच्चे यहीं पढ़ाई करने आते हैं।"

#TeacherConnection #Bihar #Girleducation 

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