सिलिकोसिस पीड़ित परिवारों के लिए मसीहा से कम नहीं हैं समित कैर

सिलिकोसिस अभी भी फेफड़ों की सबसे ख़तरनाक व्यावसायिक बीमारी है। ये ज़्यादातर विकासशील और कई विकसित देशों में सिलिका धूल के संपर्क में आने वाले मज़दूरों में साँस की बीमारी और मौत का कारण बनती है। इससे पीड़ित परिवारों को मदद करते हैं समित कैर।

Manoj ChoudharyManoj Choudhary   23 Jan 2024 1:54 PM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
सिलिकोसिस पीड़ित परिवारों के लिए मसीहा से कम नहीं हैं समित कैर

पूर्वी सिंहभूम जिले के धोबनी गाँव की लक्ष्मी मार्डी को अब संतोष है कि सिलिकोसिस बीमारी से किसी मज़दूर की मौत के बाद उसका परिवार पेट भरने के लिए दर- दर नहीं भटकेगा।

27 साल की लक्ष्मी की माँ पार्वती मार्डी को सिलिकोसिस की बीमारी थी, और उनकी मौत के बाद परिवार के लिए एक वक़्त का खाना जुटाना भी मुश्किल हो गया। लेकिन मदद के लिए बढ़े एक हाथ से उनकी दुनिया ही बदल गई।

"मुझे समित कैर सर की मदद से 2016 में चार लाख रुपये मिले; उन्होंने सरकार के सामने यह साबित कर दिया कि मेरी माँ की मौत जो 2012 में हुई थी वो सिलिकोसिस से ही हुई थी, और मेरा परिवार उनकी मौत के लिए मुआवजा पाने का हकदार है।" लक्ष्मी ने गाँव कनेक्शन को बताया। वह आगे कहती हैं, "इस मुआवज़े के कारण ही मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर सकी और नर्सिंग में बी.एससी (बैचलर ऑफ साइंस) किया, समित कैर सर सिलिकोसिस बीमारी से जान गवाने वाले परिवारों की दिल से मदद करते हैं। " लक्ष्मी फिलहाल जमशेदपुर के टाटा मैन हॉस्पिटल में बतौर नर्स काम कर रहीं हैं।

लक्ष्मी की माँ झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के धोबनी गाँव के पास एक कारखाने में मज़दूरी करती थीं। यह फैक्ट्री रैमिंग मास बनाती है जिसका इस्तेमाल बिजली के उपकरणों के लिए इंसुलेटर बनाने में किया जाता है। उनकी बेटी ने बताया कि उनका काम ऐसा था कि सिलिका से भरी धूल में साँस लेना मज़बूरी बन गई, इसी वजह से उन्हें सिलिकोसिस हो गया और उनकी जान चली गई।


झारखंड का पूर्वी सिंहभूम जिला का मुख्यालय जमशेदपुर है और राजधानी रांची से करीब 180 किलोमीटर दूर है।

लक्ष्मी मार्डी ने कहा, "मैं अपनी माँ की तकलीफों को कभी नहीं भूल सकती; वह हर वक्त खाँसती रहती थीं, दर्द से कराहती थीं और साँस लेने में उन्हें काफी मशक्कत करना पड़ती थी।" अपनी माँ को मरते हुए देखना काफी दर्दनाक था, जिसने उन्हें एक नर्स बनने और की देखभाल करने के लिए प्रेरित किया। सामाजिक कार्यकर्ता कैर ने हर कदम पर उनका साथ दिया।

लक्ष्मी मार्डी की माँ के अलावा कैर ने झारखंड के अन्य 47 सिलिकोसिस मरीज़ों को उनका मुआवजा दिलाने में मदद की है। पड़ोसी राज्य पश्चिम बँगाल में ऐसे 52 परिवार हैं जिन्हें कैर की वजह से मुआवजा मिल पाया है।

सिलिकोसिस पीड़ितों की मदद

68 साल के सामाजिक कार्यकर्ता समित कैर पिछले दो दशकों से झारखंड और पश्चिम बँगाल के आदिवासी इलाकों में गाँव-गाँव जाकर उन स्थानीय ग्रामीणों से मिलते हैं जिनके परिवार में किसी सदस्य को फेफड़ों में संक्रमण के चलते मौत हो गई। वह उनसे उनके छाती के एक्स-रे इकट्ठा करते हैं।

दरअसल उनका मिशन सिलिकोसिस के मरीज़ों की पहचान करने और उन्हें या उनके परिवारों (अगर मरीज की मृत्यु हो गई है) को सरकार से मुआवजा दिलाने में मदद करना है। अब तक सिलिकोसिस से जूझ रहे 100 से ज़्यादा मज़दूरों के परिवारों को कैर के मिशन से फायदा पहुँचा है।

सिलिकोसिस-एक प्राचीन बीमारी

सिलिकोसिस फेफड़ों की लाइलाज बीमारी है, जो सिलिका (पत्थर के कण) को साँस के जरिए अँदर लेने से होती है। यह अमूमन उन मरीज़ों को होती है जो या तो पत्थर तोड़ने का काम करते हैं या फिर क्रशर मशीनों में या फिर पत्थर का पाउडर बनाने वाली फैक्ट्रियों में काम करते हैं। सिलिकोसिस पूर्वी भारत के खनन वाले इलाके में जानलेवा बीमारी के रूप में उभरी है। भारतीय दंड संहिता के कारखाना अधिनियम, 1948 की तीसरी अनुसूची के तहत, सिलिकोसिस को एक ऑक्यूपेशनल डिजीज यानी नौकरी की वजह से होने वाली बीमारियों के रूप में अधिसूचित किया गया है।

झारखंड और पश्चिम बँगाल में हज़ारों आदिवासी ग्रामीण उन कारखानों में काम करते हैं जिनमें 'रैमिंग मास' का उत्पादन होता है। इसे क्रशिंग प्लांट में सिलिका चट्टानों को पीसकर बनाया जाता है और फिर इंसुलेटर बनाने में इसका इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे सँयँत्रों में हवा की गुणवत्ता सिलिका के बारीक कणों से काफी खराब हो जाती है जो यहाँ काम कर रहे मरीज़ों के फेफड़ों में साँस के जरिए अँदर जाती है और सिलिकोसिस का कारण बनती है। इस बीमारी से फेफड़े स्थायी रूप से खराब हो जाते हैं। यह एक जानलेवा बीमारी है।


कैर ने गाँव कनेक्शन को बताया, " मेरे अनुमान के मुताबिक, पूर्वी सिंहभूम जिले के चार बड़े कारखानों में काम कर रहे 1,200 कर्मचारी सिलिकोसिस से प्रभावित हैं और इनमें से 300 लोगों की मौत 2002 और 2023 के बीच हुई है; अगर आप इसमें प्रवासी मरीज़ों को शामिल कर लेंगे तो मरने वालों की सँख्या इससे कहीं अधिक होगी।" उनके अनुसार मुसाबनी, धालभूमगढ़, डुमरिया, गुरुबँधा, पोटका, आदित्यपुर, काँड्रा के आदिवासी ग्रामीण इस साँस की बीमारी से जूझ रहे हैं।

कैर 2002 से, रैमिंग मास बनाने वाली फैक्ट्रियों के पास आदिवासी गाँवों का दौरा कर रहे हैं। वे मरीज़ों से मिलते और उनका हालचाल लेते हैं। मरीज़ों के साथ बातचीत के बाद उन्होंने 2,000 से ज़्यादा एक्स-रे रिपोर्ट इकट्ठा की, जो उन मरीज़ों की थीं जिन्हे फेफड़ों की बीमारी थी।

कैर ने बताया, "इनमें से लगभग 25 फीसद मरीज़ महिलाएँ थीं।"

उन्होंने ने कहा “इन गाँवों में सिलिकोसिस से मरने वाले मरीज़ों की औसत उम्र 33 वर्ष है; रैमिंग मास इंडस्ट्री में इस बीमारी की व्यापकता दर 80 फीसदी है, जो मज़दूर इस धूल में साँस लेते हैं वे 20 दिनों या एक साल के अँदर इससे प्रभावित हो सकते हैं और जो कर्मचारी 24 घंटे फैक्ट्री परिसर में रहते हैं, वे दूसरों की तुलना में जल्दी प्रभावित होते हैं।"

कैर ने कहा कि सिलिकोसिस से मौत होने पर श्रमिकों को मुआवज़े दिए जाने चाहिए। “लेकिन मरीज़ों को यह मुआवज़ा नहीं मिल पाता क्योंकि वे यह साबित नहीं कर सकते कि वे ऐसे उद्योगों में काम कर रहे थे; बस मैं उनकी मदद करने की कोशिश कर रहा हूँ।''

लक्ष्मी मार्डी ने कहा कि अगर कैर नहीं होते तो सिलिकोसिस से जूझ रहे कई परिवारों के बच्चों का जीवन बेहद मुश्किल होता।

उन्होंने कहा, “सिलिकोसिस की वजह से मौत का शिकार हो चुके मज़दूरों के परिवारों के नाबालिग लड़के अनाथ होने के बाद कमाई के लिए अकसर पलायन कर जाते हैं, जबकि लड़कियाँ घरेलू नौकरानी बन जाती हैं; ऐसे परिवार के सदस्यों के लिए राज्य सरकार द्वारा आर्थिक मुआवजा आशा की किरण है और एक बेहतर भविष्य भी।''

वह आगे कहती हैं, “वे मुआवजे से मिले पैसे से एक दुकान खरीद लेते हैं या फिर कोई छोटा-मोटा बिजनेस करने लगते हैं; राहत और पुनर्वास देने के लिए हम राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और कैर सर के शुक्रगुजार हैं।''

पिता ने किया प्रेरित

कैर के दादा श्यामाचरण कैर के पास 1904 और 1916 के बीच जापान में एक ग्लास फैक्ट्री थी और वहाँ कई कर्मचारी सिलिकोसिस से प्रभावित पाए गए थे। उनके पिता शैलेश कुमार को इस बीमारी के बारे में पता था और उन्होंने ही कैर को ऑक्यूपेशनल डिजीज से जूझ रहे मरीज़ों के लिए काम करने के लिए प्रेरित किया था।

कैर ने 1975 से 1978 तक जमशेदपुर के भाटिया बस्ती में दैनिक वेतन भोगी मज़दूरों के 60 बच्चों को प्राथमिक शिक्षा भी दी है। उनके आर्थिक सहयोग से, सिलिकोसिस पीड़ित परिवारों के 18 बच्चों ने पूर्वी सिंहभूम के मुसाबनी ब्लॉक के जुरादेवी से हाई स्कूल पास किया है।

अपनी उच्च शिक्षा पूरी करने के बाद कैर ने उन मज़दूरों के अधिकारों के लिए काम करना शुरू कर दिया था जो ऑक्यूपेशनल डिजीज से पीड़ित हैं। 2002 में पश्चिमी सिंहभूम के तिलईसुद गाँव में एक खनन स्थल पर धूल के प्रभाव का अध्ययन करते समय उन्हें मज़दूरों में फेफड़ों से संबंधित बीमारियों के लक्षण मिले।


लेकिन शुरुआत में ग्रामीणों ने मेडिकल जाँच के लिए एक्स-रे रिपोर्ट देने से इनकार कर दिया, बल्कि उन्होंने कैर पर जादू-टोना करने का आरोप तक लगाया।

आखिरकार, उन्होंने 2006 में 11 मज़दूरों से उनकी एक्स-रे रिपोर्ट मिली। उन्होंने 2003 में तिलाइसुद में अपने अध्ययन के आधार पर मुंबई में वर्ल्ड सोशल फ़ोरम में ऑक्यूपेशनल डिजीज पर एक पेपर प्रस्तुत किया।

कैर ने ऐसे मज़दूरों के अधिकारों की वकालत करने के लिए 2003 में ऑक्यूपेशनल सेफ्टी एँड हेल्थ एसोसिएशन ऑफ झारखँड (OSHAJ) नामक एक सँगठन की भी स्थापना की। धर्मार्थ स्रोतों से मिल रही आर्थिक मदद से वह मिशन का ख़र्च उठा पाते हैं।

कुणाल कुमार दत्ता, तपन कुमार मोहंती, एमएस खालिद कुरेशी और कुँदन कुमार जैसे कुछ डाक्टरों ने सिलिकोसिस मरीज़ों की जाँच में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके मदद से ही कैर सिलिकोस पीड़ितों को न्याय दिला पाने में सफल हो पाए।

कहते हैं भारत में, सिलिकोसिस की जानकारी सबसे पहले 1934 में मैसूर सरकार के वरिष्ठ सर्जन एस सुब्बा राव द्वारा दी गई थी। 1940 से 1946 तक कोलार गोल्ड फील्ड में 7653 खदान श्रमिकों को शामिल करने वाले कारखानों के मुख्य सलाहकार द्वारा एक विस्तृत जाँच में पाया गया कि 3402 (43.7%) श्रमिक सिलिकोसिस से पीड़ित थे।


Silicosis #TheChangemakersProject #Jharkhand #story The Changemakers Project 

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.