राजस्थान के 24 गाँवों की 1800 से ज़्यादा आदिवासी महिलाओं की ज़िंदगी बदल रहा ये स्टार्टअप

राजस्थान के उदयपुर के आदिवासी गाँव डाँग में राजीव ओझा ने एक ऐसा इकोसिस्टम बनाया है, जहाँ ये सीजनल फ्रूट्स आदिवासी महिलाओं से अच्छे दाम पर खरीद लेते हैं और फिर उन्हीं फलों को प्रोसेस करके अलग-अलग प्रोडक्ट बना कर बाज़ार में उतार देते हैं।

Manvendra SinghManvendra Singh   9 Jan 2024 1:57 PM GMT

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राजस्थान के आदिवासी गाँव की मिंच देवी पहले जंगल से सीताफल तोड़कर बेचती, दिन के 20 रुपए कमाना मुश्किल हो जाता। कई बार तो फल बिकता ही नहीं, इसलिए उसे फेंकना पड़ता। लेकिन अब मिंच देवी इतना कमा लेती हैं, कि उनका खर्च आराम से चल जाता है।

आखिर मिंच देवी के जीवन में ऐसा क्या बदलाव आ गया?

लाल चुनरी ओढ़े उदयपुर के आदिवासी गाँव डाँग की मिंच देवी बताती हैं, "पहले तो हम सीताफल बेचते थे, उस समय जो बिक गया उसका पैसा मिल जाता था लेकिन जो नहीं बिकता था उसे नाली में फेकना पड़ता था।"

फिर शर्माते हुए वो आगे बोलती हैं, "जब में थोड़ी बड़ी हुई तो मेरी शादी हो गयी; एक दिन जब मैं काम से निकली तो राजीव भाई मुझसे बोले की मेरे साथ काम करोगी, मैंने बोल दिया हम आएंगे, हम यहाँ जामुन, सीताफल, आँवला का जूस निकालते हैं, हमको 250 रूपए मिलता है और किराया भी मिलता हैं।"


मिंच देवी की तरह उदयपुर के 24 गाँवों की 1800 से अधिक आदिवासी महिलाएँ अब आत्मनिर्भर बन गई हैं। इसमें उनका साथ दिया है राजीव ओझा ने। उन्होंने एक ऐसा इकोसिस्टम बनाया है, जहाँ ये आदिवासी महिलाएँ सीजनल फल इकट्ठा करती हैं, ये उनसे फल खरीदते हैं और यही महिलाएँ इनके प्रोसेसिंग से कई तरह के उत्पाद बनाती हैं।

जहाँ पहले इन आदिवासी महिलाओं को अपनी मेहनत का सही दाम नहीं मिलता था, वहाँ ये महिलाएँ बड़ी संख्या में ट्राइबलवेदा के साथ जुड़ कर अपना जीवन आसान बना रही हैं।

उदयपुर और उसके पास के गाँवों की आदिवासी महिलाओं का जीवन किसी संघर्ष से कम नहीं था। पथरीली पहाड़ियों पर धूप और बारिश में 25 से 30 किलोमीटर घंटों चलने के बाद और अपनी पूरी ताक़त और मेहनत से जंगलों से सीताफल, जामुन जैसे फल तोड़कर लाती और बाज़ार में बेचती। लेकिन न के बराबर पैसा मिलता, क्योंकि जामुन जैसे फल सीजनल होते हैं, यानी साल के करीब एक से दो महीने ही जामुन होता है और इन फलों की शेल्फ लाइफ भी बहुत कम होती है। इसके कारण ये फल बहुत जल्दी ख़राब हो जातें है।

अगर इन्हें सही समय पर न बेचा जाए तो ये बर्बाद हो जाते हैं यही वजह थी इन आदिवासी महिलाओ को ऐसे फलों को कम दाम पर बेचना पड़ता था और इन्हे अपनी मेहनत का सही रेट नहीं मिलता था।


इन महिलाओं के आगे का जीवन भी ऐसे ही चलता रहता, लेकिन सब कुछ बदलने वाला था और उस बदलाव की शुरुआत का विचार साल 2016 में पनपा; जिसको आकर में आते- आते एक साल का समय लग गया। 2017 में राजीव ओझा ने इन महिलाओं का जीवन बदल दिया।

राजस्थान के उदयपुर में एक मारवाड़ी परिवार में पैदा हुए राजीव ओझा ने सिर्फ बारहवीं तक ही पढ़ाई की है, जिसके बाद वो नौकरी करने मुंबई निकल गए, वहाँ उन्होंने कई नौकरियाँ की, लेकिन गाँव और अपनी मिट्टी से उनका जुड़ाव नहीं टूटा। वो आदिवासी महिलाओं के संघर्ष से अच्छी तरह से वाक़िफ़ थे, शायद यही वजह थी कि उन्होंने उनकी समस्या का हल निकालने की ठानी और शुरुआत की अपने ब्रांड ट्राइबलवेदा की। जहाँ वो सीजनल फ्रूट्स को प्रोसेस करके फलों की शेल्फ लाइफ बढ़ा देते हैं और पूरे साल लोगों को इन फलों का आनंद और पोषण लेने मौका देते हैं। उनके इस काम में उनका साथ देती हैं 24 गाँवों की 1800 से ज़्यादा आदिवासी महिलाएँ।

ट्राइबलवेदा के सह-संस्थापक राजीव गाँव कनेक्शन से बताते हैं, "2016 में जब मैं गाँव आया तो मुझे ऐसा लगा, सीताफल के सीजन में फल टोकरों में भर के आ रहे हैं, वहीं से आइडिया आया कि यहीं से कलेक्शन ले और इन्हीं आदिवासी महिलाओं से खरीदें, जो तीस-तीस किलोमीटर दूर पहाड़ों से आ रही हैं, वो भी धूप में; फल खराब हो जाता हैं और कम दाम में इन्हें बेचना पड़ जाता था; दस रूपए, पाँच रूपए के भाव में गाँव वाले इस फल को बेचने पर मज़बूर थे, 2016 से सोचना शुरू किया था और चीज़े समझी लेकिन स्टार्ट किया 2017 से।"


राजीव गाँव कनेक्शन से बताते हैं, "हमने ये देखा कि जामुन में मेडिसिनल प्रॉपर्टीज है और लोगों को साल के एक से दो महीने मिलता है, तो ट्राइबल वेदा नाम से हमने एक ब्रांड बनाया और ब्रांड के अंदर कस्टमर के घर तक हम साल भर जामुन उनको कैसे मिले और कैसे जामुन की हेल्थ बेनिफिट उनको मिले। हमने अलग-अलग जामुन के पेड़ और फल से बनने वाले प्रोडक्ट ही बना दिए और पूरा ऑनलाइन पर भी हैं ।"

वो आगे कहते हैं, "जामुन को हम सीजन में प्रोसेस करते हैं, उसके बाद उसको जमा कर लेते हैं, जिस फ्रूट की लाइफ एक महीना थी उसको हम लोगों ने बढ़ाकर बारह महीना कर दिया है और फ्रीजिंग होने के बाद उसके बायप्रोडक्ट बनाए हैं; जैसे जामुन से बनी हुई स्ट्रीप्स जो कि 100 परसेट शुद्ध जामुन से बनी हुई है, लोग साल भर खा सकते हैं, जामुन की ग्रीन टी बना दी, उसका विनेगर बना दिया, जामुन सीड पाउडर है, नीम , करेला, जामुन की स्ट्रीप बना दी तो इस तरीके से हमने अलग अलग प्रोडक्ट्स की रेंज बनाने की कोशिश की है ये काम पूरे साल चलता रहता है।"




राजीव के इस आइडिया से आदिवासी महिलाओं को अब उनकी मेहनत के सही दाम मिलते हैं। साथ ही साथ उन्हें इस बात की चिंता नहीं करनी पड़ती है कि वो अपने फलों को कहाँ बेचे।

36 साल के राजीव गाँव कनेक्शन से कहते हैं, "बहुत छोटे से शुरुआत की थी एक छोटा सा घर तीन हज़ार किराया देकर इस काम को शुरू किया था और धीरे-धीरे काम बढ़ता गया, 90 प्रतिशत ट्राइबल महिलाएँ ही हमारे साथ जुड़ी हुई हैं, 24 गाँव की लगभग 1800 महिलाएँ हमारे साथ जुड़ी हुई है, उदयपुर से 50 किलोमीटर दूर जसवंतपुर गाँव में हमारी प्रोसेसिंग यूनिट हैं, बाकी 6 गाँव में हमारी छोटी-छोटी यूनिट्स हैं।"

राजीव के पूरे परिवार में किसी के पास खेती किसानी का कोई भी अनुभव नहीं था, फिर भी उन्होंने अपने इस आइडिया को धरातल पर उतारने के लिए कई जगह से ट्रेनिंग ली, कई जानकारों से मिले और जो कुछ भी सीखा वो गाँव की महिलाओं को भी सिखाते गए।

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