न रहने को घर है न कमाई का कोई जरिया, आखिर कब जायेगा इधर जिम्मेदारों का ध्यान  

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न रहने को घर है न कमाई का कोई जरिया, आखिर कब जायेगा इधर जिम्मेदारों का ध्यान  अश्मि के साथ उसका परिवार।

रामू गौतम, स्वयं कम्यूनिटी जर्नलिस्ट

लखनऊ। देश में लाखों ऐसे बच्चे हैं, जिन्हें शिक्षा नसीब होना बहुत दूर की बात है। खुद को जिंदा रखने तक के लिए संघर्ष करना पड़ता है। नजीर की भी कमी नहीं है, रोड, स्टेशन, बाजार, धार्मिक स्थलों पर गुब्बारा, टॉफी, अख़बार या पान-मसाला बेचते, गाड़िया साफ़ करते ये बच्चे दिख ही जाते हैं। बच्चे शौक में ये सब नहीं कर रहे, बस अपना पेट पालने के लिए करते हैं।

लखनऊ जनपद मुख्यालय से करीब 45 किमी दूर मलिहाबाद विकास खंड के ग्राम पंचायत जिंदौरा के मजरा तकिया क्षेत्र में विधवा अश्मि (35 वर्ष) का परिवार रहता है। उनके परिवार में चार बच्चे हैं, जिनके हाथ में कलम होनी चाहिए थी, वह बच्चे गाँव में सड़क के किनारे ठेला लगाकर अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं।

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अश्मि के पिता (85 वर्षीय) शोभन अली उर्फ़ मलहु ने बताया, “15 बरस पहले बिटिया की शादी धूमधाम से बालामऊ के लालताखेड़ा निवासी सादिक से की थी। सादिक पेशे से दर्जी था। शादी के 12 साल बाद अचानक सादिक की तबियत खराब हो गयी। डॉक्टर ने बताया कि उसे टीबी की बीमारी है। सादिक के इलाज में जेवर, जमीन सब बिक गया। मेरे पास भी जो था, लगा दिया। इस उम्र में मैं चाहकर भी बिटिया की मदद नहीं कर सकता। मैं खुद उसकी मदद का मोहताज हो गया हूं।”

अश्मि ने बताया, “पति की मौत करीब तीन वर्ष पूर्व हो गयी। परिवार में अपने पीछे सादिक चार बच्चे पुत्री रूही बानो (15 वर्ष), जूही बानो (12 वर्ष), उमैरा बानो (10 वर्ष), तारिक (8 वर्ष) छोड़ गए। इन्हें पालने की जिम्मेदारी सिर पर आ गयी। न रहने को घर है न कमाई का कोई जरिया। किसी तरह बच्चों को पाल रही हूं।

‘मां के काम में हाथ बटाते हैं हम’

अश्मि की बड़ी बेटी रूही बानो (15 वर्ष) का कहना है, “मां काफी कमजोर है इसलिए हम पढ़ने के बजाय अम्मी की मदद करते हैं। सुबह होते ही हम मां-बेटी अलग-अलग ठेला लगाकर टाफी, कम्पट, बिस्कुट चांगला सहित लगभग आठ सौ रुपए का सामान गली, स्कूलों, बाजारों में बेचते हैं। प्रतिदिन जो भी मिलता है उससे छोटे भाई-बहन और मां को देती हूं।”

कभी नहीं मिली कोई सरकारी मदद

अश्मि का कहना है, “नेताओं से लेकर अधिकारियों तक कई बार कागज दिया, मदद की गुहार लगाई, न विधवा पेंशन न ही कोई और सरकारी मदद मिली। अब तो मैंने इंसान से मदद की उम्मीद ही छोड़ दी। खुदा ही मददगार है।”

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