बिहार: अब तक 6 मुखिया की हत्या, इस बार के पंचायत चुनाव के बाद क्या वर्चस्व का संघर्ष बढ़ा है?

बिहार में पिछले साल हुए पंचायत चुनावों के बाद 24 सितंबर से 20 जनवरी तक 6 मुखिया की हत्या हो चुकी है। कई वार्ड मेंबर भी मारे गए हैं। वार्ड मेंबर के वित्तीय अधिकारियों में हुई बढ़ोतरी के बेमतलब पद समझे जाने वाले वार्ड मेंबर और पंच के लिए संघर्ष हुआ, निर्विरोध चुनाव की खबरें कम ही आईं।

Rahul JhaRahul Jha   21 Jan 2022 1:22 PM GMT

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बिहार: अब तक 6 मुखिया की हत्या, इस बार के पंचायत चुनाव के बाद क्या वर्चस्व का संघर्ष बढ़ा है?बिहार में पंचायत चुनावों के बाद 24 सितंबर से अब तक 6 नव निर्वाचित मुखिया की हत्या हो चुकी है। फोटो- अरेंजमंट

सुपौल (बिहार)। हाल ही में मुखिया चुने गए सुखल मुसहर की 18 जनवरी को गोली मारकर हत्या कर दी गई। गोपालगंज जिले के धतीवना पंचायत के मुखिया सुखल मुसहर से पहले बिहार के अलग-अलग जिलों में 5 और मुखियाओं की हत्या हो चुकी है। कई वार्ड मेंबर और पंचायत के दूसरे प्रतनिधियियों की जान गई, उन पर हमले हुए हैं।

"नवनिर्वाचित मुखिया सुखल मुसहर 18 जनवरी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। उन्हें पहले से ही हत्या के लिए लगातार धमकी भी मिल रही थी। चार लोगों के विरुद्ध नामजद प्राथमिकी दर्ज की गई है। कुछ लोगों को गिरफ्तार किया हूं। बाकी पुलिस मामले की जांच कर रही है।" बिहार में हुए छठे मुखिया के मौत का कारण गोपालगंज के सदर एसडीपीओ संजीव कुमार बता रहे थे। सुखल मुसहर पहली बार मुखिया चुनाव जीते थे, वो अपनी पंचायत के पूर्व मुखिया के घर ही रहते थे। इस बार बिहार पंचायत चुनाव में युवाओं ने 60% से अधिक सीटें जीती हैं।

बिहार में जारी है नवनिर्वाचित मुखियाओं की हत्या का सिलसिला

करीब एक महीना पहले राजधानी पटना के बाढ़ इलाके में नवनिर्वाचित मुखिया प्रियरंजन कुमार और दारोगा राजेश कुमार सहित 3 लोगों को गोली मार दी। चुनाव और वर्चस्व को लेकर अपराधिक घटनाएं जारी हैं। 18 जनवरी को सुखल की मंगलवार की हत्या हुई तो 19 जनवरी को नालंदा जिले के नेहूसा पंचायत के नवनिर्वाचित मुखिया मंजूषा कुमारी और उनके पति लालजी सिंह धीरज के घर पर गोली चला कर धमकाया गया। बिहार में सितंबर 2021 से 20 जनवरी 2022 तक वर्चस्व और चुनावी रंजिश में 6 मुखिया की हत्या की जा चुकी है।

"पंचायत चुनाव में पहले भी बाहुबल और धनबल का खेला होता था। लेकिन इस चुनाव ने सबको पीछे छोड़ दिया है। अभी तक 6 मुखिया की मृत्यु हो चुकी है। साथ ही कई और जनप्रतिनिधि के हत्या की खबरें आती रही है। पता नहीं यह सिलसिला कब रूकेगा?" सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी आरके मिश्रा ने कहा। वे भागलपुर पुलिस अधिक्षक और दरभंगा में आईजी पद पर लंबे समय तक कार्य कर चुके हैं।

सुपौल जिला के लक्ष्मीनिया पंचायत में इस बार के नवनिर्वाचित मुखिया चांदनी कुमारी के पति रोशन झा बताते हैं, "4 दिसंबर 2021 को जमुई जिले के दरखा पंचायत के नवनिर्वाचित मुखिया प्रकाश महतो की हत्या के बाद मुखिया संघ के तरफ से लगभग 50 से 60 जनप्रतिनिधि पटना गए थे। बिहार में कुल 8387 पंचायत हैं। अगर सभी पंचायत के जनप्रतिनिधि अपनी सुरक्षा की मांग करते हैं तो 16774 जवानों को सुरक्षा में लगाना पड़ेगा। अधिकारियों ने कहा कि सभी को सुरक्षा संभव नहीं है लेकिन जिन्हें खतरा महसूस होगा उन्हें मिलेगी, लेकिन हुआ कुछ नहीं।"

पंचायत चुनाव के बाद हालात ये हैं कि मुखिया, सरपंच और पंचों के संघ ने पंचायती राज मंत्री और डीजीपी से मिलकर सुरक्षा की मांग की है। पंचायती राज मंत्री सम्राट चौधरी ने जनप्रतनिधियों को सुरक्षा देने को लेकर खत भी लिखा था। हालांकि इस पत्र का कोई ठोस जवाब नहीं मिला।

बिहार में मुखिया और सरपंच दोनों ही व्यवस्थाएं लागू हैं। पंच-सरपंच संघ बिहार में (पंच, सरपंच और उपसरपंच) 123934 सदस्य हैं। पिछले दिनों इस संगठन ने डीजीपी से मुलाकात की थी। संगठन के प्रदेश अध्यक्ष अमोद कुमार निराला गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "चुनावी रंजिश होती हैं लेकिन चुनाव के 20-25 दिन वो खत्म हो जाती हैं, क्योंकि एक ही गांव के लोग होते हैं तो मिल जाते हैं। लेकिन अपराधी और दबंग ये काम करते हैं। हम लोग अपने दम पर चुनाव लड़ते हैं और पांच साल काम करते हैं। हम लोग भगवान भरोसे हैं। अपराधी निरंकुश हैं। पुलिस का खौफ अपराधियों में नहीं है। जो भी मुखिया अपने इलाके में विकास करना चाहता है,न्याय करना चाहता है, उसकी हत्या हो जाती है।"

बिहार के राजनीति को नजदीक से जानने वाले 'केवल सच' पत्रिका के संपादक बृजेश मिश्रा बताते हैं कि, "पंचायतों के विकास के लिए सरकार की तरफ से फंड की व्यवस्था ज्यादा की गई है। साथ ही कोरोनावायरस के वजह से देश में बेरोजगारी चरम पर है। इन दोनों वजहों ने बिहार पंचायत चुनाव को एक युद्ध मैदान बना कर छोड़ दिया था। इस सब के बावजूद इस बार पंचायत चुनाव में 80 से 90% नए मुखिया बनकर आए है। सिर्फ पटना जिला में 95 फीसदी सीटों पर नये चेहरों को जीत हासिल हुई है। साथ ही कई बड़े नेता के रिश्तेदार इस चुनाव में हारे है। पहली बार चुनाव में ईवीएम का भी इस्तेमाल किया गया। जिससे बूथ कैप्चरिंग व अन्य घटनाओं को रोका जा सका। इसलिए पहले की तुलना में स्थतियां कुछ बदल सी गई हैं।"

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18 जनवरी को गोपालगंज की धतिवना पंचायत के नवनिर्वाचित मुखिया सुखल मुसहर के हत्या के बाद लोगों ने जमकर प्रदर्शन किया।

"सब खेल पावर और पैसा बढ़ने का है"

बिहार में पंचायत चुनाव में हो रही हिंसा के पीछे चुनावी रंजिश, वर्चस्व के अलावा क्या कोई और फैक्टर भी है? क्या बजट और पंचों को ज्यादा अधिकार मिलने का असर है? कई जानकार इसके लिए वार्ड चुनाव का अहम होना मानते हैं।

इस बार बिहार के चुनाव मुखिया से ज्यादा वार्ड के चुनाव की चर्चा हुई। उसका कारण ये रहा कि नीतीश सरकार ने 2018 में मुखिया-सरकार के वित्तीय अधिकारियों में कटौती कर पंच और वार्ड सदस्य को ज्यादा अधिकार दिए थे।

पटना जिला के नौबतपुर थाना क्षेत्र के जमलपुरा पंचायत अंतर्गत लोदीपुर में वार्ड संख्या 9 के नवनिर्वाचित वार्ड सदस्य संजय वर्मा (45वर्ष) को अज्ञात बदमाशों ने गोली हत्या कर दी। 2 लोगों को गिरफ्तार किया गया था,दोनों जमानत पर हैं।

इसी गांव के वार्ड नंबर चार के पूर्व वार्ड सदस्य जय राम रजक बताते हैं कि, "सिर्फ 2020-21 की अवधि में पूरे पंचायत में लगभग 65 करोड़ रुपए का फंड मिला, जिसमें सबसे ज्यादा जल नल योजना के तहत मिला था। जो वार्ड सदस्य के अधिकार क्षेत्र में आता है। इसलिए पंचायत चुनाव में पहली बार मुखिया से अधिक वार्ड सदस्य पद के लिए ज्यादा क्रेज बना रहा।"

यूपी, बिहार समेत कई राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था को लेकर काम करने वाले गैर सरकारी संगठन तीसरी सरकार अभियान के फाउंडर चंद्र शेखर कहते हैं, "बिहार सरकार पंचों को ज्यादा अधिकार देना चाहती थी। इसलिए 2015-16 में जब ग्राम विकास योजना लागू हुई तो बिहार ने अपने हिसाब से उसे चलाने की कोशिश की लेकिन मुखिया संघ ने हाईकोर्ट में चुनौती, जहां सरकार की फजीहत हुई क्योंकि वो नियम विरुद्ध था, इसके बाद नीतीश कुमार सरकार ने 2017 में पंचायती राज अधिनियम में राज्य के अधिकारों को इस्तेमाल कर बदलाव कर दिया। संसोधन ये किया कि वार्ड लेबल पर प्रबंधन और क्रियान्वयन समितिया बनेंगी, जिसका अध्यक्ष वार्ड मेंबर होगा। सरकार और सीधे इन समिति को पैसा ट्रांसफर करेगी, ग्राम सभा (मुखिया आदि) से संस्तुति लेकर काम होगा। 2018 से लागू है।"

प्राण आगे बताते हैं, "पहले वार्ड चुनाव में कोई दिलचस्पी नहीं लेता था लोग निर्वरोध चुन जाते थे लेकिन इस बार बहुत लोग खड़े हुए। बहुत जबरदस्त लड़ाइयां हुई। अब वार्ड मेंबर वहां पावर फुल हो गए है तो वहां कई जगह मुखिया के बीच संघर्ष शुरु हो गया है। एक-एक पंचायत में 10-10 मेंबर होते हैं तो तनाव बढ़ना लाजिमी है। वैसे भी पंचायत को पैसा आबादी के अनुमात में आता है, इसका मतलब वहां यूपी से पांच गुना पैसा आता होगा।"

वार्ड सदस्य की 500 रुपए सैलरी

बिहार में ग्रामशील एनजीओ के संचालक चंद्रशेखर भी प्राण की बातों को ही आगे बढ़ाते हैं। वे कहते हैं, "यूं तो वार्ड सदस्य पद पर जीत हासिल करने वाले उम्मीदवार को पांच सौ रुपये का ही महीना मिलता है। लेकिन पहले वार्ड का कोई काम मुखिया के हाथों होता था। वार्ड सदस्य का सिर्फ हस्ताक्षर जरूरी था। लेकिन अब मामला उल्टा हो गया है। इस सब के साथ देश में बढ़ता बेरोजगारी का आंकड़ा। इसलिए कुछ साल पहले तक जिस पद के सीट के लिए कोई दिलचस्पी नहीं थी। वहां संघर्ष हुआ है।"

"मैं अभी तक 4 से 5 पंचायत इलेक्शन में काम कर चुका हूं। पहले कई जगह निर्विरोध वार्ड सदस्य और पंच जीतते थे। लेकिन इस बार स्थिति ऐसी थी कि भागलपुर जिला के कई गांव में वार्ड सदस्य के वोटिंग के लिए दो-दो ईवीएम मशीन ले जाना पड़ा था। क्योंकि एक बैलेटिंग यूनिट में 16 कैंडिडेट्स के लिए वोटिंग की जा सकती है।" भागलपुर जिले में राय हरिमोहन ठाकुर बहादुर विद्यालय बरारी के शिक्षक विवेकानंद झा अपना अऩुभव बताते हैँ।

10000 की आबादी वाली सुपौल के बीना बभनगामा ग्राम पंचायत की इस दुकान के मालिक के मुताबिक चुनाव के दौरान वो रोज एक कुंटल मुर्गा बेचते थे।

शराब और मुर्गा के बिक्री से समझिए पंचायत चुनाव का रूतबा

सुपौल के बीना बभनगामा गांव की आबादी लगभग 10,000 हैं। गांव के चौक पर तीन मुर्गा का दुकान है। उसी में एक चिकेन शॉप के प्रोपराइटर जुबेर बताते हैं, "चुनाव से एक दिन पहले और रिजल्ट के दिन को मिला दिया जाए तो लगभग मेरे दुकान से लगभग 1 क्विंटल मुर्गा की बिक्री हुई है। पंचायत में मेरी जैसी 10-12 दुकान है। बाकी आप समझ लीजिए।"

चुनाव आयोग के मुताबिक वार्ड सदस्य व पंच प्रत्याशी 20 हजार रुपए तक चुनाव में खर्च कर सकते थे, जबकि मुखिया व सरपंच प्रत्याशी 40 हजार ही खर्च कर सकता था।

पंचायत चुनाव में मुखिया पद पर खड़े हुए एक उम्मीदवार जो खुद शराब को हाथ नहीं लगाते, उन्होंने चुनाव के तीन-4 दिन पहले तक ऐसा कोई प्रलोभन वाला काम नहीं किया था लेकिन बाद में भी इसमें कूद पड़े। नाम न छापने की शर्त पर खुद कहते हैं, "चुनाव से 3 या 4 दिन पहले तक मैं किसी को दारू और मुर्गा नहीं बांटा था, गांव में क्रिकेट का टूर्नामेंट करवाया और कुछ सामाजिक काम किया। हालांकि परिस्थिति कुछ ऐसी बन गई कि गांव के लोगों को नकद पैसे देकर शराब खरीदने और मीट मुर्गा खाने को देना पड़ा। इसके बावजूद भी हम 300 वोट से हार गए। लेकिन इस चुनाव में एक बात समझ में आ गया कि दारु पीने वाला व्यक्ति सभी दावेदारों या उम्मीदवारों से शराब लेता है लेकिन वोट उसी को देता है, जिसे देना पहले से तय कर लिया है।" बिहार में अधिकारिक रुप से शराब पर पाबंदी है लेकिन चुनाव में धड्डले से शराब परोस गई।

पासवान जाति को छोड़कर आज भी दलितों की स्थिति आज भी जस के तस

बिहार के औरंगाबाद ज़िले के कुटुम्बा प्रखंड के डुमरी पंचायत के सिंघना गांव में मुखिया चुनाव में वोट नहीं देने की वजह से मुखिया उम्मीदवार बलवंत सिंह ने अनिल कुमार और मंजीत कुमार, जो दलित जाति से आते हैं, कान पकड़ कर उठक-बैठक कराया, इतना ही नहीं, उन्हें थूक चाटने को मजबूर किया। वैसे भी बिहार में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा का लंबा इतिहास रहा है।

बिहार कांग्रेस प्रभारी भक्त चरण दास बताते हैं, " 38 जिला परिषद अध्यक्ष और उपाध्यक्ष में जहां 3% भूमिहार समाज के चार अध्यक्ष और 2 उपाध्यक्ष बने और 14% यादव समाज के 10 अध्यक्ष और 12 उपाध्यक्ष बने। वहीं दलित समुदाय की बात की जाए तो 7% पासवान को छोड़ दिया जाए तो बाकी बचे 10% दलित समुदाय के एक भी नेतृत्व करता अध्यक्ष और उपाध्यक्ष नहीं बना। यह रामविलास पासवान की ही देन है। पूरे बिहार में अगर आरक्षित सीट को हटा दिया जाए तो शायद पांच-दस ही ऐसा सीट होगी जहां पासवान छोड़कर कोई दूसरे जाति का दलित मुखिया या सरपंच बना होगा। नीतीश कुमार के 15 साल के शासन के बाद भी बाकी दलित सिर्फ एक वोट बैंक बन कर ही रह गए हैं।"

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी सबसे नीचे

यूं तो बिहार में पंचायत चुनाव पार्टी सिंबल पर नहीं लड़ा गया। इस सब के बावजूद भी पार्टी अपने लोगों को जिताने में कोई कसर नहीं छोड़ती। खासकर जिला परिषद अध्यक्ष और प्रमुख के पद पर। पंचायत चुनाव में यूपी की तरह बिहार में भी वंशवाद का खेल सालों से चलता आ रहा है।

बिहार की राजनीति को नजदीक से जानने वाले मैथिली लेखक और स्वतंत्र पत्रकार कौशल कुमार झा बताते हैं कि, "पंचायत चुनाव में विधायकों, सांसदों और पूर्व सांसदों के बेटे-बेटियों और बहूओं को टिकट देने की परंपरा पुरानी रही है। मतलब वंशवाद और परिवारवाद का जितनी जड़ पंचायत चुनाव में मौजूद हैं उतना और किसी चुनाव में नहीं है। लेकिन इस बार के पंचायत चुनाव में भी यह परंपरा टूटती नजर आई है। पंचायत चुनाव में पंचायतीराज मंत्री सम्राट चौधरी की भाभी मुखिया का चुनाव हारीं। वहीं इस बार 60 फीसदी से अधिक सीटों पर युवा चेहरों को जीत हासिल हुई हैं।"

वो आगे जोड़ते हैं, "बिहार की राजनीति में जाति बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस आधार पर देखा जाए तो सीएम नीतीश कुमार की जाति से मात्र एक अध्यक्ष बन पाया है। जबकि तेजस्वी यादव की जाति से 10 अध्यक्ष और 12 उपाध्यक्ष बने हैं। हालांकि सभी यादव राजद से ही नहीं है। वहीं 38 जिला परिषद अध्यक्ष में सिर्फ तीन जिला परिषद अध्यक्ष ऐसे हैं जिनका संबंध नीतीश कुमार की पार्टी से। बाकी राजद और बीजेपी से हैं।" आगे कौशल कुमार झा बताते हैं।

जाति की राजनीति की प्रयोगशाला हैं पंचायत चुनाव

'केवल सच' पत्रिका के संपादक बृजेश मिश्रा बताते हैं, "नीतीश कुमार के आने से 30 साल पहले तक पंचायत चुनाव नहीं हुआ था। नीतीश ने सत्ता में आते ही बिहार में पंचायत चुनाव करवाएं। इस चुनाव में भाई-भतीजावाद का खेल जमकर हुआ था। साथ ही बिना किसी पार्टी का झंडा लिए राजनीतिक दल से जुड़े कई लोग चुनाव जीते थे। नीतीश कुमार के शासनकाल में यह चौथा चुनाव था जो जात-पात, पार्टी से अछूता नहीं रहा। जाति की राजनीति की प्रयोगशाला हैं पंचायत चुनाव। जहां पर राजनीतिक दलों के द्वारा इसका टेस्ट किया जाता है।"

बिहार में पंचायती राज, हिंसा और विकास के मुद्दे पर तीसरी सरकार के चंद्रशेखर प्राण आखिरी लाइन कहते हैं, "बिहार में पंचायती राज किसी को समझया नहीं गया है वो ठेकदारी चल रही है, राज्य सरकार की योजनाओं की ठेकेदारी हो रही है बस।"

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