देश ने नेहरू को 17 साल का सत्ता सुख दिया

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देश ने नेहरू को 17 साल का सत्ता सुख दियागाँव कनेक्शन

आजकल संसद और उसके बाहर, टीवी और अखबारों में इस बात को लेकर गरमागरम चर्चा चल रही है कि गुजरात और राजस्थान की किताबों से जवाहर लाल नेहरू का नाम हटा दिया गया है लेकिन सम्बन्धित लोग कह रहे हैं हटाया नहीं गया है कुछ भूल सुधार हुई है। नाम हटाना या मिटाना भारत की संस्कृति नहीं है, यदि किन्हीं महापुरुषों के साथ अन्याय हुआ है तो छोटी लकीर के बगल में बड़ी लकीर खींच सकते हैं, यह बीरबल का फॉर्मूला है। बच्चों को भारत का दस हजार साल का इतिहास अपने सही परिपेक्ष्य में पढ़ाना ही होगा। वह इतिहास अंग्रेजों या कम्युनिस्टों का लिखा नहीं हो सकता, वह निष्पक्ष और तथ्याधारित होगा। 

जवाहर लाल नेहरू ने देश को बहुत कुछ दिया है लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि उनका त्याग और बलिदान दूसरों से अधिक है। भारत ने नेहरू परिवार को जितना दिया है वह भी कम नहीं है। देश ने नेहरू परिवार को करीब 36 साल तक प्रधानमंत्री की कुर्सी दी थी जिसके लिए बड़े-बड़े नेता लालायित रहते हैं और फिर त्याग और कुर्बानी की तुलना न करनी चाहिए और न सम्भव है। आप के ध्यान में होगा पचास के दशक में रूस के तत्कालीन प्रधानमंत्री निकिता ख्रुश्चेव ने स्टालिन के ताबूत को क्रेमलिन के कब्रिस्तान से खुदवाकर बाहर दफ़न कराया था। ऐसे काम कम्युनिस्ट तो करते हैं, यह भारतीय संस्कृति नहीं है।  

आजाद भारत की शुरुआत में गाँव-गाँव में कोई न कोई ऐसा व्यक्ति था जो आजादी की लड़ाई और आदर्शों के विषय में जानता था। हमारे गाँव के पड़ोस में कुम्हरावां में रामदेव आजाद और उनकी पत्नी दोनों ही आजादी की लड़ाई में जेल गए थे और जेल में ही उनका बेटा पैदा हुआ था। वे जब जेल में थे तब उन गरीब का घर खुदवा डाला गया था ऐसा कहते हैं। लोगों को त्याग और बलिदान का मतलब मालूम था। नमस्ते, जैराम और पैलग्गी के साथ ही ‘‘जै हिन्द” उनका अभिवादन हुआ करता था। बाद के दिनों में उस त्याग को भुनाने वाले लोग पैदा होते गए और नई पीढ़ी को आदर्श बताए नहीं गए। यह काम स्वयं कांग्रेस ने किया है।

आजकल पुराने नेता भी अपना जुझारू व्यक्तित्व भूल चुके हैं और मौजूदा परिस्थितियों के हिसाब से अपने को ढाल लिया है। दु:ख इस बात का है कि गाँव गरीबों का अपना प्रधानमंत्री नहीं बना। अटल जी और अन्य तमाम लोगों ने इस पद पर रहकर देश की सेवा की है परन्तु किसी ने इस सेवा को त्याग और बलिदान नहीं कहा। त्याग के नाम पर याद आते हैं महात्मा गांधी, जय प्रकाश नारायण, वीर सावरकर, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, राम मनोहर लोहिया और नाना जी देशमुख जो चाहते तो सत्ता सुख भोग सकते थे। इसलिए दुख इस बात का भी है कि देश के त्यागी और बलिदानियों के घरों को स्मारक नहीं बनाया गया, उनकी हजारों मूर्तियां नहीं लगीं, उनके नाम से योजनाएं और सड़कें नहीं बनी।  

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को अंग्रेजी हुकूमत में बड़ा ओहदा मिल सकता था क्योंकि वह आईसीएस की परीक्षा पास कर चुके थे। दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे, देश के नौजवानों के चहेते रहे, देश और विदेश में रहकर आजादी की लड़ाई लड़ी और अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। नेहरू जैसे नेताओं ने उनके साथ काम करने से मना कर दिया तब उन्होंने विदेश जाकर भारतीय राष्ट्रीय सेना बनाई और कोहिमा आकर आजादी का द्वार खटखटा दिया। विश्वास नहीं होता कि नेहरू जी उनके परिवार की खुफियागीरी कराते रहे। आप नहीं चाहेंगे नेता जी के आदर्श को देश के नौजवानों के सामने सही अर्थों में पेश किया जाए?

 

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