गाँव में कौन है बीमार, कौन बाहर से आया है, इसकी सटीक जानकारी आपको इनसे मिलेगी

गाँव में किसी को खांसी, जुखाम, बुखार तो नहीं? किन परिवारों के हैं वो लोग जो बाहर से आये हैं? दूसरे राज्यों से आये लोगों को कहां किया गया है क्वारेंटाइन? अगर आपको इन सवालों के सटीक जवाब चाहिए तो आप भारत के हर गाँव में तैनात आशा कार्यकर्ता से मिलिए। जो इस समय घर-घर जाकर ये जानकारियां जुटा रही है।

Neetu SinghNeetu Singh   7 April 2020 3:21 PM GMT

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गाँव में कौन है बीमार, कौन बाहर से आया है, इसकी सटीक जानकारी आपको इनसे मिलेगी

भारत के गांवों में इस समय क्या चल रहा है? गाँव में किसे खांसी, जुखाम और बुखार है? हर गाँव में कितने लोग दूसरे राज्यों से आये हैं? किसे कहां रखा गया है? कितने लोगों की कोविड-19 की जांचे हुई हैं या होनी हैं?.

अगर आपको इन सब सवालों की सटीक जानकारी चाहिए तो आप स्वास्थ्य विभाग की इस 'पैदल फौज' से मिलिए। ये फौज दस लाख से ज्यादा उन महिलाओं की हैं जिनके कंधे पर भारत के स्वास्थ्य व्यवस्था की जिम्मेदारी है

"इस समय हमारी एक भी दिन की छुट्टी नहीं है। हमारा काम घर-घर जाकर लोगों को सही तरीके से हाथ धुलना, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करवाना और मास्क लगाने के फायदे बताना है। इसके अलावा एक फार्मेट भी भरने को दिया गया है जिसमें कुछ सवाल हैं जैसे-परिवार में किसी को सर्दी,खांसी,जुखाम,बुखार और सांस लेने में कोई दिक्कत तो नहीं है। घर में कोई बाहर से तो नहीं आया। यही सब सवाल पूंछकर इसमें भरते हैं," आशा कार्यकर्ता रेखा जाटव (41 वर्ष) ने अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या बताई।

ये हैं झारखंड की सहिया दीदी (आशा कार्यकर्ता).

रेखा जाटव उन दस लाख से ज्यादा आशा कार्यकर्ताओं में से एक हैं जो ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की महत्वपूर्ण रीढ़ हैं। रेखा की तरह देश की सभी आशा कार्यकर्ता इस समय अपने-अपने गाँव की पल-पल की खबर स्वास्थ्य विभाग तक पहुंचा रही हैं जिससे इस वायरस के संक्रमण से ज्यादा लोग प्रभावित न हो सकें। स्वास्थ्य विभाग के पास गाँव की खबर उनतक पहुँचाने में आशा कार्यकर्ता ही एक मात्र माध्यम है।

इन आशा कार्यकत्रियों का काम चर्चा या सुर्खियाँ भले ही बन पाए पर काम काबिले तारीफ़ है। इनकी मदद के बिना बाहर से आये लोगों की पहचान कर पाना स्वास्थ्य विभाग के लिए एक बड़ी चुनौती थी। ये पांच से छह घण्टे ही सो पाती हैं, घर का काम निपटाकर गांव की गलियों में घूमने लगती हैं। ये इस समय किसी के घर के अन्दर नहीं जा रही हैं। बाहर से ही आवाज़ देकर बुलाती हैं। ग्रामीणों को हाथ धुलने का सही तरीका बताना, उचित दूरी बनाकर खड़े होना और मास्क बाँधने के फायदे गिनाती हैं।

एक हजार आबादी पर एक आशा कार्यकर्ता होती है। ज्यादा आबादी वाले गाँवों में ये संख्या बढ़ जाती है। कुछ राज्यों में आशा कार्यकर्ताओं को एक निश्चित मानदेय मिलता है जबकि कई जगह उनके काम के आधार पर उन्हें प्रोत्साहन राशि दी जाती है। इन्हें इनकी जिम्मेदारियों के अनुसार बहुत ज्यादा मानदेय नहीं मिलता है।


सरकार ने कोरोना वायरस की इस लड़ाई में सबसे आगे खड़े 'कोरोना वॉरियर्स' के लिए वित्तीय सुरक्षा का एलान किया है। मेडिकल स्टाफ से लेकर आशा कार्यकर्ता और सफाई कर्मी जो ऐसे समय में अपनी जान जोखिम में डालकर काम कर रहे हैं ऐसे लोगों के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1.70 लाख करोड़ रुपये की घोषणा की है जिसमें सभी का 50 लाख रुपये का इंश्योरेंस शामिल है।

आशाओं की इस समय कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है इसे बिहार के पूर्णिया जिले के जिलाधिकारी राहुल कुमार की इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है, "बाहर से आये जितने भी लोग सेल्फ होम क्वारेंटाइन में हैं, इनकी पूरी देखरेख गाँव में तैनात आशा बहु, आंगनबाड़ी और एनम कर रही हैं।"

ये बात सिर्फ बिहार के पूर्णिया जिले की ही नहीं है बल्कि देश के हर जिले के हर गाँव की है जहाँ आशा बहुएं अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रही हैं।

"गाँव में जो लोग बाहर से आये हैं उन्हें कहाँ क्वारेंटाइन किया गया है इसका भी रेगुलर फालोअप कर रहे हैं। रोजाना 30-35 घर में जाते हैं। लोगों को खुद के बचाव की जानकारी भी देते हैं और फार्मेट भी भर लेते हैं। रोज की रोज रिपोर्ट आशा सहयोगी को भेजनी पड़ती है," रेखा ने बताया। रेखा मध्यप्रदेश के भोपाल शहर के वीनापुर गाँव की आशा कार्यकर्ता हैं।

कोरोना वायरस का संक्रमण ज्यादा लोगों में न फैले इसमें सबसे अहम भूमिका इस समय आशा कार्यकर्ता की है। लॉक डाउन के बाद लाखों की संख्या में मजदूर अपने गाँव को लौटे हैं जो वर्षों पहले रोजगार की तलाश में अलग-अलग राज्यों में गये थे। ये मजदूर भीड़भाड़ जगहों से होकर आये हैं। इनमे किसी भी तरह का कोई संक्रमण तो नहीं एहतियात बरतने के लिए इन्हें गाँव के बाहर पंचायत भवन, सरकारी स्कूल में 14 दिन के लिए क्वारेंटाइन किया गया है। कुछ लोग अपने घरों में भी सेल्फ क्वारेंटाइन हैं। ऐसे लोगों की पूरी जानकारी इन आशाओं के पास है।

आशा कार्यकर्ता स्वास्थ्य विभाग की वो आखिरी कड़ी है जो भारत के गांवों में तैनात है। इन्हें सरकारी कर्मचारी का दर्जा भले ही न मिला हो लेकिन स्वास्थ्य विभाग की ये महत्वपूर्ण इकाई हैं। इनके पास अपने गाँव के हर परिवार की सटीक जानकारी होती है क्योंकि ये उसी गाँव की रहने वाली होती हैं। इन आशा कार्यकर्ता को अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे यूपी में इन्हें आशा बहु तो झारखंड में सहिया दीदी और मध्यप्रदेश में आशा कहते हैं।

रेखा हर घर की जो जानकारी अपने फार्मेट में भर्ती हैं वो सही या नहीं, उसमें कुछ छूट तो नहीं गया इसकी मानीटरिंग उसी क्षेत्र में तैनात आशा सहयोगी करती हैं। एक आशा सहयोगी की देखरेख में 10-25 तक आशाएं होती हैं। भोपाल के ईंट खेड़ी गाँव में रहने वाली आशा सहयोगी सविता शर्मा (42 वर्ष)14 आशाओं को मानीटर करती हैं।

ये हैं भोपाल के ईंट खेड़ी गाँव में रहने वाली आशा सहयोगी सविता शर्मा जो 14 आशाओं को मानीटर करती हैं।

सविता शर्मा बताती हैं, "आशा अपने गाँव के हर घर में चूल्हे तक जाती है। मतलब गाँव के लोगों को आशा पर बहुत भरोसा होता है क्योंकि वो उसी गाँव की एक पढ़ी-लिखी महिला होती है। हर घर की सही जानकारी आशा के माध्यम से ही हमें मिलती है पर फिर भी हम उसे मानीटर करने जाते हैं कि कहीं कुछ छूटा तो नहीं।" वो आगे बताती हैं, "हमारे ही क्षेत्र में चार जमाती मस्जिद में पकड़े गये जिन्हें कोरोना पॉजिटिव है। आसपास डर का माहौल तो है पर किसी भी आशा ने अपना काम बंद नहीं किया। काम के हिसाब से आशाओं को उतना पैसा नहीं मिलता पर फिर भी वो डटी रहती हैं, चाहें उन्हें कोई भी काम सौंप दो।"

ग्रामीण महिलाओं और बच्चों की सेहत की देखभाल के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ने वर्ष 2005 में आशा कार्यकर्ता (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) का पद सृजित किया था। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के आंकड़ों के अनुसार सितंबर 2018 तक देश में कुल आशा कार्यकर्ताओं की संख्या लगभग 10 लाख 31,751 है। ग्रामीण स्तर इन आशा कार्यकर्ता की यह जिम्मेदारी है कि ये गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं की देखरेख करें। बुनियादी प्राथमिक चिकित्सा सुविधाओं को घर-घर पहुंचाएं। इन कार्यों के अलावा जरूरत पड़ने पर स्वास्थ्य विभाग इन्हें और कई जिमेदारियां सौंप देता है जिसे ये बखूबी निभाती हैं। आबादी के अनुसार एक जिले में 1,000 से 2,500 आशा कार्यकर्ता होती हैं।

जिस कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाने के लिए ये आशा बहु दिन रात एक कर रही हैं उसी कोरोना वायरस के संक्रमण से अबतक दुनियाभर में 13 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं वहीं 73,000 से ज्यादा लोगों की मौत हो गयी है। भारत में इस वायरस से संक्रमित मरीजों की संख्या 4,000 से ज्यादा हो गयी है। उपचार के दौरान 325 लोग ठीक हुए हैं जबकि 114 लोगों की मौत हो गयी है।

लखनऊ के माल ब्लॉक की आशा संगिनी ग्रामीणों को जागरूक कर रही हैं.

गाँव में तैनात इन आशा कार्यकर्ताओं की पहुंच उन सुदूर दुर्गम गांवों तक होती है जहाँ पहुंचने से अकसर लोग कतराते हैं। लाली गोप झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के घाटशिला ब्लॉक के हलुदबनी गाँव की सहिया दीदी (आशा कार्यकर्ता) हैं जहाँ सबर आदिवासी रहते हैं। ये जनजाति अति पिछड़ी मानी जाती है इन्हें समझा पाना मुश्किल काम है पर लाली रोज इस मुश्किल काम को सफल बनाती हैं।

"इन्हें लगता है सरकार इसलिए इन्हें घरों में कैद किये है जिससे वो इनकी जमीन पर कब्जा कर सके। इन्हें समझान मुश्किल होता है। ये बहुत गरीब होते हैं इनके लिए बार-बार साबुन से हाथ धोना संभव नहीं है। इन्हें बहुत बार समझाना पड़ता है। कई बार एक परिवार को समझाने में बहुत समय लग जाता है पर फिर भी गुस्सा नहीं आता है। हम सोचते हैं इनको हमारे अलावा कौन बतायेगा?" लाली गोप (38 वर्ष) ने बताया।

लाली गोप अपने काम की हर दिन की रिपोर्ट सहिया साथी को भेजती हैं। इनकी सहिया साथी भाषा शर्मा (40 वर्ष) ने बताया, "हमें रोज गाँव-गाँव इसलिए जाना पड़ता है कि जो जानकारी हमें सहिया दीदी दे रही है वो सही है या नहीं, कहीं कुछ छूटा तो नहीं। अभी तो गर्मी भी बहुत हो गयी है पर कोई भी सहिया दीदी इस समय आराम नहीं करती। रोज 40-50 घर एक सहिया दीदी जाती है क्योंकि ये रिपोर्ट रोज की रोज जाती है।" भाषा शर्मा जोड़ीसा गाँव की रहने वाली हैं जिनके अधीन 18 सहिया दीदी (आशा कार्यकर्ता) आती हैं।

रजिस्टर में सहिया दीदी की रिपोर्ट लिखती सहिया साथी भाषा शर्मा.

झारखंड के चतरा जिले के जिला कार्यक्रम समन्यवक उदय शरण प्रसाद ने बताया, "इस समय अगर ये आशा न होती तो स्वास्थ्य विभाग के पास गाँव की जानकारी लेने का और कोई दूसरा माध्यम ही नहीं है। आशा को हर दिन रिपोर्ट करना होता है कि वो कितने घरों में गयी, राज्य से बाहर के कितने लोग आये हैं? जो लोग बाहर से आये हैं उनकी मौजूदा समय में क्या स्थिति है इन सबकी जानकारी हमें इनसे ही मिलती है।"

लखनऊ के माल ब्लॉक के ब्लॉक कम्युनिटी प्रोसेस मैनेजर विवेक नवल मिश्रा ने बताया, "इस समय एक हफ्ते से सर्वे कोविड-19 चल रहा है जिसे आशा बहुएं कर रही हैं। आशा की इस समय दो महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां हैं पहली लोगों को जागरूक करना दूसरी गाँव में बाहर से आये हर व्यक्ति की पूरी जानकारी रखना।"

"अगर ग्रामीणों में सर्दी, जुखाम, बुखार के थोड़े बहुत भी लक्षण दिखते हैं तो उन्हें तुरंत सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र इलाज के लिए भेज देते हैं।" आशा संगिनी रंजना द्विवेदी (45 वर्ष) ने बताया।

आशा बहु स्वास्थ्य विभाग की वो आखिरी सिपाही है जो हमेशा गाँव में कुपोषण, टीकाकरण, स्वच्छता प्रबंधन की किशोरियों के संग मीटिंग, कई-कई दिन अस्पताल में गुजारना और दिन भर भूखे-प्यासे कई किमी. पैदल चलना इनके लिए आम बात है।


  

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