किसानों की जिंदगी और खेती को जहरीला कर रहीं कीटनाशक कंपनियां

कीटनाशकों का अरबों रुपए का कारोबार करने वाली कम्पनियां किसानों की मजबूरी का फायदा उठा रही हैं… गाँव कनेक्शन की 'किसान प्रोजेक्ट'श्रृंखला में उन मुद्दों पर बात होगी, जो किसान की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं…

Arvind ShuklaArvind Shukla   26 Jun 2018 6:00 AM GMT

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अरविंद शुक्ला/दिवेंद्र सिंह
लखनऊ। अगर आप अपने खेत में साल भर में पचास हज़ार रुपये का कीटनाशक झोंकते हैं - और अनजाने में फसल को नुकसान भी पहुंचाते हैं - तो आपकी फसल महज़ कुछ सौ रुपयों में चकाचक हो सकती है, बिना रसायनों के ज़हरीले प्रभाव के।
विडम्बना देखिये: भारत के कृषि मंत्रालय के एक छोटे से विभाग के पास एक रामबाण इलाज है खेती की महज़ कुछ रुपयों में कायाकल्प करने और खतरनाक केमिकलों से मुक्त करने का, लेकिन वो ठन्डे बस्ते में है। दूसरी तरफ वही सरकार खरबों रुपये के कीटनाशक कारोबार को बिना किसी अंकुश के फलने फूलने दे रही है। इस से देश भर में खेती बरबाद हो रही है और करोड़ों लोगों की सेहत खतरे में है।
हरित क्रांति के बाद कीटनाशकों और उर्वरकों के सीमित और उचित प्रयोग के साथ ही किसानों को वैकल्पिक फसल सुरक्षा प्रबंधन समझाने के लिए वर्ष 1970 में एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) की शुरुआत की गई। इस प्रक्रिया से पर्यावरण के अनुकूल होकर जैविक और यंत्रों के द्वारा कीटों पर नियंत्रण किया जाता है और आखिरी उपाय कीटनाशक इस्तेमाल है। आईपीएम पद्धति में फसलों का रखरखाव खर्च लगभग न के बराबर है, लेकिन इन तरीकों के बारे में न तो किसान जानते हैं, न ही उन्हें बताने की कोशिशें हुईं। करोड़ों किसानों की किस्मत बदल सकने वाले इस विभाग में देश भर में पांच सौ से भी कम लोग काम करते हैं।
यूपी के बाराबंकी जिले में रहने 10वीं पास मुकेश को आईपीएम की कोई जानकारी नहीं है। मुकेश बताते हैं, "दुकानदार जो दवाएं दे देता है, वही लाता हूं। रासायनिक दवाओं (फसल प्रबंधन रसायन) के अलावा कोई उपाय होता है, मैंने कभी इसके बारे में नहीं सुना।"
किसान के खुलासे पर यकीन करके हालात का अंदाजा लगाइए
एक एकड़ जमीन में मिर्च की खेती करने वाले किसान मुकेश वर्मा हर हफ्ते 1 हजार से लेकर 3 हजार रुपए तक की रासायनिक दवाओं का छिड़काव खेत में करते हैं। पच्चीस बीघे जमीन के मालिक मुकेश का सालाना कीटनाशक और खरपतवार पर करीब 50 हजार रुपए का खर्च है। अगर वो आईपीएम का इस्तेमाल करते तो ये पूरा खर्च महज कुछ सौ रुपए का होता।


'सरकार के नियम कायदे बहुत कमजोर हैं'
भारत में पर्यावरण और खाद्य सुरक्षा को लेकर काम करने वाली संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट के सीनियर प्रोग्राम मैनेजर फूड एंड टॉक्सिस, अमित खुराना 'गाँव कनेक्शन'को बताते हैं, "कीटनाशकों के निर्माण से लेकर बिक्री और उसके इस्तेमाल के लिए सरकार के जो नियम कायदे हैं, वो बहुत कमजोर हैं। प्रबंधन कमजोर है। किसान कंपनियों के प्रभाव में है, कंपनी के मार्केटिंग एजेंट जो कहते हैं, जो दुकानदार बताता है, किसान वो करता है। जबकि ये काम सरकार को करना चाहिए था, इसीलिए सब समस्याएं हैं।"


'जो आखिरी आदमी पहुंचता है, वो कंपनी का कर्मचारी है'
अमित खुराना आगे बताते हैं, "क्योंकि किसान के पास जो आखिरी आदमी पहुंचता है, वो किसी कंपनी का कर्मचारी है, जिसे ज्यादा से ज्यादा माल बेचना है। वो डॉक्टर नहीं, जो इसका नफा-नुकसान बता पाते। सरकार के कृषि विभाग विस्तार ने ये खाली जगह छोड़ रखी है, जिसे कंपनियां भर रही हैं, जबकि होना ये चाहिए कि कंपनी और किसान के बीच सरकार के प्रशिक्षित लोग हों।"
अमित के मुताबिक, कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल पर रोक इसलिए भी नहीं लग पा रही है, क्योंकि सरकार के कर्मचारी भी रासायनिक कीटनाशनक को लेकर प्रशिक्षित नहीं हैं। भारत में अभी तक जैविक की मुहिम पूरी किसानों के सहारे रही है।
कीटनाशकों के निर्माण से लेकर बिक्री और उसके इस्तेमाल के लिए सरकार के जो नियम कायदे हैं, वो बहुत कमजोर हैं। किसान, कंपनियों के प्रभाव में है, जो दुकानदार बताता है, किसान वो करता है। जबकि ये काम सरकार को करना चाहिए था,
- अमित खुराना, सीनियर प्रोग्राम मैनेजर, फूड एंड टॉक्सिस, सीएसई

कीटनाशक कंपनियों के आगे सिर झुका रहीं सरकारें
बीस राज्यों से 400 किसान संस्थाओं के समूह किसान स्वराज की सदस्या कविता कुरुगंति बताती हैं, "देश की सरकारें कीटनाशक कंपनियों के आगे सिर झुका रही हैं। हमारे देश में 104 ऐसे कीटनाशक बिक रहे हैं जो दूसरे एक या एक से ज्यादा देशों में प्रतिबंधित हैं। दुनिया के आंकड़े बताते हैं कि बिना कीटनाशक और उर्वरक अच्छी खेती हो सकती है, लेकिन सरकार इस पर ध्यान नहीं दे रही।"
भारत में हर साल कीटनाशक से जुड़े 10 हजार मामले
भारत में करीब 250 तरह के कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें से 18 क्लास वन (सबसे घातक) हैं। इनका अंधाधुंध और गैर जरूरी इस्तेमाल किसानों के लिए जानलेवा और पर्यावरण के लिए घातक साबित हो रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2015 में 7062 लोगों की मौत कीटनाशकों से हुई थी। सीएसई के मुताबिक, भारत में औसतन कीटनाशकों से जुड़े 10 हजार मामले हर साल सामने आते हैं।
कीटनाशकों पर प्रतिबंध: कब-क्या हुआ
पिछले साल महाराष्ट्र के यवतमाल में 35 किसानों की मौत के बाद कीटनाशकों पर प्रतिबंध की मांग ने तेजी पकड़ी। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, लेकिन सरकार ने इस मामले में अब तक तो कदम उठाए हैं, वो सवाल खड़े करते हैं।
अप्रैल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने यवतमाल की घटना के बाद दाखिल एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार को निर्देश दिए कि वे 18 क्लास वन कीटनाशकों पर पाबंदी के लिए तुरंत कदम उठाए। ये वो कीटनाशक हैं, जो दुनिया के बाकी हिस्सों में प्रतिबंधित हैं।
इससे पहले वर्ष 2013 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की पूर्व प्रो. अनुपमा वर्मा की अगुवाई में गठित कमेटी ने वर्ष 2015 में 18 में से 12 कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाने, जबकि 6 अन्य को क्रमवार बैन करने की अनुशंसा की थी।
इसके बाद वर्ष 2016 में कृषि मंत्रालय ने इस पर नोटिफिकेशन जारी किया, लेकिन इसी के साथ एक और कमेटी जेएस संधू की अगुवाई में गठित कर दी गई। इतना ही नहीं, इसके बाद अक्टूबर 2017 में एसके मेहरोत्रा कमेटी का गठन हुआ, एक जनवरी से 2018 से इनमें से 3 कीटनाशक बैन करने की बात चली, लेकिन वो भी नहीं हो पाया। मामले की सुनवाई अब अगस्त 2018 में होनी है।
देश की सरकारें कीटनाशक कंपनियों के आगे सिर झुका रही हैं। हमारे देश में 104 ऐसे कीटनाशक बिक रहे हैं जो दूसरे एक या एक से ज्यादा देशों में प्रतिबंधित हैं। दुनिया के आंकड़े बताते हैं कि बिना कीटनाशक और उर्वरक अच्छी खेती हो सकती है लेकिन सरकार इस पर ध्यान नहीं दे रही।-कविता कुरुगंति, सदस्या, किसान स्वराज और सुप्रीमकोर्ट में याचिकाकर्ता
वर्ष 2019 तक 51 खरब रुपए हो जाएगा कीटनाशकों का कारोबार
अब रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक उद्योग की रफ्तार पर नजर डालते हैं। नेशनल कांफ्रेंस ऑन एग्रोकेमिकल्स में जारी फिक्की और टाटा स्ट्रैटजिक मैनेजमेंट ग्रुप (टीएसएमजी) ने 'अशरिंग इन दि सेकण्ड ग्रीन रिवोल्यूशन- रोल ऑफ क्रॉप प्रोटेक्शन केमिकल्स'नाम की रिपोर्ट में बताया है कि भारतीय फसल संरक्षण रसायन उद्योग 2014 में 4.25 बिलियन अमरीकी डॉलर का था, जो 2019 तक बढ़कर 7.5 बिलियन अमेरिकी डालर यानि 51 खरब रुपए का हो जाएगा। यानि की पांच साल में ये कारोबार लगभग दोगुना हो जाएगा।
आईपीएम प्रयोगशाला से बाहर नहीं निकल पाया
देश के ग्रामीण और खेती के मामलों के वरिष्ठ पत्रकार राज्यसभा टीवी में संसदीय मामलों के संपादक अरविंद कुमार सिंह बताते हैं, "आईपीएम का काम है, ऐसी तरकीबों को विकसित करना, जिसमें कीड़ों को मारने की जरुरत न पड़े। बीज और जमीन को शोधित कर लिया जाए ताकि रोग कम लगें, लेकिन आईपीएम प्रयोगशाला से बाहर नहीं निकल पाया, इसकी एक वजह अरबों रुपए की कीटनाशक ताकतवर उद्योग है, जो किसानों के उपयोगी ऐसी चीजों को आगे बढ़ने नहीं देना चाहती।"


करीब 20 दुकानों से रोजना 2 लाख रुपए कीटनाशक की खरीद
अरविंद कुमार सिंह के तर्कों को समझने के लिए मुकेश वर्मा के क्षेत्र को समझने की कोशिश करते हैं। मुकेश यूपी के बाराबंकी जिले में सूरतगंज ब्लॉक के सिद्धनपुर गाँव के रहने वाले हैं। ये इलाका मिर्च और मेंथा का गढ़ है। करीब 25 गाँवों के किसान स्थानीय कस्बे से खरपतवार और कीटनाशक खरीदते हैं।
करीब 20 दुकानों वाले इस कस्बे के एक दुकानदार के मुताबिक औसतन इसी कस्बे से रोजाना 2 लाख से ज्यादा रुपए की कीटनाशक दवाएं बिकती हैं। अगर मुकेश आईपीएम तक, या आईपीएम मुकेश तक पहुंचता तो उनके मिर्च में सुंडी और पत्ती मुड़ने वाले रोग के लिए आईपीएम के वैज्ञानिक जो इलाज बताते, वो शायद कुल जमा 100 रुपए का होता, ये खर्च भी एक बार के लिए है, जबकि मुकेश हर हफ्ते मोटी रकम खर्च करते हैं।
लखनऊ के इंजीनियरिंग कॉलेज के पास स्थित आईपीएम के सहायक वैज्ञानिक राजीव कुमार, मुकेश के लिए उपाय बताते हैं, "पत्ते मुड़ने से रोकने के लिए विक्टर मैनेजमेंट करते हैं और वेक्टर ट्रैप लगाते हैं, सुंडी और सफेद मक्खी के लिए ट्राइकोकार्ड और फोरमैन टैप बनाते। जो मुश्किल से 10-25 रुपए में बनता। एक बार बनाने से डेढ़ महीने तक काम करता है। इन्हें दोबारा भी इस्तेमाल कर सकते हैं।"
किसानों तक आईपीएम का तरीका कैसे पहुंचेगा, समझना मुश्किल है
राजीव और उनके टीम के दूसरे सदस्य किसानों तक पहुंचते हैं, मगर यूपी सरकार के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में 2 करोड़ 30 लाख किसान हैं। जबकि आईपीएम लखनऊ में 12 सदस्यीय टीम है। इसी तरह आगरा और गोरखपुर में सेंटर है। लखनऊ सेंटर में करीब 47 जिले आते हैं। ऐसे में किसानों तक आईपीएम का तरीका कैसे पहुंचेगा, समझना मुश्किल है।
आईपीएम तकनीकी न अपनाने की वजह
आईपीएम में राजीव के सीनियर वैज्ञानिक मनोज कुमार शुक्ला बताते हैं, "हम एडवाइजरी अथॉरिटी हैं, फसल में जो दिखता है उसकी रिपोर्ट हर हफ्ते केंद्र को भेजते हैं, इन्हें लागू कराने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की बाकी एजेसियों की है। इसके लिए जिलों में पादप रक्षा अधिकारी समेत ब्लॉक स्तर तक कर्मचारी हैं। इसके साथ ही हम फार्मर स्कूलों के माध्यम से किसानों को जागरुक करते हैं। किसानों में जागरुकता का अभाव आईपीएम तकनीकी न अपनाने की वजह।"


       

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