'देश में औसत बारिश का अनुमान हमारे काम नहीं आता'

पिछले दो दशकों में देश में कई साल सूखे के हालात के रहे हैं। हमें यह भी अनुभव है कि जब सामान्य बारिश का अनुमान लगता है तब भी देश में कई जगह पानी कम बरसता है

Suvigya JainSuvigya Jain   15 April 2019 9:09 AM GMT

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देश में औसत बारिश का अनुमान हमारे काम नहीं आता

बारिश के पूर्वानुमान आने शुरू हो गए हैं। एक गैरसरकारी विशेषज्ञ एजेंसी स्काईमेट का अनुमान है कि इस साल बारिश कम होगी। जबकि गुजरे साल में भी पानी कम गिरा था। इस समय आधा देश सूखे की चपेट में बताया जा रहा है।

वैसे तो कुदरत से मिलने वाले जल के मामले में हमारी गिनती जल संपन्न देशों में हैं। लेकिन हम उन देशों में भी शामिल हैं जहां आधी से ज्यादा खेती की जमीन पर सिंचाई का इंतजाम नहीं है। यानी आधे से ज्यादा खेती सिर्फ बारिश पर ही निर्भर है। उपर से भयावह स्थिति यह है कि देश का आधा हिस्सा इस साल सूखे की चपेट में है। इसीलिए इस बार भी बारिश कम होने के अनुमान हमें ज्यादा ही डरा रहे हैं।

कई बार ऐसे कटु अनुभव हो चुके हैं

वैसे कम बारिश का हमें कई बार का अनुभव है। पिछले दो दशकों में देश में कई साल सूखे के हालात के रहे हैं। हमें यह भी अनुभव है कि जब सामान्य बारिश का अनुमान लगता है तब भी देश में कई जगह पानी कम बरसता है। उसी साल कुछ क्षेत्रों में भारी बारिश हो जाती है और बाढ़ से भारी नुकसान भुगतना पड़ता है। यानी देश में औसत बारिश का अनुमान हमारे काम नहीं आता।

भले ही बारिश के नापने के लिए हमने देश को चार जोन में बांट रखा है, लेकिन अलग अलग जोन में वर्षा का अनुमान अलग अलग लगाने का तंत्र अभी विकसित नहीं हो पाया है।

पिछले साल जोन के लिहाज से बहुत फर्क था

इस समय मौसम विभाग जिन चार जोन में बारिश के आंकड़े जारी करता है वे हैं पूर्व और उत्तरपूर्व, उत्तरपश्चिम भारत, मध्य भारत और दक्षिण प्रायद्वीप। पिछले साल मानसून के आंकड़ों पर गौर करें तो पूर्व और उत्तरपूर्व भारत में बहुत ही कम बारिश हुई थी। जबकि दक्षिण भारत बाढ़ से जूझ रहा था। खासतौर पर केरल में भारी तबाही मच गई थी। जबकि बारिश का पूर्वानुमान पूरे देश में औसतन सामान्य बारिश होने का था। यानी पूरे देश में औसत बारिश का अनुमान भले ही ज्यादा न गड़बड़ाया हो लेकिन अलग अलग जोन के लिहाज से तो सबकुछ ही गड़बड़ा गया था। इसीलिए कहीं महीनों बाद आईआईटी गांधीनगर के विशेषज्ञों के विश्लेषण से पता चला कि आधा देश सूखे की चपेट में है। तो फिर बारिश के ऐसे पूर्वानुमान किस काम के हैं।

देश में ओसत बारिश का अनुमान ही जब आठ दस फीसद गलत बैठ जाता है तो जोन के लिहाज से अनुमान में गलती 20 से पच्चीस फीसद हो गई थी।

बारिश के अनुमान कहां काम आते हैं?

बारिश के अनुमान में जोखिम यह है कि इसी अनुमान को देखकर किसानों को कर्ज और फसलों का बीमा करने वाली निजी कंपनियां अपने व्यापार का हिसाब लगाती हैं। इतना ही नहीं अनाज के दाम में भारी उतार चढ़ाव में बारिश के अनुमान की भी बड़ी भूमिका होती है।

कोई शक नहीं कि अगर किसान को बारिश का अंदाजा हो जाए तो उसे सुविधा हो जाती है। वह बेचारा बारिश के अनुमानों के आधार पर फसलों का चुनाव, बुआई का समय और सिंचाई का हिसाब बैठाता है और अनुमान गलत हो जाने से बर्बाद हो जाता है।

दो चार साल से अपने देश में तो नया रोना यही हो गया है कि कहीं सूखे के मारे किसान राहत मांग रहे होते हैं और कहीं बाढ़ पीडि़त सरकार से मदद चाह रहे होते हैं। बारिश के मामले में पिछले साल का अपना अनुभव बहुत कटु है।

बांधों में पानी के नियमन में भी काम आते हैं अनुमान

बारिश के अनुमान बांधों में पानी के नियमन में भी काम आते हैं। हर बांध की अपनी क्षमता होती है। उससे ज्यादा पानी जमा होने से उनके टूटने का खतरा होता है। इसीलिए जल विज्ञानी और सिंचाई विभाग के इंजीनियर हमेशा सहमे रहते हैं कि बांध के जल ग्रहण क्षेत्र में अचानक ज्यादा बारिश न हो जाए।

इसलिए हर पल उन्हें यह देखते रहना पड़ता है कि मौसम विभाग दैनिक आधार पर या साप्ताहिक आधार पर मौसम की क्या भविष्यवाणी कर रहा है। वैसे आमतौर पर चलन यही है कि जोखिम कम करने के लिए बांधों में क्षमता से कम पानी जमा रखा जाता है। अगर कभी ज्यादा बारिश का अनुमान होता है तो सिंचाई विभाग अपने बांधों में जमा पानी को निकालने लगता है और अगर ज्यादा बारिश का अनुमान गलत निकल जाए तो वे बांध खाली रह जाते हैं। गौरतलब है कि पिछले साल केरल में आई बाढ़ से भारी तबाही का एक कारण बारिश के पूर्वानुमानों में कोताही ही बताई गई थी।

आधी से ज्यादा खेती आज भी बारिश के भरोसे

देश के कुल किसानों में वर्षाधारित खेती करने वाले किसान 61 फीसद है। खेती की कुल जमीन में सिर्फ 45 फीसद खेतों तक ही सिंचाई की सुविधा है। ये भी सरकारी आंकड़ा है। जबकि जहां सिंचाई सुविधा का दावा किया जाता है वहां की नहरों में पर्याप्त पानी पहुंचना हमेशा ही विवादों के घेरे में रहता है। फिर भी सरकारी हिसाब से ही देखें तो इस समय आधी से ज्यादा जमीन पर खेती बारिश पर ही टिकी है। मोटे अनाज का तो लगभग पूरा उत्पादन यानी 89 फीसद उत्पादन बारिश पर ही निर्भर है। दालें 88 फीसद, तिलहन 69 फीसद और चावल 40 फीसद बारिश के भरोसे ही उग रहा है।

जीडीपी में वर्षाधारित खेती की हिस्सेदारी

अगर कुल कृषि सकल घरेलू उत्पाद में वर्षाधारित खेती की भागीदारी देखें तो वह 60 फीसद है। लेकिन सरकारी खर्च के मामले में अनुपात एकदम गड़बड़ाया हुआ है। ज्यादातर सरकारी खर्च सिंचित क्षेत्रों में है। वर्षाधारित खेती पर सही निवेश ना होने से उसकी पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है।

नेशनल रेनफेड एरिया अथॉरिटी की सीईओं अशोक ददलानी ने कुछ समय पहले ही बताया था कि अपने देश में सिंचित क्षेत्र की औसत उपज 2 दशमलव आठ टन प्रति हैक्टेयर है। इसके बरक्स वर्षाधारित क्षेत्र में उपज सिर्फ एक दशमलव एक टन ही है यानी आधी से भी बहुत कम। इस बारे में ददलानी ने वर्षा आधारित खेती के क्षेत्र में शोध और विकास का कार्य करने का सुझाव दिया था। हालांकि प्रबंधन के लिहाज से पहली नजर में ही यह सुझाव बन सकता है कि देश में बांधों और नहरों का संजाल बढ़ाने की जरूरत है। यानी देश में बारिश के दिनों में ज्यादा से ज्यादा पानी को रोककर रखने की जरूरत है ताकि जरूरत के दिनों में वह पानी खेतों तक भेजा जा सके।

जल संचयन ही सबसे बड़ा उपाय

सूखे के जोखिम को कम करने का सबसे बड़ा उपाय जल भंडारण क्षमता बढ़ाना ही है। बस देखना यह पड़ेगा कि जल भंडारण क्षमता बढ़ाने की कितनी गुंजाइश बाकी है? और इस काम पर कितनी रकम की जरूरत पड़ेगी?

एक ही साल में कहीं सूखा और कहीं बाढ़

इस साल का नजारा ही देख लें। जिस साल आधा देश सूखे की चपेट में है उसी साल उसी देश के कई हिस्से से बाढ़ की खबरें भी थीं। यानी पानी कम नहीं गिरा था। बल्कि देश में अलग अलग जगह असमान बारिश हुई थी। यानी कमी पानी की नहीं प्रबंधन की है। अब अगर यह देखें कि सुप्रबंधन के लिए धन कितना चाहिए? तो हमें यह देखना पड़ेगा कि खर्च के लिहाज से हमारी प्राथमिकता में सिंचाई है कहां? खासतौर पर जहां राजनीतिक तौर पर किसानों का मुददा उपर आ गया हो वहां किसानों के लिए सबसे जरूरी चीज़ सिंचाई के बारे में सोचना ही पड़ेगा।

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