मुलाकात उन कलाकारों से जिन्होंने आर्थिक तंगी से जूझते हुए, कड़े संघर्षों के बाद एक मुकाम हासिल किया

नई दिल्ली के इंडिया क्राफ्ट वीक 2021 में कई ऐसे कलाकारों से मुलाकात हुई जिन्होंने आर्थिक तंगी से जूझते हुए और न जाने कितने ही संघर्षों के बाद एक मुकाम हासिल किया और अपनी कला की दम पर दुनिया भर में न सिर्फ अपना बल्कि देश का भी नाम रोशन किया।

Komal BadodekarKomal Badodekar   25 Feb 2021 11:15 AM GMT

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मुलाकात उन कलाकारों से जिन्होंने आर्थिक तंगी से जूझते हुए, कड़े संघर्षों के बाद एक मुकाम हासिल कियावार्ली आर्टिस्ट रमेश हेंगाड़ी और रसीका हेंगाड़ी। (सभी तस्वीरें- कोमल बड़ोदेकर)

नई दिल्ली। तकनीक के इस युग में पारंपरिक हस्तशिल्प कला और कारीगरी धीरे-धीरे धुंधली होती जा रही है। बेहद कम ऐसे मौके होते हैं जब क्राफ्ट की दुनिया को जीने वाले पेशनेट आर्टिस्टों को कोई मंच मिल पाता है। यूं तो मंच और आयोजनों में आर्ट और क्राफ्ट 'चमकते सितारे' की तरह नजर आते हैं लेकिन न जाने कितने ही संघर्षों से भरा होता है उसे बनाने वाले आर्टिस्टों का जीवन जो हंसते-मुस्कुराते अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। कला के आगे पैसे कुछ भी नहीं लेकिन आर्थिक तंगी में कला जीवित रहें भी तो कैसे। कई कलाकार विकल्प ढूंढ लेते हैं कई मुफलिसी के साथ अपने पैशन को जीते हैं। नई दिल्ली स्थित इंडिया क्राफ्ट वीक 2021 में ऐसे ही तमाम कलाकारों से बातचीत हुई। मुलाकात हुई, जिन्होंने आर्थिक तंगी से जूझते हुए और न जाने कितने ही संघर्षों के बाद एक मुकाम हासिल किया और अपनी कला की दम पर दुनिया भर में न सिर्फ अपना बल्कि देश का भी नाम रोशन किया।

वार्ली आर्ट या वार्ली पेंटिंग का नाम तो आपने सुना ही होगा। ये रमेश हिंगाड़े हंत और ये इनकी पत्नी रसीका हिंगाड़े। एक बारगी इन्हें देखने पर बिल्कुल भी नहीं लगेगा कि ये आर्टिस्ट हैं लेकिन यकीन मानिए आर्ट की दुनिया में ये एक जाना-माना नाम है। संघर्षों से भरे जीवन में कलाकार ऐसे ही होत हैं, हमारी आपकी तरह बिल्कुल सामान्य। उन्हें दुनिया में यूनिक बनाता है तो वो है उनका आर्ट।

ये कला ही है जो एक कलाकार को उसकी असली पहचान दिलाती है। लेकिन ये कला पल भर में नहीं आ जाती। इसमें लगती है घोर तपस्या। वर्षों का संघर्ष। इस संघर्ष में जूझता है एक कलाकार खुद से। अपने आप से। आर्थिक तंगियों से। अपने परिवार से। अपने समाज से। आग में तपकर शुद्ध सोने की तरह तैयार होता है एक कलाकार। रमेश हिंगाड़े का जीवन भी कुछ इसी तरह की कहानी बयां करता है।

पति सपोर्ट नहीं करते तो चूल्हा-चोखा कर रही होती

महाराष्ट्र, पालघर के रहने वाले रमेश हिंगाड़ें बताते हैं कि ये सिर्फ आर्ट नहीं है। इस कला में कई तरह की कहानियां छिपी होती हैं। इसमें हम अपनी संस्कृति, सामान्य जीवन से लेकर पौराणिक कथाएं, भावनाएं, और कई किस्से कहानी बयां करते हैं। रमेश बीते 25 वर्षों से वार्ली पेंटिंग बना रहे हैं। वे बीए पास हैं। जबकि उनकी पत्नी 10वीं तक पढ़ी हैं।

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इस तरह के आयोजनों में रमेश पहले भी जा चुके हैं लेकिन ये पहला मौका है जब उनकी पत्नी रसीका इतने बड़े आयोजन में शरीक हुई हैं। वे बताती हैं कि ये मेरे लिए बिल्कुल नया अनुभव है। वे बीते 15 वर्षों से वार्ली पेंटिंग बना रही हैं। वे कहती हैं कि मुझे पति से ही इंसपीरेशन मिला है। अगर वे सपोर्ट न करते तो शायद में घर में चूल्हा-चोखा ही कर रही होती। महिलाओं के लिए पुरुषों की तुलना में ये थोड़ा मुश्किल हो जाता है। हाँ, शुरू में थोड़ी मुश्किल जरूर हुई लेकिन फिर लगा कि यह भी आय का स्रोत हो सकता है।

वार्ली आर्टिस्ट रमेश हेंगाड़ी और रसीका हेंगाड़ी

पारंपरिक बिदरी आर्टिस्ट को तब लगा कि कमाई का कुछ और विकल्प भी हो सकता है

वहीं कर्नाटक के एक कोने में बसे बिदरी से 1,670 किलोमीटर दूर दिल्ली पहुंचे बिदरी के पारंपरिक कारीगर शाह रशीद अहमद खान उर्फ एसआरए कादरी बताते हैं कि ये हमारा पुश्तैनी काम है। हमारी कई पीढ़ियां इस पारंपरिक कला को करती आ रही हैं यही कारण है कि अब हम इसमें पारंगत है। अपनी जिंदगी के 60 से भी अधिक बसंत देख चुके बिदरी आर्टिस्ट शाह रशीद कहते हैं मैंने बचपन से ही इस कला को जिया है। इसी में खेला और इसी में पला बड़ा हूँ। हाँ, एक वक्त ऐसा भी आया जब लगा कि कमाई का कुछ ओर विकल्प भी हो सकता है लेकिन हिम्मत बांधे रखी। मैं लगा रहा। चलता रहा फिर मुकाम हासिल किया। पहचान मिली।


आपको बता दें कि बिदरी आर्ट चौथी शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी के बीच अपने चरम पर था लेकिन फिर धीरे-धीरे ये कला सिमटते चली गई। कभी ये कला ईरान से चलकर कर्नाटक पहुंची थी। फिर भारतीय कलाकारों ने इसे एक नया रूप दिया। आज बिदरी कला अपने आधुनिक रूप में नजर आती है। मूलत: जिंक और कॉपर के मिश्रण से इसे नया रूप दिया जाता है फिर हथोड़ी के माध्यम से चांदी के पतले तार को पारंपरीक तरीके से पीट-पीटकर इसमें 'चार चांद' लगाए जाते हैं। यानी इस पर कलाकृति उकेरी जाती है।

रोटी के लिए जद्दोजहद लेकिन फिर बसंत भी आया

बिदरी से इतर, देश-दुनिया में आदिवासी कला और संस्कृति के कई रंग देखने को मिलते हैं। इस कला में वेंकट श्याम भी अपनी कला के जौहर दिखाने पहुंचे। यूं तो गोंड आदिवासी पारंपरिक कला पत्थरों, दिवारों पर देखने को मिलती है, लेकिन वर्ष 1980 में पहली बार ये कैनवास पर देखने को मिली। विलुप्त होती ये कला, कला प्रेमियों के चलते एक बार फिर अस्तित्व में आई।

21वी सदी में इसके कई नए प्रारूप देखने को मिलते हैं। उन्ही में इस कला का कैनवास प्रारूप नया है। वेंकट बीते 35 वर्षों से गोंड आदिवासी कला को कैनवास पर उकेर रहे हैं। अपने इस हुनर की दम पर वेंकट अब जाकर एक नई पहचान हासिल कर पाएं हैं। उनके कैनवास में प्रकृति के कई रंग देखने को मिलते हैं जिसमें बसंत से लेकर पतझड़ तक शामिल है। पतझड़ और बसंत उनकी इस कला की यात्रा में भी आए। लेकिन वे कहते हैं कि जैसे सफर में कई पड़ाव आते हैं वैसे ही संघर्ष भी है। कभी आर्थिक तंगी तो कभी दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद लेकिन फिर बसंत भी आया।

अपने कैनवास को एक्सप्लेन करते हुए वेंकट श्याम।

कोरोना और लॉकडाउन में ठप हुआ पश्मीना का जमा-जमाया कारोबार

खैर, पश्मीना शॉल का नाम तो आपने सुना ही होगा। पारंपरिक पश्मीना शॉल का इतिहास करीब 700 साल पुराना है। इस फेस्ट में पश्मिना लेकर पहुंचे पारंपरिक कलाकार मीर ब्रदर्स। जिनकी पीढ़िया सदियों से इस शॉल को बनाते आ रही है। वे कहते हैं कि हम इस काम में बचपन से हैं। इस दौरान हमने कई अवॉर्ड भी जीते। यहां एक अनोखी पश्मीना शॉल भी देखने को मिली। जानकर हैरानी होगी इस अनोखी शॉल को बनने में 5 महीने से भी ज्यादा का वक्त लगा। इस शॉल पर कबीर के दोहे उर्दु में लिखे गए है।

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इससे इतर, मीर ब्रदर्स बताते हैं कि 1990 में एक वक्त ऐसी भी विवादस्पद चीजें हुईं जब पश्मीना शॉल का काम रुक गया। फिर लगा कि शायद अब ये फिर शुरू नहीं होगा। लेकिन सरकार के इनिशिएट और पश्मिना प्रेमियों के सपोर्ट के बाद ये काम एक बार फिर शुरू हो पाया। वहीं कोरोना महामारी के दौरान हुए लॉकडाउन पर वे कहते हैं हमने कई जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं लेकिन इतना बुरा दौर कभी नहीं देखा। चलता हुआ काम बंद हुआ। आर्थिक संकट फिर इसके साथ राशन-पानी की भी दिक्कते हुईं। अब स्थिति सामान्य हो रही हैं। लेकिन अब बात पहले जैसी नहीं रही। कोरोना ने काफी कुछ बदल दिया है। एक जमा-जमाया कारोबार पहले बंद हुआ अब उसे फिर उस मुकाम पर लाने में सालों लग जाएंगे।

पश्मीना शॉल की कारीगरी बताते हुए मीर ब्रदर्स।

रोगन: वो पर्शियन आर्ट जिसे भारतीय संस्कृति ने दिया नया रंग रूप

कोरोना महामारी में कई बड़े उद्योग बंद हो गए। संकट पारंपरिक कला, कलाकार और उसके कारोबार पर देखने को मिल रहा है। पश्मीना शॉल और मीर बद्रर्स से मिलती जुलती कहानी रोगन आर्टिस्ट जब्बार खत्री की है। इस फेस्ट में गुजरात के कच्छ से दिल्ली पहुंचे जब्बार खत्री बताते हैं कि हमारी कई पढ़ियां पारंपरिक रूप से प्राकृतिक चीजों से कपड़ों पर कलाकृति उकेरती आ रही हैं। इसमें कैस्टर यानी अरंडी का तेल शामिल होता है साथ ही कई अन्य खाद्य रंग भी होते हैं। ये बेहद महीन काम है। रोगन मुख्य तौर पर पर्शियन आर्ट है लेकिन भारत में मुगलिया शासन में इसका नया प्रारूप सामने आया।

रोगन आर्ट के बारे में जानकारी देते हुए पारंपरिक कलाकार जब्बार खत्री।

जब्बार खत्री का परिवार इस कला को पारंपरिक रूप से बीते 300 वर्षों से करता आ रहा है। अब ये इस पारंपरिक कला को आगे बढ़ा रहे हैं। उनकी मानें तो देश-दुनिया में सिर्फ 10 लोग ही ऐसे हैं जो इस कला को मुख्य रूप से जानते हैं और ये 10 लोग उनके परिवार के हैं। हांलाकि वे ये भी कहते हैं कि कच्छ और उसके आस-पास के कई लोगों को वे इस कला सिखा रहे हैं। कई बार बड़े और नामी संस्थानों में भी यह कला सिखाने जाते हैं। कोरोना और लॉकडाउन का जिक्र करते हुए कहते हैं कि, ये सबसे कठिन समय था।

हम पारंपरिक कलाकार हैं। हम पूरी तरह से इस काम पर निर्भर है लेकिन तब समझ आया कि सिर्फ हम यही काम कर के गुजारा नहीं कर सकते। अन्य लोगों की तरह हमें भी राशन-पानी सहित अन्य चीजों के लिए संघर्ष करना पड़ा। लेकिन अब स्थिति को सामान्य होने में शायद और वक्त लगेगा।

(कोमल बड़ोदेकर फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं।)

  

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