सिर्फ पांच राज्यों में ही 50 फीसदी से ज्यादा एफपीओ, देश के छोटे किसानों को कैसे मिलेगा फायदा?

एफपीओ यानी किसानों की कंपनियां, पिछले कुछ वर्षों से इन पर बड़ा जोर है। एफपीओ को सरकार कई तरह के फायदे भी दे रही है लेकिन ये एफपीओ चल कहाँ रहे हैं, किस राज्य में कम और किस राज्य में ज्यादा हैं, पढ़िए रिपोर्ट ...

Kushal MishraKushal Mishra   30 Oct 2020 2:04 PM GMT

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सिर्फ पांच राज्यों में ही 50 फीसदी से ज्यादा एफपीओ, देश के छोटे किसानों को कैसे मिलेगा फायदा?देश में बने एफपीओ में 50 प्रतिशत से ज्यादा सिर्फ पांच राज्यों में ही स्थित हैं। फोटो : गाँव कनेक्शन

भारत में फिलहाल 7,000 से ज्यादा किसान उत्पादक संगठन (FPO) काम कर रहे हैं, लेकिन इनमें 50 फीसदी सिर्फ 5 राज्यों में हैं। अकेले पुणे में 185 एफपीओ दर्ज हैं तो लखनऊ में भी 50 से ज्यादा एफपीओ हैं। ये आंकड़ें अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट में निकल कर आए हैं।

देश के छोटे और सीमांत किसानों को उनकी उपज की बेहतर कीमत मिल सके, इसके लिए केंद्र सरकार एफपीओ को ख़ासा बढ़ावा दे रही है। हाल में लागू हुए तीन नए कृषि कानूनों और एक लाख करोड़ के एग्री इंफ्रास्ट्रक्चर फंड में भी एफपीओ पर काफी दारोमदार है। साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात कह रही सरकार ने 2024 तक देश में 10,000 नए एफपीओ बनाने का लक्ष्य रखा है।

एफपीओ यानी किसान उत्पादक संगठन, किसानों का एक ऐसा समूह जो अपने क्षेत्र में फसल उत्पादन से लेकर खेती-किसानी से जुड़ी तमाम व्यावसायिक गतिविधियां भी चलाता है। एफपीओ में 100 से लेकर कई हजार किसान तक शामिल हो सकते हैं। एफपीओ के जरिये किसानों को न सिर्फ कृषि उपकरण के साथ खाद, बीज, उर्वरक जैसे कई उत्पादों को थोक में खरीदने की छूट मिलती है बल्कि वो तैयार फसल, उसकी प्रोसेसिंग करके उत्पाद को मार्केट में बेच भी सकते हैं। एक तरह से ये सहकारिता पर आधारित प्राइवेट कंपनियां होती हैं।

देश में अब तक 7,000 से ज्यादा किसान उत्पादक संगठन (FPO) काम कर रहे हैं। एफपीओ के गठन, ट्रेनिंग से लेकर शुरुआती निवेश या संचालन के लिए सरकार 15 लाख रुपए अनुदान भी देती है। लेकिन ये एफपीओ हैं कहां? इनके सदस्य कौन हैं, इन्हें चलाता कौन हैं, ऐसे सवाल अक्सर विपक्ष और खुद किसान, किसान हितैषी उठाते रहे हैं।

हाल में आई अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बैंगलुरू की रिपोर्ट बताती है कि अब तक देश में बने एफपीओ में 50 प्रतिशत से ज्यादा सिर्फ पांच राज्यों में ही स्थित है, यानी देश के ज्यादातर हिस्सों में इनकी पहुंच कम है। कृषि कानूनों को लेकर कराए गए गाँव कनेक्शन के रूरल इनसाइट विंग के रैपिड सर्वे में भी सामने आया कि 49 फीसदी किसान एफपीओ के बारे में जानते ही नहीं हैं।

गाँव कनेक्शन सर्वे में सामने आया कि 16 राज्यों के 49 फीसदी किसान किसान उत्पादक संगठन यानी एफपीओ के बारे में जानते ही नहीं हैं

यह आंकड़े बताते हैं कि देश के छोटे और सीमांत किसानों को फायदा पहुंचाने के लिए किसान उत्पादक संगठनों को लेकर बड़े-बड़े दावों और जमीनी हकीकत में बड़ा फासला है। देश में अब तब बने एफपीओ की असमान वृद्धि की वजह से योजना के कई सालों बाद भी ज्यादातर किसानों को एफपीओ के बारे में जानकारी ही नहीं है।

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के महोबा जिले की तहसील कुल्पहाड़ में महेंद्र सिंह साल 2013 से शंकर भोले नाम से एफपीओ चला रहे हैं।

पैसंठ वर्षीय महेंद्र सिंह 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "हमारी एफपीओ है और हमारे यहाँ के किसान कठिया प्रजाति का अच्छा गेहूं उगाते हैं, हम कोशिश करते हैं कि उनको उपज की अच्छी कीमत मिले, मगर बहुत से किसान ऐसे भी हैं जो एफपीओ के बारे में नहीं जानते।"

हमारे पास के हमीरपुर जिले की राठ तहसील है जहाँ बड़े स्तर पर किसान मटर, गोभी जैसी सब्जियों की अच्छी फसल लेते हैं, वहां खेतों में सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था भी ठीक है, मगर वहां के किसानों को भी एफपीओ के बारे में जानकारी नहीं है कि वो अपनी फसल पर योजनाओं का फायदा ले सकें।

महेंद्र सिंह, एफपीओ संचालक, महोबा, उत्तर प्रदेश

"जैसे हमारे पास के हमीरपुर जिले की राठ तहसील है जहाँ बड़े स्तर पर किसान मटर, गोभी जैसी सब्जियों की अच्छी फसल लेते हैं, वहां खेतों में सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था भी ठीक है, मगर वहां के किसानों को भी एफपीओ के बारे में जानकारी नहीं है कि वो अपनी फसल पर योजनाओं का फायदा ले सकें," महेंद्र सिंह कहते हैं।

देश में इन किसान उत्पादक संगठनों को बढ़ावा देने के लिए नाबार्ड और लघु कृषक कृषि व्यवसाय कंसोर्टियम (एसएफएसी) समेत कई सहकारी संस्थाएं किसानों के बीच एफपीओ का गठन का कार्यभार संभाल रही हैं। इनके जरिये अब तक देश में 7,000 से ज्यादा एफपीओ का गठन हो चुका है।

अजीम प्रेम जी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ महाराष्ट्र में ही 26 फीसदी यानी 1940 एफपीओ पंजीकृत हैं।

मगर एफपीओ को लेकर इसी साल आई अजीम प्रेम जी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट पर गौर करें तो जिन पांच राज्यों में एफपीओ 50 फीसदी से ज्यादा हैं, उनमें महाराष्ट्र सबसे ऊपर है। सिर्फ महाराष्ट्र में ही 26 फीसदी यानी 1940 एफपीओ पंजीकृत हैं, जबकि 10 फीसदी यानी 750 एफपीओ के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर है।

इस रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि देश के 32 जिलों में जहाँ किसानों की संख्या एक लाख से भी ज्यादा है वहां पर कोई एफपीओ यानी किसान उत्पादक संगठन नहीं हैं। दूसरी ओर महाराष्ट्र जहाँ एफपीओ की संख्या ज्यादा है वहां के सिर्फ पुणे में ही 185 एफपीओ काम कर रही हैं।

अगर उत्तर प्रदेश की बात करें तो यूपी में 750 एफपीओ पंजीकृत हैं, मगर एफपीओ की संख्या पर गौर करेंगे तो यूपी के सिर्फ लखनऊ में ही 50 से ज्यादा एफपीओ हैं, जबकि ज्यादातर जिले ऐसे हैं जहाँ एफपीओ की संख्या शून्य से नौ के बीच है, इसलिए आबादी के हिसाब से देखें तो यूपी की स्थिति अभी उतनी बेहतर नहीं है, यह भी बड़ी वजह है कि किसानों में, खास कर छोटे किसानों में कम जागरुकता है, जरूरत है कि जिले स्तर पर काम किया जाए, ताकि किसानों को एफपीओ का फायदा मिले।

ऋचा गोविल, एसोसिएट डायरेक्टर, स्कूल ऑफ डेवलपमेंट, अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी

अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ डेवलपमेंट की एसोसिएट डायरेक्टर और इस रिपोर्ट की प्रमुख ऋचा गोविल 'गाँव कनेक्शन' से बताती हैं, "हालांकि सब राज्यों की अलग-अलग स्थिति होती है, फिर भी एफपीओ को लेकर काफी भिन्नताएं नजर आती हैं। कुछ राज्यों में एफपीओ को ज्यादा बढ़ावा दिया गया, जबकि और राज्यों में ऐसा नहीं है।"

"अगर उत्तर प्रदेश की बात करें तो यूपी में 750 एफपीओ पंजीकृत हैं, मगर एफपीओ की संख्या पर गौर करेंगे तो यूपी के सिर्फ लखनऊ में ही 50 से ज्यादा एफपीओ हैं, जबकि ज्यादातर जिले ऐसे हैं जहाँ एफपीओ की संख्या शून्य से नौ के बीच है, इसलिए आबादी के हिसाब से देखें तो यूपी की स्थिति अभी उतनी बेहतर नहीं है, यह भी बड़ी वजह है कि किसानों में, खास कर छोटे किसानों में कम जागरुकता है, जरूरत है कि जिले स्तर पर काम किया जाए, ताकि किसानों को एफपीओ का फायदा मिले," ऋचा गोविल बताती हैं।

अज़ीम प्रेम जी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश की राजधानी में 50 से ज्यादा एफपीओ हैं, जबकि ज्यादातर जिलों में एफपीओ की संख्या शून्य से नौ के बीच है।

किसानों में एफपीओ को लेकर जागरुकता की बात करें तो गाँव कनेक्शन की रिपोर्ट बताती हैं कि देश के 16 राज्यों में 49 फीसदी किसान एफपीओ के बारे में जानते ही नहीं है, इनमें भी आधे से ज्यादा छोटे और सीमांत किसान शामिल हैं जिनके पास पांच एकड़ से भी कम खेतिहर भूमि है। यह आंकड़ा उत्तरी राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड) में सबसे ज्यादा है, जहाँ 67 फीसदी किसान एफपीओ के बारे में नहीं जानते।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के किसानों के लिए नौ अगस्त को एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड नाम से एक लाख करोड़ रुपये के वित्तीय पैकेज का बड़ा ऐलान किया। देश के किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए इस फंड का इस्तेमाल अगले 10 सालों में किया जाएगा जिसमें प्राइमरी एग्री क्रेडिट सोसाइटीज, कृषि उद्यमियों, एग्री-टेक समेत किसान उत्पादक संगठनों (FPO) को भी ऋण के रूप में धनराशि उपलब्ध कराई जायेगी। इससे देश भर में 10,000 नए एफपीओ खोले जाने को लेकर बढ़ावा मिलेगा ताकि छोटे किसानों को फायदा पहुँचाया जा सके।

इससे इतर अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि देश में बने एफपीओ में 86 फीसदी के पास 10 लाख रुपये से भी कम पूँजी है। इनमें भी 49 फीसदी एफपीओ के पास तो एक लाख रुपये या इससे भी कम पूँजी है। ऐसे में यह भी एक बड़ा सवाल है कि आर्थिक रूप से कमजोर और कम पूँजी रखने वाले ये एफपीओ किसानों को कैसे फायदा पहुंचा सकेंगे?

इस रिपोर्ट से जुड़ीं ऋचा गोविल बताती हैं, "कई एफपीओ बाजार का फायदा नहीं उठा पा रहे हैं क्योंकि उनके पास पूँजी ही नहीं है। बहुत सी एफपीओ ऐसी हैं जिनके पास एक लाख रुपये की पूँजी है तो एक लाख रुपये में किसान क्या व्यापार कर पायेंगे और एफपीओ से जुड़े कितने किसानों को फायदा पहुंचा पायेंगे।"

देश में कई एफपीओ के पास एक लाख से भी कम पूँजी। फोटो : गाँव कनेक्शन

ऋचा कहती हैं, "एफपीओ में छोटे किसान लाखों रुपये तो जमा नहीं कर सकते, मगर उनकी एफपीओ को मदद नहीं मिलती क्योंकि उनके पास पर्याप्त पूँजी नहीं है। ऐसे में जरूरी है कि ऐसी एफपीओ को सरकार मदद करे या फिर कुछ एफपीओ को एक साथ जोड़ा जा सकता है जिससे पूँजी बढ़ेगी। इसके अलावा एफपीओ में प्रोसेसिंग फैसिलिटी से जुड़े कई काम हो सकते हैं, जिसके लिए कई सरकारी योजनाएं भी हैं, यदि एक एफपीओ से संभव नहीं है तो साथ मिल कर सकते हैं।"

देश के कृषि प्रधान राज्यों की बात करेंगे तो अनाज का कटोरा कहे जाने वाले पंजाब राज्य में जहाँ एफपीओ की संख्या सिर्फ 56 है, वहीं हरियाणा में 300 से ज्यादा एफपीओ पंजीकृत हैं। ऐसे में हरियाणा सरकार एफपीओ के जरिये सरकारी योजनाओं का लाभ किसानों तक देने का प्रयास करती नजर आती है।

जब हमने हर एक स्तर पर अलग-अलग टीम बनाकर संगठित होकर काम किया, किसानों के लिए जागरुकता और प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाया गया जहाँ उन्हें एफपीओ से जुड़ने के लिए प्रेरित किया और सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी दी, यही वजह है कि हॉर्टिकल्चर में आज हरियाणा में सबसे ज्यादा एफपीओ हैं, ऐसे ही और राज्यों में भी संगठित होकर काम किये जाने की जरूरत है।

पारस राम शर्मा, प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर, एसएफएसी हरियाणा

हरियाणा में एफपीओ को लेकर काम कर रहे लघु कृषक कृषि व्यवसाय कंसोर्टियम (एसएफएसी) के प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर पारस राम शर्मा 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "हरियाणा में आज की तारीख में एसएफएसी के करीब 500 एफपीओ किसानों के बीच बन चुके हैं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमने सबसे पहले हरियाणा के जिलों में पंचायत स्तर पर किसानों के ऐसे समूह चिन्हित किये जो किसी फसल में अच्छा काम कर रहे थे, फिर वहां एफपीओ के गठन का कार्य किया गया और सरकारी योजनाओं का लाभ किसानों तक पहुँचाने का प्रयास किया गया।"

"ऐसा तभी संभव हुआ जब हमने हर एक स्तर पर अलग-अलग टीम बनाकर संगठित होकर काम किया, किसानों के लिए जागरुकता और प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाया गया जहाँ उन्हें एफपीओ से जुड़ने के लिए प्रेरित किया और सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी दी, यही वजह है कि हॉर्टिकल्चर में आज हरियाणा में सबसे ज्यादा एफपीओ हैं, ऐसे ही और राज्यों में भी संगठित होकर काम किये जाने की जरूरत है," पारस राम शर्मा बताते हैं।

हरियाणा के मुकाबले धान का कटोरा कहे जाने वाले पंजाब राज्य में एफपीओ की संख्या काफी कम। फोटो : गाँव कनेक्शन

एफपीओ को लेकर केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार हर एक किसान उत्पादक संगठन (FPO) में 50 प्रतिशत छोटे, सीमांत और भूमिहीन किसान शामिल होंगे। इसके अलावा प्रत्येक एफपीओ को उसके काम के अनुरूप 15 लाख रुपए का अनुदान भी दिया जाएगा। इसके लिए देश भर की सहकारी समितियां एफपीओ के गठन में सहयोग करेंगी ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि में निवेश को बढ़ाया जा सके।

एफपीओ के गठन को लेकर काम कर रही नाबार्ड के कोलकाता से जुड़े उप महा प्रबंधक नवीन राय 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "देश के छोटे और सीमांत किसान जो जल्द से जल्द अपनी उपज बेचने की कोशिश करते हैं, ताकि नई फसल की तैयारी कर सकें, ऐसे ही किसानों को एफपीओ के जरिये लाभ पहुँचाने की कोशिश की जा रही है। हमारी कोशिश है कि एफपीओ से उन तक सभी जानकारी पहुंचाए जाए और उन्हें जोड़ा जाए।"

खामियां हो सकती हैं, लागू करने में विज़न की कमी हो सकती है, इसलिए कई एफपीओ बेहतर काम नहीं कर पा रहे हैं, मगर नाबार्ड नए एफपीओ बनाने के साथ ऐसे पुराने एफपीओ को भी नया जीवन देने का काम कर रहा है, उन्हें डिजिटल करने की कोशिश की जा रही है ताकि पारदर्शिता बने, निश्चित रूप से एफपीओ एक बेहतर जरिया है किसानों को लाभ पहुँचाने के लिए, और उचित देखरेख से यह संभव हो सकेगा। इसलिए जरूरी है कि हर राज्य में एफपीओ को बढ़ावा दिया जाए।

नवीन राय, उप महा प्रबंधक, नाबार्ड कोलकाता

कई एफपीओ की पूँजी कम होने और काम न कर पाने के सवाल पर नवीन राय कहते हैं, "खामियां हो सकती हैं, लागू करने में विज़न की कमी हो सकती है, इसलिए कई एफपीओ बेहतर काम नहीं कर पा रहे हैं, मगर नाबार्ड नए एफपीओ बनाने के साथ ऐसे पुराने एफपीओ को भी नया जीवन देने का काम कर रहा है, उन्हें डिजिटल करने की कोशिश की जा रही है ताकि पारदर्शिता बने, निश्चित रूप से एफपीओ एक बेहतर जरिया है किसानों को लाभ पहुँचाने के लिए, और उचित देखरेख से यह संभव हो सकेगा। इसलिए जरूरी है कि हर राज्य में एफपीओ को बढ़ावा दिया जाए।"

झारखण्ड के रांची जिले के पिठोरिया गाँव में नकुल महतो वर्ष 2013 से कांके फ्रेश एंड ग्रीन वेजिटेबल नाम से सब्जी उगा रहे सैकड़ों किसानों के साथ एफपीओ चला रहे हैं। नकुल की इस एफपीओ के साथ आज आस-पास के 10-12 गाँव से 1800 किसान जुड़ चुके हैं।

कई एफपीओ में किसानों की उपज की प्रोसेसिंग, कोल्ड स्टोरेज समेत कई तरह की सुविधाएँ भी।

नकुल 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "आज हमारे साथ 1800 किसान हैं और सभी के सभी छोटे किसान हैं, दो से चार एकड़ वाले किसान, हम इन किसानों की सब्जियों को पश्चिम बंगाल, कटक और आस-पास के जिलों में भी भेजते हैं जिससे किसानों को अच्छी कीमत मिल रही है।" मगर नकुल एफपीओ को और बढ़ावा दिए जाने पर भी जोर देते हैं।

नकुल कहते हैं, "हम अपने एफपीओ में कोल्ड स्टोरेज, प्रोसेसिंग का फायदा भी लेना चाहते हैं जैसे और राज्यों के एफपीओ भी कर पाते हैं, अगर ऐसा होता है तो किसानों को उपज बेचने के अलावा भी फायदा होगा और हमसे कई और किसान भी जुड़ सकेंगे।"

हालांकि एक तरफ जहां सरकार का जोर एफपीओ के जरिए किसान को मदद पहुंचाने पर है वहीं किसानों के साथ काम कर रहीं कई संस्थाओं के जानकार मानते हैं कि एफपीओ को मिलने वाली शुरुआती 15 लाख रुपये की मदद और दूसरे सरकारी लाभ को देखते हुए कई पढ़े-लिखे लोग, नेता-अधिकारी अपने लोगों को एफपीओ में लाने की कोशिश करते हैं।

किसानों के साथ मिलकर काम करने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता जो किसानों की एडवोकेसी पर काम करते हैं, नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, "एफपीओ बनाने में पहले सिर्फ एक जैसी सोच वाले किसानों को खोजना और उनके बिजनेस चालू कराने की मुश्किल थी, अब मुश्किल ये भी है कि कई 'माननीय' और अधिकारी भी चाहते हैं कि उनके घर या परिचित के लोगों के नाम एफपीओ बन जाएं या वो किसी ग्रुप का हिस्सा बन जाएं, ये घातक है सरकार को समय रहते इसे रोकना होगा।"

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