पुलिस की नौकरी से क्यों हैं परेशान पुलिसवाले

Alok Singh BhadouriaAlok Singh Bhadouria   18 Jan 2018 5:45 PM GMT

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पुलिस की नौकरी से क्यों हैं परेशान पुलिसवालेट्रेनी दरोगा अश्विन कुमार ने व्यवस्था से तंग आकर इस्तीफा दे दिया

पुलिसवाला…! इस शब्द के साथ डर, घबराहट, क्रूरता, बेवजह का रौब जैसी छवियां जुड़ी हैं। इसलिए जब कोई कहता है कि पुलिसवाले बेबस हैं, परेशान हैं, बदहाल हैं तो मन आसानी से भरोसा नहीं करता। लेकिन हकीकत कुछ ऐसी ही है। यकीन न हो तो दो ऐसे पुलिसवालों की खबर पर नजर डालिए, जिन्होंने पिछले दो महीनों में पुलिस की नौकरी से इस्तीफा दे दिया। वजह थी काम का भयानक दबाव, विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार, मूल सुविधाओं की कमी और उनकी परेशानियों की सुनवाई न होना वगैरह।

हाल ही में बुलंदशहर के रहने वाले अश्विन कुमार ने प्रशिक्षु दरोगा पद से इस्तीफा दिया है। अश्विन को यह नौकरी यों ही नहीं मिल गई थी। यहां तक पहुंचने के लिए बहुत पापड़ बेले थे उन्होंने। उनकी भर्ती 2011 में हुई थी, लेकिन कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने के बाद उन्हें 2017 में तैनाती मिली। सितंबर 2017 से वह ट्रेनी एसआई के तौर पर मथुरा के मांट थाने में काम कर रहे थे। लेकिन कुछ महीनों में ही वह पुलिस विभाग की बदहाल व्यवस्था की वजह से असहज महसूस करने लगे। लिहाजा उन्होंने अपने एसओ को इस्तीफा दिया पर उन्होंने लेने से मना कर दिया। इसके बाद उन्होंने रजिस्टर्ड डाक से एसएसपी, सीओ और एसओ को अपना इस्तीफा भेज दिया। अश्विन की चर्चा अखबारों में हुई, सोशल मीडिया पर उनका लिखा इस्तीफा वायरल हुआ। ट्विटर पर सक्रिय रहने वाले एडिशनल एसपी और मीडिया एडवाइजर राहुल श्रीवास्तव ने उन्हें ट्वीट कर सुझाव दिया कि ‘व्यथित होकर इस्तीफा देना समस्याओं का हल नहीं है। असली चुनौती व्यवस्था के अंदर रहकर, सुधार करने और लोगों को प्रेरित करने में है। हतोत्साहित होना समाधान नहीं है। हम सभी को मिलकर लड़ना होगा।’

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अश्विन ने यह कदम क्यों उठाया, इसे साफ करते हुए उन्होंने कई मुद्दे उठाए, जैसे : साल भर में मिलने वाली 30 सीएल नहीं मिलती, छुट्टी की संस्तुति करते समय थाना प्रभारी अनुचित टिप्पणी करते हैं, परिवार में समस्या हो तो भी अवकाश नहीं मिलता, टीए, डीए और दूसरे बिल पास कराने के लिए 10 फीसदी रिश्वत के रुप में देना होता है, पुलिसकर्मियों को मिलने वाले भत्ते बेतुके हैं, वीआईपी ड्यूटी में जाने का भत्ता नहीं मिलता, अपराध की घटनाओं को कम करके दर्ज किया जाता है जिससे आम आदमी को न्याय नहीं मिलता।

यूपी में दरोगा बनने से दिल्ली में सिपाही होना बेहतर

इसी तरह की घटना एक महीने पहले भी हुई। दिसंबर 2017 में यूपी में दरोगा के पद पर तैनात अजीत सिंह ने भी इस्तीफा देते समय ड्यूटी का कोई तय शिड्यूल ना होने को ही मुख्य वजह बताया। एसएसपी को भेजे अपने इस्तीफे में अजीत ने कहा, पिछले तीन महीने में मेरा वजन 12 किलो कम हो गया है। काम का कोई तय समय नहीं है, ‘हमसे चौबीसों घंटे काम करने की उम्मीद की जाती है, वह भी बिना साप्ताहिक अवकाश या किसी राहत के। मैं अब यह तकलीफदेह जिंदगी नहीं जीना चाहता। मैं दिल्ली में कॉन्सटेबल के रुप में खुश था।’ अजीत ने 2015 में दिल्ली पुलिस से इस्तीफा देकर यूपी पुलिस की नौकरी जॉइन की थी। अजीत फिर से दिल्ली पुलिस में कॉन्सटेबल की नौकरी करने का मन बना चुके हैं।

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इन दोनों घटनाओं में एक बात सामान्य है, वह है काम का अमानवीय दबाव। एक आम कामकाजी व्यक्ति को अगर हफ्ते में छुट्टी न मिले तो शारीरिक तौर पर मुश्किलें बढ़ जाती हैं साथ ही पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा न कर पाने की वजह से मानसिक और भावनात्मक परेशानियां भी मनोबल तोड़ने लगती हैं। पुलिसकर्मी भी इससे अछूते नहीं हैं।

जितनी जरुरत है उतने नहीं हैं पुलिसवाले

पुलिसबल पर लगातार काम करने के दबाव के पीछे है उनकी संख्या में कमी। ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवेलपमेंट के आंकड़ों के अनुसार 2016 में देश में एक पुलिसवाले के जिम्मे लगभग 663 नागरिकों की निगरानी है, जबकि यह आंकड़ा 518 होना चाहिए। यूपी में हालात ये हैं कि एक लाख लोगों की जनसंख्या पर लगभग 188 पुलिसवाले होने चाहिए लेकिन वास्तव में यह संख्या 90 है।

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कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं

पुलिसवालों को साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलते हैं, लेकिन काम के इस दबाव को देखते हुए यूपी में हर 10 दिन पर छुट्टी देने की व्यवस्था की गई लेकिन वह लागू नहीं हो पाई। वहीं दिल्ली में हर हफ्ते एक छुट्टी देने की व्यवस्था है। यूपी की तुलना में वहां हालात बेहतर हैं, इसीलिए अजीत सिंह यूपी में दरोगा की जगह दिल्ली में कॉन्सटेबल बनने पर राजी हैं।

157 साल पुराने कानूनों से बंधी है पुलिस

भारत में पुलिस 157 साल पुराने पुलिस अधिनियम के तहत काम कर रही है। इसमें सुधार की जरुरत तो महसूस की गई पर पूरे मन से कोशिश कभी नहीं हो पाई। 1977 में सुधारों के लिए राष्ट्रीय पुलिस आयोग की स्थापना की गई इसने कुछ सुधार सुझाए लेकिन उन पर ध्यान नहीं दिया गया। 1996 में पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने इसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में अपील की। पूरे 10 साल बाद यानि 2006 में इस पर फैसला आया। इसमें आयोग की अधिकतर सिफारिशों को लागू करने की बाद कही गई लेकिन अधिकतर राज्य इन्हें अभी तक लागू नहीं कर पाए हैं।

भारत में पुलिस सेवा का गठन ब्रिटिश सरकार ने अपनी दमनकारी नीतियों को लागू करने के लिए किया था। नागरिकों की सुविधा या पुलिसबल की सहूलियत उसकी प्राथमिकता नहीं थे। पर आजादी के 71 वर्ष बाद भी हम अगर इस दिशा में आगे नहीं बढ़ पाए तो देश की सरकार और लोकतांत्रिक संस्थाओं को अपनी प्राथमिकताओं में सुधार करने की जरुरत है।

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