जानिए चीनी बनाने वाले गन्ने का इतिहास, इंग्लैड की महारानी और एक कटोरी चीनी का कनेक्शन
Anusha Mishra 12 Feb 2019 6:33 AM GMT

सुबह की चाय से लेकर गुलाबजामुन तक में मिठास चीनी से आती है। चीनी गन्ने से बनती है,लेकिन कभी कोई मिठाई या गन्ने का स्वाद लेते हुए आपके जेहन में ये सवाल आया क्या कि गन्ने सबसे पहले कहां उगाया गया होगा? कैसे बनी होगी पहली बार गन्ने से चीनी? शायद नहीं। लेकिन आज हम आपको बताएंगे गन्ने का इतिहास और गन्ने से चीनी बनने की कहानी के बारे में...
गन्ने की खेती 8,000 साल पहले दक्षिण प्रशांत क्षेत्र में न्यू गिनी के द्वीप पर हुई थी और इसके पास सोलोमन द्वीप समूह में फैली हुई थी। इसके 2000 साल बाद गन्ना इंडोनेशिया, फिलीपींस और उत्तर भारत तक पहुंच गया। चीन में गन्ना लगभग 800 ईसा पूर्व भारत से पहुंचा था। शक्कर की शुरुआत 8वीं शताब्दी के आसपास, मुस्लिम और अरब व्यापारियों ने भूमध्य सागर, मेसोपोटामिया, मिस्र, उत्तरी अफ्रीका और अन्डालुसिया में अब्बासीद खलीफा के दक्षिण हिस्सों में की।
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गन्ने के बारे में बताने वाली अंग्रेज़ी वेबसाइट च्विंगकेन के मुताबिक, 1520 तक मैदानी क्षेत्रों में गन्ने की खेती बढ़ रही थी, स्पैनिश एक्सप्लोरर कोरटेज ने 1535 में उत्तरी अमेरिकी में पहली चीनी मिल की स्थापना की थी। जल्दी ही इसकी खेती पेरू, ब्राजील, कोलम्बिया और वेनेजुएला में फैल गई। 1547 में प्यूर्टो रिको में भी पहली चीनी मिल स्थापित हो गई। सन् 1600 तक अमेरिका के कई हिस्सो में चीनी उत्पादन दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे आकर्षक उद्योग बन गया था। वेस्ट इंडीज के 'शर्करा द्वीप' इंग्लैंड और फ्रांस के लिए आर्थिक रूप से काफी फायदेमंद साबित हुए।
शक्कर उस समय इतनी महंगी बिका करती थी कि लोग इसे विलासिता की वस्तु मानते थे। महारानी एलिजाबेथ अपनी मेज पर एक चीनी का कटोरा रखती थीं और रोजाना भोजन और मसाले के रूप में चीनी का इस्तेमाल करती थीं ताकि वो ये प्रदर्शित कर सकें कि वो कितनी धनवान हैं।
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क्रिस्टोफर कोलंबस अमेरिका की अपनी दूसरी यात्रा के दौरान कैरेबिया में गन्ना लाए थे। औपनिवेशिक काल में चीनी को कैरेबिया से यूरोप या इंग्लैण्ड भेजा जाता था जहां रम बनाने के लिए इसका इस्तेमाल होता था। इसको बेचने से होने वाले मुनाफे का इस्तेमाल निर्मित माल खरीदने के लिए किया जाता था जिसे पश्चिम अफ्रीका भेजा जाता था, वहां से उस पैसे के बदले गुलाम खरीदे जाते थे और उन गुलामों को फिर कैरेबिया लाया जाता था और उनके गन्ने के खेतों में काम कराया जाता था। गुलामों की बिक्री से जो मुनाफा होता था उसे ज़्यादा चीनी ख़रीदने के लिए इस्तेमाल किया जाता था, जिसे यूरोप भेजा जाता था। 17वीं से 19वीं शताब्दी के बीच ब्वॉयलिंग हाउसेज में गन्ने के रस से कच्ची चीनी बनाई जाती थी। ये ब्वॉयलिंग हाउसेज पश्चिमी उपनिवेश के चीनी के कारखानों से जुड़े होते हैं।
इतनी मेहनत से बनती थी चीनी
उस वक्त ईंट या पत्थर के आयताकार बक्से की तरह भट्ठियां बनाई जाती थीं, जिनमें नीचे की तरफ थोड़ी सी खुली जगह होती थी जहां से राख निकाली जाती थी। हर भट्ठी के ऊपर की तरफ तांबे की सात केतली या ब्वॉयलर लगे होते थे। हर केतली पहले वाले से छोटी और ज़्यादा गर्म होती थी। गन्ने का रस सबसे बड़ी केतली में होता था, जो गर्म होता रहता था, इसमें नींबू मिलाकर इसकी अशुद्धियां दूर की जाती थीं। यहीं पर रस में ऊपर जो झाग बनता था उसे हटाया जाता था और फिर ऊपर वाली केतलियों में भेजा जाता था। आखिरी केतली में पहुंचते हुए गन्ने का रस एक सिरप में बदल जाता था। इसके बाद इसे ठंडा करने की प्रक्रिया होती थी और इसी प्रक्रिया में सिरप ठंडा होकर गुड़ के टुकड़ों में बदल जाता था। इसके बाद लकड़ी के बैरल जिन्हें होगशेड्स कहा जाता था, में इसे इकट्ठा करके इसे साफ चीनी बनाने के लिए क्योरिंग हाउस में भेज दिया जाता था।
जब भारत से मज़दूर ले जाए गए ब्रिटेन
पश्चिमी अफ्रीका के गुलाम 1833 में आज़ाद हो गए और इसके बाद उन्होंने इंग्लैंड के गन्ने के खेतों में काम करना बंद कर दिया। इसके बाद वहां के गन्ना खेत मालिकों को नए मज़दूरों को ज़रूरत पड़ी और उन्हें ये मज़दूर कम दामों में चीन, पुर्तगाल और भारत में मिले। इन मज़दूरों को एक निश्चित समय के लिए अनुबंधित करके वहां ले जाया जाता था। मजबूर श्रम, राष्ट्रीय अभिलेखागार, ब्रिटिश सरकार की 2010 की रिपोर्ट के मुताबिक, 1836 में भारत का मज़दूरों से भरा हुआ पहला जहाज़ इंग्लैंड गया।
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गन्ने के खेतों में काम करने के लिए भारत, दक्षिणपूर्व एशिया और चीन के कई हिस्सों के लोग ब्रिटेन चले गए। अभी भी यूनाइटेड किंगडम के कुछ द्वीपों में एशियाई प्रवासियों की आबादी 10 से 50 फीसदी के बीच है। ऑस्ट्रेलिया के मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिटिश उपनिवेश के दौरान क्वींसलैंड (अब ऑस्ट्रेलिया का एक राज्य) में 1863 से 1900 के बीच गन्ने के खेतों में काम करने के लिए 50,000 से 62500 लोग दक्षिणी प्रशांत द्वीप समूह से आए।
16वीं शताब्दी के बाद क्यों सस्ती हुई चीनी
16वीं सदी तक चीनी की कीमतें बहुत ज़्यादा थीं और इसे विलासिता की निशानी माना जाता था लेकिन 16वीं शताब्दी के बाद इसके दामों में काफी गिरावट हुई और इसके दो कारण थे। पहला, मठों के खिलाफ एक सुधार आंदोलन के कारण शहद जो कि मिठास के लिए नियमित तौर पर इस्तेमाल किया जाता था, की सप्लाई बंद हो गई। ये शहद के मुख्य उत्पादक थे। दूसरा, 16वीं सदी के बाद चीनी की आपूर्ति में काफी बढ़ोतरी हुई। इसके अलावा यूरोप के निवासियों को एक और बात के बारे में पता चला कि फलों को चीनी में संरक्षित करके रखा जाए तो इससे जैम बनाया जा सकता है। चीनी का यह उपयोग प्राचीन भारतीयों, चीनी और अरबों ने शुरू किया था, जिनकी कच्ची चीनी तक अधिक पहुंच थी।
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