एक ही परिवार की विरासत थी 700 साल पुरानी फड़ चित्रकला; जिससे घर की बेटियों को दूर रखा गया

अपनी लोक कलाओं और रेतीले टीलों के लिए प्रसिद्ध राजस्थान में आपको न जाने कितनी कहानियाँ मिल जाएँगी, ऐसी ही एक कहानी यहाँ की फड़ चित्रकला की है। ये कला जितनी पुरानी है उतनी ही ज़्यादा सुन्दर और अनोखी है। इसमें इस्तेमाल होने वाले रंग पत्थरों से लिए जाते हैं।

Manvendra SinghManvendra Singh   8 Feb 2024 1:29 PM GMT

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700 साल पुरानी कला, लेकिन विरासत महज़ एक परिवार की।

राजस्थान की राजधानी जयपुर से करीब 250 किलोमीटर दूर भीलवाड़ा की मशहूर फड़ चित्रकला दुनिया की कुछ चुनिंदा पट्ट-चित्र कलाओं में से एक है। इसके पीछे की कहानी जितनी पुरानी है उतनी ही दिलचस्प भी।

कहते हैं, पिछले 700 सालों से ये कला राजस्थान के एक परिवार की विरासत थी। पूरे देश में सिर्फ यही एक परिवार था जो फड़ चित्रकला में माहिर था; परिवार से ये कला कहीं और न चली जाए इसीलिए घर की बेटियों को इस हुनर से दूर रखा गया।


पूरे देश में सिर्फ जोशी परिवार के लोग ही थे जो ये जानते थे कि फड़ चित्रकला कैसे तैयार की जाती है। इसी परिवार की 31वीं पीढ़ी के अनुज जोशी ने गाँव कनेक्शन को इस कला को समझातें हुए बताया, "ये हमारे परिवार की पारंपरिक कला है और मैं 31वीं पीढ़ी हूँ, ये कला हमारे परिवार में पिछले 700 सालों से है; तो ये कला खून के अंदर भी है और मैंने सीखा भी है और बचपन से देखते हुए आ रहा हूँ, आज भी कला को चाहने वाले बहुत से लोग हैं; लेकिन जब तक आप कला के अंदर कुछ बदलाव नहीं करोगे तब तक लोग उसको पसंद नहीं करेंगे।"

फड़ पट चित्र का इतिहास

दरअसल बीते दौर में फड़ पेंटिंग्स करीब 18 से 36 फ़ीट तक की हुआ करती थी और इन पारंपरिक चित्रों को रबारी जनजाति के पुजारी-गायकों द्वारा ले जाया जाता था, जिन्हें भोपा और भोपी कहा जाता था, जो अपने स्थानीय देवताओं - देवनारायणजी (विष्णु के अवतार) और पाबूजी (एक स्थानीय नायक) की कहानियाँ गाते और प्रस्तुत करते थे।

फड़ स्थानीय शब्द है जिसका मतलब होता है तह करना। परम्परा के अनुसार फड़ पट चित्र को सूर्यास्त के बाद खोला जाता था और रात भर गाँव वाले, पुजारी-गायकों द्वारा स्थानीय देवताओ की कहानियाँ सुना करते थे और कहानियों को चित्रों के ज़रिए ज़ाहिर करने के लिए फड़ चित्रकला का इस्तेमाल हुआ करता था।

अनुज जोशी आगे बताते हैं, "18 फ़ीट और 36 फ़ीट की पेंटिंग्स को सब अपने घरों में नहीं लगा सकते थे; तो जोशी परिवार ने इस कला के विस्तार के लिए कई पुरानी बेड़ियों को तोड़ते हुए इस कला को ऐसे तैयार करना शुरू किया कि अब लोग आसानी से इन्हें अपने घरों में लगा सकते हैं; साथ ही फड़ कला जो पहले सिर्फ स्थानीय देवी देवताओं और नायक के ऊपर बना करती थी, अब महाभारत, रामायण और पंचतंत्र की कहानियों के ऊपर भी आधारित रहती हैं।"

"इस कला के अंदर जैसे-जैसे बदलाव आता जा रहा है; वैसे-वैसे ये लोगों को और पसंद आती जा रही हैं; इस कला के लिए मेरे पिता जी ( कल्याण जोशी) को नेशनल अवार्ड मिला है, मेरे चाचा को नेशनल अवार्ड मिला है और मेरे दादा जी (श्रीलाल जोशी) को पद्मश्री और शिल्प गुरु अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है; पिछले दस सालों में और भी लोगों ने काम सीख कर इस कला को करना शुरू किया है; इससे पहले ये कला सिर्फ जोशी परिवार में हुआ करती थी। " अनुज जोशी ने आगे बताया।

घर की बेटियों को नहीं सिखाई जाती थी ये कला

700 सालों से ये कला सिर्फ एक ही परिवार के पास थी; इसका एक मुख्य कारण था कि इस कला में मिलावट न हो पाए। इस काम को सुनिश्चित करने के लिए बहुत से नियम जोशी परिवार में बनाए गए थे; ताकि ये कला परिवार से बाहर न निकल पाए। ऐसी ही एक परम्परा थी घर की बेटियों को इस कला को न सिखाना। क्योंकि जोशी परिवार का मानना था कि बेटियों की शादी के बाद वो ये कला अपने साथ ले जाएँगी। जबकि घर की बहुओं को फड़ चित्रकला का पूरा ज्ञान दिया जाता था।

इस विषय पर अनुज जोशी जो खुद फड़ कला के जानकार हैं वो गाँव कनेक्शन को बताते हैं, "पहले की बात करें तो ये कला सिर्फ बहुओं को सिखाई जाती थी, लेकिन बेटियों को नहीं क्योंकि अगर बेटियों को सिखाते तो शादी के बाद ये कला परिवार से बाहर चली जाती; लेकिन अब ऐसा नहीं है, अब ये कला हम सभी लोगों को सिखाते हैं ताकि इस कला को बड़े स्तर पर पहचान मिले। "

ये बात तो बहुत पुरानी हो चली है, लेकिन फड़ कला दिन पर दिन नई और सुन्दर होती चली जा रही है। अब कोई भी इस कला को सीख सकता है और उन्हें सिखाने वाले भी खुद जोशी परिवार के लोग हैं। पिछले कई सालों से चित्रशाला (फड़ पेंटिंग्स ट्रेनिंग एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट) नाम से राजस्थान के भीलवाड़ा में फड़ चित्रकला सिखाई जा रही हैं। अगर आप भी चाहे तो इस कला को सीख कर इसमें पारंगत हो सकते हैं।

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