बुंदेलखंड लाइव: पलायन की इनसाइड स्टोरी, ललितपुर में खदानें बंद होने से 50 हजार से ज्यादा लोग बेरोजगार

ललितपुर में सहरिया आदिवासियों की संख्या करीब 75 हजार है, जिनमें से ज्यादातर भूमिहीन या फिर बहुत कम जमीन के मालिक हैं। ये जमीन भी ऐसी ही है खेती न के बराबर होती है। ज्यादातर सहरिया पत्थर काटने और जंगल से लकड़ियां लाकर बेचने का काम करते थे।

Arvind ShuklaArvind Shukla   11 Jun 2020 3:31 AM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo

मादौंन (ललितपुर, बुंदेलखंड)। ललितपुर जिले के मादौंन गांव की रैना सहारिया (40 वर्ष) उन हजारों प्रवासियों में से एक हैं, जो किसी तरह जद्दोजहद कर घर वापस तो आ गईं लेकिन खुश नहीं हैं। वो पहली बार कमाने के लिए अपने दो लड़कों के साथ घर से बाहर निकली थीं और लॉकडाउन की मुसीबत आ गई। रैना को चिंता कोरोना की नहीं, अपना घर चलाने की हैं, क्योंकि जहां उनका घर है वहां दूर-दूर तक कमाई का कोई जरिया नहीं है।

रैना दिल्ली से करीब 600 किलोमीटर दूर बुंदेलखंड में ललितपुर जिले के बिरधा ब्लॉक के मादौंन गांव में रहती हैं। सूखा प्रभावित ये इलाका ललितपुर ही नहीं बुंदेलखंड के सबसे पिछड़े इलाकों में शामिल हैं। पथरीली जमीन में खेती न के बराबर होती है। पानी की दिक्कत पूरे साल रहती है। बावजूद इसके रैना और उनके गांव वालों कभी बाहर जाकर मजदूरी नहीं करते थे, करीब दो साल पहले सब बदल गया। रैना का गांव महावीर वन्य जीव अभ्यारण की परिधि में था। नियमों के अनुसार मादौंन और उसके आसपास की 62 पत्थर की खदानें बंद कर करवा दी गईं। जिसके बाद यहां काम करने वाले रैना जैसे हजारों लोग बेरोजगार हो गए।

"हम पहले गांव के पास ही खदान में काम करते थे, कमाने के लिए कभी बाहर नहीं गए थे, इस बार गए भी तो ये मुसीबत आ गई। लेकिन अब सोच रहे कि यहां आकर भी क्या करेंगे। 20 दिन गांव आए हो गए, 10 दिन स्कूल (क्वारेंटीन) में रहे। अभी तक कोई काम नहीं मिला, आगे पता नहीं क्या होगा।" ये बताते हुए रैना के चेहरे पर बेरोजगारी की चिंता साफ झलक रही थी।


रैना के घर से थोड़ा पहले ही राधा की परचून की दुकान है। राधा बताती हैं, "खदानें बंद होने से हमारे यहां की स्थिति बहुत खराब हो गई। पहले हमारी दुकान में रोज 700-800 रुपए की बिक्री होती थी, अब 100-50 रुपए का सामान बिकता है। सामान कौन खरीदेगा, दीवारें थोड़े सामान खरीदती हैं, सब लोग कमाने बाहर चले गए। कुछ बेचारे पैदल चलकर भूखे प्यासे गांव आ गए हैं। सब बेरोजगार हैं अब।"

ललितपुर के जिला खनिज अधिकारी नवीन कुमार दास, खदानें बंद होने की वजह बताते हैं, "साल में 2017-18 में बिरधा ब्लॉक में 65 खदानों को बंद करवा दिया गया था, क्योंकि इनके पास पर्यावरण स्वच्छता प्रमाणपत्र नहीं था। ये इलाका महावीर वन्य जीव अभ्यारण में आता है। केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु मंत्रालय की गाइडलाइंस के मुताबिक सेंचुरी के 10 किलोमीटर के दायरे में खनन नहीं हो सकता है।"

ये उत्तर प्रदेश का वो इलाका है भी है जहां सबसे ज्यादा सहरिया आदिवासी रहते हैं। ललितपुर में सहरिया आदिवासियों की संख्या करीब 75 हजार है, जिनमें से ज्यादातर भूमिहीन या फिर बहुत कम जमीन के मालिक हैं। ये जमीन भी ऐसी ही है खेती न के बराबर होती है। ज्यादातर सहरिया पत्थर काटने और जंगल से लकड़ियां लाकर बेचने का काम करते थे। खदाने बंद होने से सबसे ज्यादा असर इन अतिपिछड़े और गरीब सहरियां आदिवासियों पर पड़ा है।

बंद पड़ी खदान।

"सिर्फ हमारे गांव के आसपास 20 हजार सहरिया रहते होंगे। हमें खाने पीने, मजदूरी, पढ़ाई सबकी दिक्कत है। हमें सरकार से राशन के अलावा कोई मदद नहीं मिलती है। जिन लोगों के नाम पर जमीन हैं उन्होंने बैंक से कर्ज लिया वो वापस नहीं कर पाए। जिनका माफ हुआ, बाकी डिफाल्टर हो गए। कर्ज़ देंगे कहां से जब कोई रोजगार नहीं है। इसलिए खदान बंद होने से हजारों घरों में खाने की दिक्कत हो गई है।" कुएं की मुंडेर पर बैठे भगौती अपने इलाके की व्यथा बताते हैं।

देश के एक बड़े हिस्से में जो भी निर्माण कार्य होते हैं उन्हें किसी न किसी रूप में बुंदेलखंड का पत्थर शामिल रहता है, फिर वो चाहे कोई हाईवे हो या फिर शहर का कोई फ्लैट। ललितपुर में भी बड़े पैमाने पर इमरती पत्थर सैंड स्टोन, ग्रेनाइट, खंडा बोल्डर, बालू मौरंग का खनन होता है, जो ना सिर्फ जिले के लिए राजस्व की बड़ा जरिया हैं बल्कि लाखों लोगों को रोजगार भी मिला है। खनिज विभाग के मुताबिक खनन से ललितपुर को सालाना करीब 20 करोड़ रुपए का राजस्व मिलता है।

पत्थर व्यापारी एवं मजदूर संघ (ललितपुर) के अध्यक्ष दिनेश शर्मा कहते हैं, "ललितपुर में गुप्त काल (सातवीं शताब्दी) से खनन चल रहा है। यहां पत्थर एसिड प्रूफ है। हजारों साल तक इसमें क्षरण (खराब) नहीं होता है। देश के तमाम मंदिरों और किलों से लेकर घरों में यहां का पत्थर लगा हुआ है। सिर्फ देश ही नहीं चीन समेत कई देशों में यहां का ग्रेनाइट पत्थर जाता है। यही खनन यहां के लोगों की आजीविका भी है।"

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वो कहते हैं, "जिस धौरा इलाके की बात आप (गांव कनेक्शन) कर रहे हैं वहां के मादौंन, कपासी, धौरा, बालाबेहट हरदारी, शिवपुरा डोगरिया, दुधई, कालापहाड़, पुराधनकुआँ, मदनपुर, देवगढ़ ब्रह्मपुरा समेत दर्जनों गांवों के 40-60 हजार मजदूर उन खदानों में काम करते थे, जो दो साल पहले बंद करवा दी गईं। डेढ़ लाख से ज्यादा परिवार इनके सहारे पलते थे, फिर पत्थर काटने वाले मिट्टी साफ करने वाले ढुलाई करने वाले, पंचर बनाने वालों तक जोड़ेगे से संख्या लाख को पार कर जाएगी। आपने एक झटके में सब बंद कर दिया।"


पत्थर व्यापारी और मजदूर संघ के मुताबिक धौर्रा इलाके में न तो मशीनें काम करती थीं और न ही किसी तरह का विस्फोट किया जाता था, सारा काम मजदूर अपने हाथों से करते थे, साथ न ही न ज्यादा गहराई तक खुदाई करनी होती थी।

संगठन के अध्यक्ष दिनेश शर्मा आगे कहते हैं, देवगढ़ सेंचुरी 1977 में चिन्हिंत की गई थी। लेकिन वन विभाग आज तक अपनी सीमाएं नहीं चिन्हित कर पाया। फिर सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस है कि एक किलोमीटर के बाहर खनन हो सकता है, लेकिन यहां एक किलोमीटर तो दूर 15 किलीमीटर दूर वाली खदाने भी बंद करवा दी गई हैं। इस इलाके के लेबर ने दो साल पहले पहली बार पलायन करना शुरू किया वर्ना उसे शहर जितनी कमाई यहां हो जाती थी। औसतन एक मजदूर 300-500 रुपए कमाता था, लेकिन आज वो इतनी बद्तर स्थिति में है क्योंकि इनके पास रोजगार का कोई साधन नहीं है।"

व्यापार संघ के मुताबिक मजदूरों को यहां 30 रुपए घन पत्थर कटाई के मिलते थे और औसतन एक मजदूर 10 से 20 पत्थर काट लेता था, जिससे उससे 300 से 500 रुपए तो मिल ही जाते थे।

50-60 मजदूरों से रोज काम लेने वाले बब्बू राजा यादव खुद दो साल से बेरोजगार हैं। वो कहते हैं, "कुछ समय तो पहले का बचाया पैसा खाया फिर उधार व्यवहार में लिया, लेकिन बाद में हमें भी दूसरे शहर जाना पड़ा। सरकार को अगर ये सब बंद करना ही था तो यहां रोजगार का दूसरा जरिया देना चाहिए था।"

ललितपुर समेत पूरे बुंदेलखंड में रोजगार के नाम पर सिर्फ मनरेगा है लेकिन उसमें भी पिछले दो वर्षों से हालात बद्तर रहे हैं, जिन्होंने लोगों को घर छोड़ने पर मजबूर किया।

सहरिया आदिवासी।

मादौंन गांव के मनगू कहते हैं, "ये नरेगा हम लोगों को नहीं मिलता है, गांव के बड़े लोग हमसे छीन लेते हैं। हमको काम नहीं मिला तो हम तो मर जाएंगे, हम गरीब जनता है, हम क्या करेंगे, पढ़े लिखे तो हैं नहीं।"

मनगू की बातों से बुजुर्ग उद्धम सिंह भी इत्तफाक रखते हैं, "वे कहते हैं, पिछले दो साल से पूरा गांव वीरान पड़ा था, क्योंकि सब को पेट पालने के लिए बाहर जाना पड़ा। अभी भी मुहल्ले के बहुत से लड़के बाहर फंसे हैं। हममे से बहुत लोग अब कर्ज़ लेकर खाने को मजबूर हैं।"

ललितपुर के जिला खनन विभाग के मुताबित जिले में सबसे ज्यादा काम ग्रेनाइट पत्थर का होता है। जिले में ग्रेनाइट की 22 खदाने हैं। इमरती पत्थर सैंडस्टोन की 10, खंडा बोल्डर की 27 और बालू मौरंग की 3 खदानें हैं। जिला खनन अधिकारी नवीन कुमार दास कहते हैं, "खनन आवश्यक है लेकिन वन और जीव बेजुबान हैं उनका भी ध्य़ान रखना है। हम लोगों ने वन और पर्यावरण मंत्रालय को नया ड्राफ्ट भेजा है। प्रदेश सरकार की नई नीति के अंतर्गत सेंचुरी के बाहर ग्रेनाइट की एक खदान और 2 क्षेत्र खंडा बोल्डर पत्थर के लिए चिन्हिंत किए हैं, जिनमें अब पट्टे दिए जाएंगे। ताकि लोगो को रोजगार मिल सके।"

पत्थर मजदूर एवं व्यापारी संघ के अध्यक्ष दिनेश शर्मा कहते हैं, लॉकडाउन के बाद हजारों लोग जिले में वापस आए हैं। बाहर काम नहीं है। इस वक्त सबसे दयनीय स्थिति है। मनरेगा में कितने लोगों को काम मिलेगा। सरकार को चाहिए कि पट्टों की अवधि तो बची है (करीब एक साल) उन पर खनन शुरु कराए, न सिर्फ यहां के हजारों मजदूरों को रोजगार मिलेगा बल्कि दूसरे इलाकों के लोगों को काम मिल जाएगा।"

उत्तर प्रदेश में खनन विभाग 10 साल के लिए खनन के पट्टे देते है। इस इलाके में करीब 200 पट्टे 2011 में दिए गए थे, जिनकी अवधि 2021 में खत्म हो रही है।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की गाइडलाइंस, पर्यावरण को होने वाले नुकसान, सरकार की मुफ्त राशन और मनरेगा योजना और तमाम तर्कों से दूर अपने छह माह के बच्चे को गोदी में लिए मंगू कहती हैं,

"हमें तो राशन भी नहीं मिलता है, हमें काम चाहिए, मजदूरी चाहिए, नहीं तो मोड़ा खो का पत्थर खिला देंगे?

lockdown story coronafootprint #story 

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.