इस पीढ़ी के बाद कहीं गायब न हो जाए सनई की रस्सी बनाने की कला

कभी सन से बनी रस्सियों का इस्तेमाल चारपाई बुनने, मवेशियों को बांधने, कुओं से पानी खींचने के लिए और शुभ अवसरों पर किया जाता था। लेकिन आज इन प्राकृतिक रस्सियों की जगह नायलॉन और अन्य फैक्ट्री-निर्मित रस्सियों ने ले ली है। रस्सी बनाने की यह पारंपरिक कला धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है।

Ashwini kumar shuklaAshwini kumar shukla   15 Dec 2022 5:55 AM GMT

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भिखाही (गढ़वा), झारखंड। सीताराम चौधरी अपने घर के एक कोने में बैठे रस्सी बना रहे हैं। 61 साल के बुजुर्ग के एक हाथ में ढेरा और दूसरे हाथ में सूत है। वह एक पल के लिए भी अपने हाथों से अपनी आंखें नहीं हटाते हैं। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, "मैं नहीं चाहता कि रस्सी में कोई गांठ पड़े।"

सीताराम का परिवार काफी लंबे समय से सन के पौधे से रस्सियां बनाता आ रहा है। 10 कट्ठा ज़मीन (1 एकड़ = 27 कट्ठा) पर वह इसकी खेती करते हैं। लेकिन सन का यह पौधा भांग से अलग है। इस पौधे को (क्रोटालरिया जूनसिया) ब्राउन हेंप, इंडियन हेम्प, मद्रास हेम्प या सन हेम्प के रूप में जाना जाता है। यह लेग्यूम परिवार का एक उष्णकटिबंधीय एशियाई पौधा है।

सीताराम ने बताया कि एक किलोग्राम रस्सी को कातने में करीब आठ घंटे लग जाते है। कटाई से लेकर तैयार रस्सी तक की पूरी प्रक्रिया तीन सप्ताह का लंबा सफर है। वह और उनकी पत्नी शांति देवी झारखंड के गढ़वा जिले के भीखाही गाँव में रहते हैं और पिछले 40 से ज्यादा सालों से इन रस्सियों को बना रहे हैं।

सीताराम का परिवार काफी लंबे समय से सन के पौधे से रस्सियां बनाता आ रहा है। सभी फोटो: अश्विनी शुक्ला

कभी सन से बनी रस्सियों का इस्तेमाल चारपाई (खाट) बुनने, मवेशियों को बाँधने, कुओं से पानी खींचने के लिए बाल्टियों में बांधने और शुभ अवसरों पर किया जाता था। लेकिन आज इन प्राकृतिक रस्सियों की जगह नायलॉन और अन्य फैक्ट्री-निर्मित रस्सियों ने ले ली है।

झारखंड में मल्लाह समुदाय (पारंपरिक नाविक) परंपरागत रूप से सन से बनी रस्सियों को बाजार में बेचने के लिए बनाते रहे हैं। यह उनके रोजगार का जरिया था। लेकिन अब वह धीरे-धीरे अन्य व्यवसायों की ओर बढ़ रहे हैं। रस्सियों को बनाने के रोजगार से जुड़े कई लोग अब इस काम को छोड़कर मजदूरी करने लगे हैं।

सीताराम ने बताया, "हम जिस मल्लाह समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, वह लंबे समय से रस्सी बनाता आ रहा है। जब मैं एक छोटा था, तो मैंने अपने पिता से इसे बनाने सीखा था।" उन्होंने कहा कि वह अपने परिवार की आखिरी पीढ़ी हैं, जो इस काम में लगी है।

सीताराम और शांति देवी के बेटे और बहू पहले ही रस्सी बनाना छोड़ चुके हैं। शांति ने कहा, "वे अब इस काम को नहीं करना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि वे कहीं और मेहनत-मजदूरी करके इससे ज्यादा कमा सकते हैं।"

झारखंड में मल्लाह समुदाय (पारंपरिक नाविक) परंपरागत रूप से सन से बनी रस्सियों को बाजार में बेचने के लिए बनाते रहे हैं।

भीखाही गाँव से लगभग 16 किलोमीटर दूर गढ़वा बाजार में तीसरी पीढ़ी के रस्सी विक्रेता गौतम आनंद ने गाँव कनेक्शन को बताया, "नायलॉन की रस्सियों की कीमत 60 रुपये प्रति किलो है। वे सन की रस्सियों से इतर सस्ती और मजबूत हैं। फिर कोई सन की रस्सी क्यों खरीदना चाहेगा। अब इन रस्सियों की कोई मांग नहीं है।"

सन से कैसे बनाते हैं रस्सियां

हिंदी में सनई और स्थानीय भोजपुरी भाषा में सन के नाम से जाने जाने वाले पौधे को खरीफ सीजन (जून या जुलाई) की शुरुआत में बोया जाता है और जनवरी या फरवरी के महीनों में काटा जाता है। लेकिन सीताराम सहित कई किसान अपनी रबी (सर्दियों) की फसलों के लिए जगह बनाने के लिए इसे थोड़ी जल्दी काट लेते हैं।

सन भांग की फसल काफी मेहनत मांगती है। कटाई के बाद तने से उनकी फलियों (बीजों) को अलग कर लिया जाता है और फिर इन तनों के मोटे-मोटे बंडल बनाए जाते है। रस्सी बनाने के लिए ये दंपत्ति इन गठरियों को अपने सिर पर ढोते हैं और अपने घर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर बहने वाली कोयल नदी तक ले जाते हैं। यहां इन गट्ठरों को लगभग आठ से दस दिनों तक पानी में भिगोकर रखना पड़ता है।

इसके बाद तने से रेशे निकालने का काम शुरू होता है। सीताराम ने कहा कि वह और उनकी पत्नी रोज सुबह चार बजे नदी पर जाते हैं और भीगे हुए तनों को पानी की सतह पर तब तक पीटते हैं, जब तक कि रेशा उनसे अलग न होने लगे।

हिंदी में सनई और स्थानीय भोजपुरी भाषा में सन के नाम से जाने जाने वाले पौधे को खरीफ सीजन (जून या जुलाई) की शुरुआत में बोया जाता है और जनवरी या फरवरी के महीनों में काटा जाता है।

शांति ने गाँव कनेक्शन को बताया, "इसमें से रेशा ऐसे निकलता है मानो वह सफेद बगुला (बगुले) के पंख हों। हम दोनों मिलकर एक दिन में लगभग छह किलो रेशा निकाल सकते हैं।"

फिर इस रेशे को धूप में सुखाया जाता है। इसमें लगभग चार से पांच दिन लगते हैं। रेशे के पूरी तरह से सूख जाने के बाद, उन्हें ढेरे से रस्सियों में काता जाता है।

ढेरा के तीन छोटे एक्सटेंशन होते हैं। सीताराम इसे एक हाथ में पकड़ते हैं और दूसरे हाथ में सूत घुमाते हैं। सीताराम ने कहा, "हम अपने परिवार में पीढ़ियों से रस्सी बनाने के लिए एक ढेरे का इस्तेमाल कर रहे हैं।"

तैयार रस्सी को मजबूत करने के लिए एक बार फिर से पानी में कुछ देर के लिए भिगोया जाता है और फिर बोरी से अच्छी तरह रगड़ा जाता है।

सीताराम ने बताया कि यह एक मुश्किल काम है। हम खुद फसल की खेती और कटाई करते हैं और फिर रस्सियों को बनाकर बेचने के लिए बाजार ले जाते हैं। उन्होंने कहा, "हम रस्सी कातने के लिए किसी को मजदूरी नहीं दे सकते हैं। हमें ही कुछ नहीं बचता है।"

सीताराम ने समझाया, "बेहतर किस्म के रेशे से बनी सफेद रस्सी 80 से 100 रुपये प्रति किलो बिकती है। वहीं मैले रेशों से बनी रस्सियों की कीमत 25 से 30 रुपये प्रति किलो हैं।" लेकिन दोनों तरह की रस्सी बनाने की प्रक्रिया एक ही है।

ढेरा के तीन छोटे एक्सटेंशन होते हैं। सीताराम इसे एक हाथ में पकड़ते हैं और दूसरे हाथ में सूत घुमाते हैं।

61 साल के सीताराम ने कहा कि एक समय था जब अच्छी फसल की तुलना सोने की फसल से की जाती थी। वह उदासी के भाव से कहते हैं, "लेकिन वो दिन अब चले गए हैं।" सन से बनी रस्सियों की मांग गिर रही है और पारंपरिक रूप से रस्सी बनाने वाले कितने लोग बेहतर आजीविका के लिए दूसरी ओर रुख कर रहे हैं।

सीताराम ने आगे कहा, "मैं पूरे समय यह काम नहीं करता हूं। लेकिन जब खाली होता हूं तो रस्सियां कातने लगता हूं। इससे मुझे कुछ थोड़े-बहुत पैसे मिल जाते हैं।" सीताराम और शांति देवी खरीफ के मौसम में अपने खेतों में धान और मक्का उगाते है, तो वहीं रबी के मौसम में गेहूं, चना और अन्य दालों की खेती भी करती हैं। उनके पास दो गायें और कुछ बकरियां भी हैं, जिससे उन्हें कुछ अतिरिक्त आमदनी हो जाती है।

पारंपरिक रस्सी बनाने वाले बने प्रवासी मजदूर

भीखही गाँव के 32 वर्षीय आनंद चौधरी ने कहा कि वह सन की रस्सियां बनाते हुए बड़े हुए हैं, लेकिन अब वह मजदूरी करके अपना गुजारा चला रहे हैं।

आनंद ने बताया, "मैंने इस साल लगभग चार कट्ठा ज़मीन पर सून की खेती की थी। हमने (उनका परिवार) लगभग पांच किलो रस्सी बनाई, जिसे मैंने पिछले महीने पांच सौ रुपये में बेचा था।" आनंद इस साल की शुरुआत में मजदूरी काम करने के लिए चेन्नई चले गए थे।

गाँव के एक अन्य निवासी सोमनाथ चौधरी ने गांव कनेक्शन को बताया, "हम रस्सियां बनाने में जितनी मेहनत करते हैं, उतनी कमाई नहीं होती है।" वह हाई स्कूल के छात्रों को घर पर ट्यूशन देते हैं।

सोमनाथ के पांच लोगों के परिवार के पास छह एकड़ जमीन है, जिस पर वे दशकों से हर मानसून में सन की खेती करते आए हैं। लेकिन अपने पूर्वजों से इतर, सोमनाथ ने मौसमी खरीफ और रबी फसलों की ओर रुख कर लिया है।

आनंद ने कहा, "आने वाली पीढ़ी में कोई भी अपने खेतों में सन नहीं उगाएगा। लोग अब इनसे बनी रस्सियों को नहीं चाहते हैं।" अपने आंगन में सूख रहे रेशों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने बताया कि "पिछली बार मैंने दो साल पहले रस्सियों को 800 रुपये या 10 किलोग्राम के हिसाब से बेचा था।"


सीताराम और शांति देवी को इस साल अपनी जमीन से लगभग 100 किलोग्राम फाइबर मिलने की उम्मीद थी, लेकिन झारखंड में अपर्याप्त बारिश ने इस संभावना को कम कर दिया है। सीताराम ने कहा, "लगता है कि हमें इस बार बस 50 से 60 किलोग्राम रेशा ही मिल पाएगा"

हर बार जब भी वे लगभग 20 किलोग्राम रस्सी बना लेते हैं, तो सीताराम इन्हें बेचने के लिए लगभग 16 किलोमीटर दूर गढ़वा शहर के साप्ताहिक बाजार की ओर निकल जाते हैं.

पिछले एक साल में उन्होंने वहां तीन चक्कर लगाए और करीब 70 किलो रस्सी बेची। उन्हें करीब सात हजार रुपये की कमाई हुई है। ये उनकी और उनकी पत्नी की मेहनत थी.

कुछ हफ़्तों में सीताराम फिर से अपनी गठरी के साथ बाजार में पहुंच जाएंगे। उनके हाथ का ढेरा तेजी से घूम रहा है और सन से बनी रस्सियों को बाहर निकाल रहा है।

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