इंसानियत पर हैवानियत का हमला रोकने का सूफ़ी प्रयास

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इंसानियत पर हैवानियत का हमला रोकने का सूफ़ी प्रयासगाँवकनेक्शन

आजाद भारत में पहली बार सूफ़ी संतों का सम्मेलन हो रहा है, जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया है। इसमें 20 देशों के 200 विद्वान और भारत के सैकड़ों सूफी संत जुड़े हैं। कहना कठिन है कि उनका शांति का सन्देश कितनी सीमा तक हिंसात्मक आतंक को शांत कर सकेगा। फिर भी इस दिशा में मोदी के प्रयास की सराहना होनी चाहिए। हमारे देश में सूफ़ी-संतों का सम्मान होता रहा है। अजमेर में मोइनुद्दीन चिश्ती और दिल्ली में औलिया की दरगाहें शांति का पैगाम देती हैं। वास्तव में भारत का मुस्लिम समाज आमतौर पर आतंक विरोधी है।

फ्रांस पर आतंकी हमले के सन्दर्भ में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि मुस्लिम देशों ने आतंकवाद की उतनी मुखर आलोचना नहीं की जितनी करनी चाहिए थी लेकिन भारत का मुस्लिम समाज आतंकवाद की भर्त्सना करता है। मुस्लिम धर्मगुरु नहीं मानते कि इस्लाम की रक्षा के लिए बगदादी जैसे लोगों की जरूरत है। मौलाना मदनी मानते हैं कि मुसलमानों के लिए दुनिया में हिन्दुस्तान से बेहतर कोई जगह नहीं। यही बात मौलाना अबुल कलाम आजाद ने इस देश को दारुल अमन बताकर कही थी ।

पुतिन और ओबामा को समझना चाहिए कि आतंकवादियों को मार डालने से आतंकवाद समाप्त नहीं होगा। ओसामा के बाद भी जवाहिरी ने कमान संभाली, अब कोई और संभाल रहा होगा। आतंकवादी सैडिस्टिक प्लेज़र यानी दूसरों के दर्द से आनन्द के अलावा कुछ हासिल नहीं करते हैं। उनकी मानसिकता बदलने के मामले में सूफ़ी-संतों की भूमिका हो सकती है। कठिनाई यह है कि रूस और अमेरिका के स्वार्थ अलग-अलग हैं। बेहतर होगा अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय मिलकर दुनिया से आतंकवादी मानसिकता समाप्त करने की बात सोचे, केवल वहीं कांटा जो अमेरिका या रूस को चुभ रहा है उसी को निकालने से काम नहीं चलेगा। धरती पर हैवानियत तभी तक है जब तक उसे शह देने और शरण देने वाले मौजूद हैं। दो विश्व युद्ध आए और चले गए लेकिन यह नहीं लगा था कि क़यामत आने वाली है लेकिन आतंकवादी सैडिस्टिक प्लेज़र यानी दर्द देकर आनन्द पाते हैं वह भी पैगम्बर इस्लाम का नाम लेकर। यह मुस्लिम नौजवानों को बरगलाने का तरीका मात्र है। 

हैवानियत के साथ इंसानियत की लड़ाइयां पहले भी हुई हैं और हमेशा इंसानियत की जीत हुई है। यदि हैवानियत जीत गई तो कयामत का दरवाजा खुल जाएगा। दुनिया के हुक्मरानों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। हैवानियत के खिलाफ संग्राम केवल अपने देश के हित के लिए न होकर निष्पक्ष भाव से इंसानियत को बचाने के लिए होना चाहिए। सूफ़ी संतों को इसकी शुरुआत करनी है तो भारत से बेहतर जगह नहीं हो सकती थी। यह दारुल अमन रहा है और आज भी है।

 

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