राजस्थान: बांसवाड़ा के आदिवासी किसान कर रहे हैं जैविक खेती की ओर रुख

आदिवासी बाहुल्य राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के किसान रसायनिक खेती छोड़ जैविक खेती करने लगे हैं। यही नहीं एक किसान को देखकर दूसरे किसान भी उनसे प्रेरणा ले रहे हैं।

Laxmikanta JoshiLaxmikanta Joshi   3 Jan 2022 12:50 PM GMT

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राजस्थान: बांसवाड़ा के आदिवासी किसान कर रहे हैं जैविक खेती की ओर रुख

बांसवाड़ा जिले में जैविक खेती का क्षेत्र अभी करीब 30 हजार हेक्टेयर है। सभी फोटो: अरेंजमेंट

रोजगार की तलाश में बड़े शहरों की तरफ रुख करने वाले राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के आदिवासी परिवार एक बार फिर खेती की तरफ लौटने लगे हैं। यहां के आदिवासी जैविक खेती और परंपरागत खाद-बीज से न केवल अपनी किस्मत बदल रहे हैं, साथ ही दूसरे किसानों को भी प्रेरित कर रहे हैं।

बांसवाड़ा जिले के आमलीपाड़ा गाँव के नौंवी तक पढ़े किसान मानसिंह डामोर (40 वर्ष) ने भी खेती के तरीके में बदलाव किया है। करीब तीन साल पहले उन्हें खेती में उपयोग होने वाले रसायनों के दुष्परिणाम के बारे जाना तो इसका उपयोग बंद करने की ठानी। दो वर्ष से पूर्ण रूप से जैविक खेती पर ही निर्भर हैं। मानसिंह बताते हैं कि सब्जियां, फल और गेहूं की खेती करते हैं। आम और अमरूद के कई पेड़ भी लगा रखे हैं।

कुशलगढ़ क्षेत्र के नागदा बड़ी गांव के चोखा भाई मईड़ा मुख्य रूप से किसान हैं। जो बरसों तक खेती में रसायन का उपयोग करते आए हैं। लेकिन अब वे जैविक खेती को प्राथमिकता देते हैं। महज कक्षा पांच तक पढ़े चोखा भाई बताते हैं, "पहले रसायन के नुकसान के बारे में नहीं जानते थे। जब हमें इसके नुकसान के बारे में पता चला तो जैविक खेती करना शुरू कर दिया।"


चोखा भाई मईड़ा ने आगे बताया कि वह अब करीब 5 बीघा में जैविक खेती करते हैं, जिसमें वे सब्जियां, फल, गेहूं, चना, मक्का आदि खेती करते हैं। इसमें उन्हें आर्थिक लाभ भी मिला। जैविक खाद भी वे स्वयं बनाते हैं।

पिछले कुछ वर्षों से भारत में जैविक खेती और जैविक उत्पादों की मांग तो बढ़ी है, लेकिन जमीन पर अभी जैविक खेती प्रारंभिक स्तर पर नजर आती है। केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के अनुसार मार्च 2020 तक देशभर में 2.78 मिलियन हेक्टेयर में जैविक खेती हो रही थी जो देश के कुल बुवाई रकबे 140.1 मिलियन हेक्टेयर का करीब 2 फीसदी ही है।

बांसवाड़ा के जिला कृषि अधिकारी आरके वर्मा बताते हैं, "रसायन के सही उपयोग की जानकारी न होना सबसे बड़ा नुकसान है। कृषक जानकारी अभाव में सही और उचित मात्रा में रसायन का उपयोग नहीं करते। इस कारण भूमि स्वास्थ्य बिगडऩे के साथ ही प्रदूषण भी बढ़ता है और रसायन सब्जियों, फलों में मिलकर मानव शरीर में जाता है। जो कैंसर व अन्य बीमारियों का बहुत बड़ा कारक है।"


बांसवाड़ा जिले में जैविक खेती का इलाका अभी करीब 30 हजार हेक्टेयर है। कुशलगढ़ तहसील इलाके में सर्वाधिक जैविक खेती हो रही है।

"पेस्टिसाइड्स की वजह से जहां मच्छर, मक्खियों और कीड़ों से फसलों को बचाना आसान हो जाता है। उसी तरह ये भोजन के माध्यम से हमारे शरीर के अंदर पहुंच जाती हैं, कई तरह से पेस्टीसाइड्स शरीर के अलग-अलग अंगों पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। शरीर में पेस्टीसाइड्स की मौजूदगी के कारण अस्थमा और फेफड़ों से जुड़ी अन्य बीमारियां, लीवर से जुड़ी समस्याएं, प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होने की संभावना रहती है, कृषि अधिकारी ने आगे कहा।

बांसवाड़ा जिले की आबादी करीब 18 लाख हैं, यहां करीब पांच लाख किसान हैं। खेती का क्षेत्र 2 लाख 35 हजार हैक्टेयर खरीफ और रबी का 1 लाख 42 हजार हैक्टेयर है। खरीफ फसलें सोयाबीन, उड़द, चावल, कपास और चंवला है तो रबी में गेहूं, चना और मक्का बोया जाता है। कुछ खेती समतल तो कुछ ढलानी क्षेत्रों में होती है।

वाग्धारा संस्थान के किसान समूह बन रहे हैं मददगार

बांसवाड़ा जिले के विभिन्न गांव-ढाणियों में उन्नत व जैविक खेती, नवाचारों से खेती में ताकत बन रहे हैं, वाग्धारा संस्थान की ओर से संचालित किसान समूह। वाग्धारा संस्थान किसानों के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्था है।

संस्थान के सचिव जयेश जोशी के अनुसार बांसवाड़ा जिले के किसान परम्परागत खेती के साथ ही विभिन्न नवाचार करने लगे हैं। किसान समूह के जरिए इन्हें ऐसे कई उपयोगी प्रशिक्षण दिए जाते हैं। इसी का परिणाम है कि खेत-खलियान की तस्वीर इन आदिवासी इलाकों में अलग ही नजर आ रही है। बांसवाड़ा के भूरजी कटारा अपनी दो बीघा बंजर भूमि को लेकर कभी परेशान थे, लेकिन अब जैविक खाद, गोमूत्र व गोबर के उपयोग से खेत न केवल हरा-भरा बल्कि है फलदार पौधे व सब्जियां अच्छी आमदनी दे रही है।


चुलीपाड़ा गांव के किसान अर्जुन डामोर की पहाड़ी जमीन होने से बारिश का पानी बहकर चला जाता। फसल उत्पादन कम होने से जमीन बेचने की जद्दोजहद के दौरान मेड़बंदी व चेकडेम को समझा। इससे भूमि का कटाव रुका और भूमिगत जलस्तर बढ़ा।

जयेश जोशी आगे कहते हैं, "जैविक खेती की तरफ किसानों का रुझान एक अच्छी शुरुआत है। इसके लिए किसानों को उनकी मिट्टी और बीज का महत्व समझाते हैं। किसानों के सहयोग के लिए चयनित गांवों में संस्था की ओर से प्रशिक्षण भी आयोजित किए जाते हैं। परम्परागत खेती, परम्परागत बीज की भावना विकसित कर अपनी मिट्टी, अपना बीज थीम पर कार्य कर रहे हैं। कई किसानों ने जैविक खेती के बूते खेती की नई नजीर पेश की है।"

सरकार दे रही जीरो बजट खेती का प्रशिक्षण

राजस्थान सरकार ने बजट में जीरो बजट खेती को बढ़ावा देने की घोषणा की थी। योजना के पहले चरण में बांसवाड़ा जिले के 39 गांवों का चयन कर किसानों को जीरो बजट से खेती करना सिखाया गया। इसके लिए गांवों में 50-50 किसानों के समूह बनाए गए हैं। इसमें केवल एक गाय के गोबर व गौ-मूत्र से 30 एकड़ खेती में कीटनाशक व खाद की पूर्ति संभव है। यह देसी गाय के गोबर और गौमूत्र पर आधारित है। इनसे जीवामृत, घनजीवामृत और जामन बीजामृत बनाया जाता है। किसान को बाजार से किसी प्रकार की खाद और कीटनाशक रसायन खरीदना नहीं पड़ता। पानी व बिजली भी मौजूदा की तुलना में दस प्रतिशत ही खर्च होती है। गुणवत्तापूर्ण उपज होती है और उत्पादन लागत लगभग शून्य।


डेढ़ दशक में आए हैं कई परिवर्तन

बांसवाड़ा में खेती और किसान के परिप्रेक्ष्य में पिछले करीब 15 सालों में कई परिवर्तन आए हैं। इसका कारण काश्त में किसानों की मेहनत व नवाचार के साथ ही पानी की पहुंच बढ़ाना है। पहले यहां का किसान केवल बारिश पर निर्भर था लेकिन अब डीजल पंप, इंजन आदि से खेतों में पानी की आवक बढ़ा गई है, जिससे बदलाव हुआ।

यहां सोयाबीन की खेती का क्षेत्र एकाएक बढ़ा है। वर्ष 2007-08 में सोयाबीन 20 हजार हेक्टेयर में होती थी, जो अब 2010-21 में बढ़कर 72 हजार हेक्टेयर है। इसका कारण नगदी फसल के प्रति किसानों का झुकाव है। रबी में मक्का की फसल पहले यहां नहीं होती थी लेकिन अब इसका क्षेत्र करीब 40 हेक्टेयर तक जा पहुंचा है। रबी में गेहूं का काश्त क्षेत्र भी 80 हजार से करीब एक लाख के करीब है।


कृषि अनुसंधान केंद्र, बांसवाड़ा के पूर्व संभागीय निदेशक, डॉ प्रमोद रोकड़िया कहते हैं, "पिछले डेढ़ दशक में यहां खेती में काफी बदलाव देखने को मिले हैं। पहले रबी मक्का नहीं था, लेकिन अब इसकी ढाई गुणा उपज बढ़ी है। रबी में गेहूं तो खरीफ में सोयाबीन का रकबा क्षेत्र बढ़ा है। समतल भू-भाग वाले क्षेत्रों में कई किसानों ने आंशिक जैविक खेती तो ढलानी और पहाड़ी क्षेत्र, जिसमें विशेष तौर पर कुशलगढ़ और गांगड़तलाई का जंगल क्षेत्र है, लोगों ने जैविक को अपनाया है। नगदी फसल का चयन करना शुरू कर दिया है। पलायन रुका तो है लेकिन अभी आंशिक है। सरकार भी जैविक खेती को यहां बढ़ावा दे रही है। परिणाम धीरे धीरे सुखद मिलेंगे।"

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