किसान को खाद्य गारन्टी नहीं, क्रयशक्ति चाहिए
डॉ. शिव बालक मिश्र 24 March 2016 5:30 AM GMT
खाद्य सुरक्षा अधिनियम एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें हर समय मजदूर और किसान सरकार की तरफ टुकुर-टुकुर देखते रहेंगे। बड़ी-बड़ी बातें होती रहती हैं जैसे इससे गरीबों को पौष्टिक आहार मिलेगा, उनका स्वास्थ्य सुधरेगा और वे स्वावलम्बी बन जाएंगे आदि। इस व्यवस्था में गरीबों को मिलेगा गेहूं, चावल और मोटे अनाज जो किसान हर साल पैदा करता है और खाता है। इसके अन्तर्गत 35 किलो अन्न प्रति परिवार मिलेगा और प्राथमिकता श्रेणी के परिवारों को पांच किलोग्राम प्रति व्यक्ति मिलेगा। इनको चावल तीन रुपए, गेहूं दो रुपए और मोटे अनाज एक रुपया प्रति किलो के हिसाब से मिलेगे।
यदि इस योजना का उद्देश्य होता कुपोषण दूर करना तो बात समझ में आ सकती थी। इंसान को पोषण के लिए चाहिए कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा यानी चिकनाई, विटामिन, खनिज लवण और पानी। इनमें से खाद्य सुरक्षा केवल कार्बोहाइड्रेट की पूर्ति की गारंटी करती है जो शरीर में ईंधन का काम करता है इसलिए यह सुरक्षा नितांत अपर्याप्त है। प्रोटीन के बगैर शरीर नहीं चलता और वह दालों, दूध, और मांस-मछली में होता है। आश्चर्य की बात है कि दालों की बात तक नहीं की गई है। इस व्यवस्था से कुपोषण तो नहीं दूर होगा।
सरकार द्वारा किसानों से खरीदे गए अनाज के भंडारण की ठीक व्यवस्था नहीं है। यह खरीद केंद्रों पर, रेलवे स्टेशनों पर और सरकारी गोदामों में सड़ता रहता है। इस बात को हमारे देश की उच्चतम अदालत ने संज्ञान में लिया था और एक बार सरकार से कहा भी था कि अनाज को गोदामों में सड़ाने से बेहतर है इसे गरीबों में मुफ्त में बांट दिया जाय। खाद्य सुरक्षा गारंटी में उसी सड़ते हुए अनाज के पैसे देने पड़ेंगे।
खाद्य सुरक्षा योजना के विविध रूप हैं। स्कूलों में मिड डे मील योजना को संयुक्त रूप से ग्राम प्रधान और प्रधानाध्यापक/प्रधानाध्यापिका के माध्यम से चलाया जाता है और इसे पौष्टिक कहा जा सकता है। आंगनबाड़ी और बालवाड़ी की योजनाएं भी उपयोगी हो सकती हैं। पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम यानी सस्ते गल्ले की दुकानों से गरीब परिवारों को पहले से ही अनाज मिल रहा है, भले ही भाव अलग है। कठिनाई यह है कि सरकारों के पास खाद्य सुरक्षा व्यवस्था को लागू करने के लिए भी पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम यानी सस्ते अनाज की दुकानों पर ही निर्भर होना पड़ेगा। यदि अन्न की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया गया तो कुपोषण मिटाना तो दूर, यह पेट भरने वाली व्यवस्था भी नहीं बन पाएगी।
जरूरत इस बात की नहीं है कि किसानों को उन्हीं से अनाज खरीद कर फिर गोदामों में सड़ाकर और मेहरबानी के रूप में सस्ते दामों पर खैरात की तरह दिया जाय। आवश्यकता इस बात की है कि उनकी क्रयशक्ति बढ़ाई जाय जिससे वे अपने परिवार को पौष्टिक आहार दे सकें। कुछ इलाकों को छोड़ दीजिए तो शेष भारत में पेट भरने को अनाज सबके पास है। आवश्यकता है कुपोषण से मुकाबला करने की यानी श्रम के हिसाब से कैलोरी उपलब्ध कराने की।
एक व्यावहारिक तरीका यह था कि खाद्य सुरक्षा लागू करने के पहले सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर उनके यहां चल रही योजनाओं का मूल्यांकन किया गया होता और यह निर्णय लिया जाता कि इन योजनाओं को किस प्रकार पौष्टिकता बढ़ाने वाला बना सकते हैं। किसानों और मजदूरों को अनाज की खैरात ना देकर उन्हें वह ताकत दी जानी चाहिए जिससे वे अपने मन का अनाज, दाल, सब्जी और फल खरीद सकें। अफसोस है कि सरकार लोगों को बैसाखी पर जिन्दा रखना चाहती है, अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देगी।
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