अब लोककलाओं की कोई बात नहीं करता

Basant KumarBasant Kumar   2 March 2017 8:40 PM GMT

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अब लोककलाओं की कोई बात नहीं करतालाइफ ऑफ़ अन आउटकास्ट फिल्म में राजेश कुमार(

लखनऊ। नाटक लेखन के जरिये वंचितों की आवाज़ को मजबूत करने वाले राजेश कुमार को 2017 के जुगल किशोर स्मृति पुरस्कार दिया जा रहा है। इससे पहले राजेश कुमार को साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा नाट्य लेखन के लिए मोहन राकेश पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। पटना के रहने वाले राजेश कुमार ने आखिरी सलाम, अन्तिम युद्ध, घर वापसी, कह रैदास खलास चमारा और अम्बेडकर और गांधी जैसे चर्चित नाटक लिखे हैं। राजेश कुमार से बसंत कुमार की बातचीत

आप अपने सफर के बारे में बताइए?

मैं बिहार का रहने वाला हूं, पिता जी सरकारी नौकरी में थे तो इस शहर से उस शहर जाना पड़ता था। मेरा जन्म पटना में हुआ और पढ़ाई आरा शहर में हुई। सन् 1974-75 में जब हम बड़े हो रहे थे वो आन्दोलन का दौर था। नक्सलवादी आन्दोलन का प्रभाव भी इस शहर में दिख रहा था। आरा में भी ज़मींदारों और सामंतों के खिलाफ भूमिहीन किसान संगठित होकर आन्दोलन कर रहे थे। दूसरी तरफ आपातकाल के विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आन्दोलन भी चल रहा था। तो इस तरह मैं बचपन से ही जुलूसों, नारों और दीवारों में लिखे नारों को सुनकर बड़ा हुआ। दसवीं करने के बाद मैं एक कहानी लेखक के तौर पर अपनी शुरुआत किया। मेरी पहली कहानी सारिका और दूसरी कहानी धर्मयुग में छपी थी। एक दर्जन से ज्यादा कहानियां लिखने के बाद मुझे लगा कि मुझे ऐसा माध्यम तलाशने की ज़रूरत है ज्यादा कम्यूनेटिंग फिर नाटक लेखन और निर्देशन की तरफ आ गया।

अंबेडकर और गांधी नाटक को लेकर आरोप लगता है कि आप गांधी जी को कमजोर और अम्बेडकर को मजबूत स्थिति में दिखाते हैं?

यह आरोप सरलीकृत आरोप है, इस नाटक को लिखने का उद्देश्य किसी को नीचे या ऊपर करना मेरा उद्देश्य नहीं था। वर्ण व्यस्था को लेकर दो तरह के मानने वाले लोग हैं, एक कहता है कि वर्ण व्यस्था को हटा देना चाहिए और एक कहता है, यह सनातन परम्परा है, हजारों साल से चली आ रही है इसे बनाए रखा जाए। इसी कनफ्लिक्ट को दिखाने के लिए मैं कुछ लिखने के बारे में सोच रहा था। इतिहास में नज़र डाला तो अम्बेडकर और गाँधी इसी तरह के किरदार लगे। गांधीजी ने वर्णव्यस्था की वकालत की और वो हमेशा उसके पक्ष में दिखते है। वहीं अम्बेडकर वर्णविहीन और जातिविहीन समाज बनाने का सपना देख रहे थे। अम्बेडकर और गाँधी तीन से चार बार मिले है, उसमें उनको जो बातचीत हुई है उसी को मैंने नाटक में रखा है।

नाटक लेखन में कमी आई है। इन दिनों ज्यादा लोग कविता या उपन्यास लिखते है?

राजेश कुमार को 2017 के जुगल किशोर स्मृति पुरस्कार दिया जा रहा है.

ऐसा कहा जा सकता है कि नाटक लेखन में कमी आई है। पिछले 15-20 वर्षों में कुछ लोगों ने एकाध नाटक लिखा लेकिन बाद में वो कहानियां और कविताएं लिखने लगे। इसके पीछे मुख्य कारण है नाटक लेखक और नाटक निर्देशक के बीच के सयोजन का कम होना। निर्देशक अपने ख्याल में रहता है और लेखक अपनी दुनिया में रहता है। निर्देशक समझता है कि लेखक ने लिख दिया लेकिन उसे तकनीकी जानकारी और कैसे प्रजेंट किया जाए उसके बारे में लेखक को जानकारी नहीं होगी। बीच में काफी अंतर आ गया लेखकों और नाटक निर्देशकों के बीच में जिसके असर नाटक लेखन पर ही दिखा। कोई भी नाटक स्टेज पार जाने के बाद ही मुकम्मल होता है।

नाटक लिखने की कुछ बारीकियों के बारे में बताएं ताकि जो लोग लिखना चाहते है उन्हें फायदा हो।

नाटक लिखने के लिए काफी संख्या में नाटक देखने और पढ़ने की ज़रूरत है। हमारे अगल बगल क्या घट रहा उसपर नज़र बनाए रखने की ज़रूरत है। बार-बार लिखने की ज़रूरत है। एकबार के लिखने से कोई भी बेहतरीन नाटककार नहीं बन सकता है। पहली बार शिल्प में गलती हो सकती है तो कभी संवाद लिखने में लेकिन बार-बार लिखने से यह गलतियां दूर हो सकती हैं।

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चुनाव चल रहा है लेकिन इसमें हर चीज़ के लिए राजनेता बातचीत कर रहे हैं लेकिन आर्ट को लेकर कोई चर्चा नहीं है?

किसी पार्टी घोषण पत्र में सांस्कृतिक नीति नहीं है। संस्कृति बदलाव को लेकर किसी भी सरकार ने कोई बदलाव नहीं किया है। आज नाटक करना बड़े शहरों के साथ-साथ छोटे शहरों में नाटक करने के लिए जगह नहीं है। जहां तक एनएसडी की बात है वो निसंदेह एक बड़ा संस्थान है। एनएसडी के अलावा राज्यों में भी नाटक से सम्बन्धित संस्थान खुले है लेकिन अकेले एनएसडी का बजट लगभग 80 करोड़ रुपए साल भर का है लेकिन बाकियों को ठीक से सरकार से अनुदान ही नहीं मिल पा रहा है। बहुत सारे संस्थाओं के पास सभागार नहीं है, शिक्षक नहीं है।

एक आलोचक का कहना है कि मुख्यधारा का रंगमंच घोर जातिवादी है। आपका इसपर क्या कहना है?

आलोचक राजेश चन्द्रा उन्होंने जिस बहस को छेड़ा है कि मुख्यधारा का रंगमंच ब्रह्मवादी होता है। यह केवल उन्हीं की बात नहीं है। इस तरफ निर्देशक अरविन्द गौड़ ने भी उठाया है। मुख्यधारा के रंगमंच को शहरी रंगमंच भी कह सकते है। शहरी रंगमंच में जिस तरह के नाटक हो रहे है वो किस तरह के नाटक है। हमारे देश में 85 प्रतिशत लोग अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय से है। मुख्यधारा के रंगमंच में यह समाज एक लम्बे समय से गायब है। हिंदी रंगमंच ने वर्णवादी व्यस्था को मजबूत किया और उसको दूर करने की कोई भी कोशिश नहीं किया। हिंदी में गिने-चुने नाटक ही है जिसमें दलित नायक रहा है।

आपने हाल ही में एक फिल्म भी किया है, वो फिल्म भी दलित मुद्दों पर ही बनी है।

निर्देशक पवन कुमार श्रीवास्तव के निर्देशन में लाइफ ऑफ़ अन आउटकास्ट (Life of an Outcast) नाम से बनी फिल्म में मैंने एक भूमिका निभाया है। यह दलित समस्या पर बनी एक फिल्म है। मुझे ख़ुशी होती है जब युवाओं को इस तरह की फ़िल्में बनाते देखता हूं।

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