जब साहिर से अपनी फीस लेने पहुंचे शमा लाहौरी ...
Jamshed Qamar 2 Oct 2016 5:13 PM GMT

साहिर उन दिनों लाहौर से 'स़ाकी' नाम की एक मैगज़ीन निकालते थे। आमदनी कम होने के चलते 'साक़ी' नुकसान में चल रही थी हालांकि साहिर साहब की कोशिश हमेशा यही रहती कि मैगज़ीन में लिखने वालों को उनका मेहनताना वक्त पर दे दिया जाए। 'शमा लाहौरी' की ग़ज़लें उन दिनों काफी पसंद की जा रही थी। वो भी 'साक़ी' में लिखते थे। एक बार साहिर किसी वजह से उनको उनका मेहनताना नहीं दे पाए। लाहौरी साब को शायद पैसों की ज़रूरत थी।
सर्दियों की एक शाम में वो साहिर के घर पहुंचे। उन्होने तय किया था कि बिना बात गोल-मोल घुमाये, सीधे-सीधे दो गज़लों के पैसे मांग लेंगे।
दरवाज़ा खटखटाया, साहिर ने दरवाज़ा खोला और उन्हे बहुत अदब से घर के अंदर लाए। शमा लाहौरी ठंड से कांप रहे थे। वो पैसे की बात करना चाहते थे लेकिन ना जाने क्या हुआ कि झिझक के चलते कह नहीं पाए। बोले, "बस इधर से गुज़र रहा था सोचा मिलता चलूं"। उन्हे कांपता हुआ देखकर साहिर ने बावर्चीख़ाने मे जाकर उनके लिये चाय बनाई। उन्होने चाय पी और साहिर उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठे रहे।
जब लाहौरी साब को ठंड लगना ज़रा कम हुई तो साहिर अपनी कुर्सी से उठे और दीवार पर लगी उस खूंटी की तरफ बढ़े जहां उनको तोहफे में मिला एक काफ़ी क़ीमती कोट टंगा था।
कोट उतारकर लाहौरी साब की तरफ बढ़ाते हुए बोले, "ये लीजिये, माफ़ कीजिएगा इस बार मेहनताना नकद नहीं दिया जा रहा"
- शमा लाहौरी के एक पुराने मज़मून से।
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