जब शायरी तवायफ़ के कोठे से उतर रही थी, वो मां पर ग़ज़ल कह रहा था, सालगिरह मुबारक
Jamshed Qamar 26 Nov 2016 9:44 AM GMT

मुनव्वर राणा उर्दू शायरी के वो बेहतरीन फ़नकार हैं जिन्होंने उस दौर में कलम उठाया जब कहा जाने लगा था कि उर्दू शायरी महज़ महबूबा की ज़ुल्फों में नज़्म ढूढ़ रही है। ग़ज़ल का मतलब ही ‘महबूबा से बात करना’ कहा जाता था लेकिन ऐसे वक्त में मुनव्वर साहब ने शायरी को नए आयाम देते हुए मां पर ग़ज़ल कही और जब कही तो पूरी दुनिया ने सुना। आज मुनव्वर साहब की सालगिरह के मौके पर पेश हैं उनके चंद ख़ूबसूरत अशार
अब आप की मर्ज़ी है सँभालें न सँभालें
ख़ुशबू की तरह आप के रूमाल में हम हैं
अब जुदाई के सफ़र को मिरे आसान करो
तुम मुझे ख़्वाब में आ कर न परेशान करो
ऐ ख़ाक-ए-वतन तुझ से मैं शर्मिंदा बहुत हूँ
महँगाई के मौसम में ये त्यौहार पड़ा है
भले लगते हैं स्कूलों की यूनिफार्म में बच्चे
कँवल के फूल से जैसे भरा तालाब रहता है
चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है
मैं ने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है
दौलत से मोहब्बत तो नहीं थी मुझे लेकिन
बच्चों ने खिलौनों की तरफ़ देख लिया था
देखना है तुझे सहरा तो परेशाँ क्यूँ है
कुछ दिनों के लिए मुझ से मिरी आँखें ले जा
एक आँसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है
तुम ने देखा नहीं आँखों का समुंदर होना
गर कभी रोना ही पड़ जाए तो इतना रोना
आ के बरसात तिरे सामने तौबा कर ले
जितने बिखरे हुए काग़ज़ हैं वो यकजा कर ले
रात चुपके से कहा आ के हवा ने हम से
कल अपने-आप को देखा था माँ की आँखों में
ये आईना हमें बूढ़ा नहीं बताता है
खिलौनों की दुकानों की तरफ़ से आप क्यूँ गुज़रे
ये बच्चे की तमन्ना है ये समझौता नहीं करती
किसी के ज़ख़्म पर चाहत से पट्टी कौन बाँधेगा
अगर बहनें नहीं होंगी तो राखी कौन बाँधेगा
किसी की याद आती है तो ये भी याद आता है
कहीं चलने की ज़िद करना मिरा तय्यार हो जाना
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